तेजेंद्र शर्मा को समर्पित
प्रेरणा
"नीना आज कल क्या लिख रही हैं।"
"एक उपन्यास लिखने का मन है। दो तीन विषय दिमाग में घूम भी रहे हैं किंतु कुछ समझ में नहीं आ रहा कि कहाँ से शुरू करूँ।"
"हूँ... आप लेस्टर में कब से रह रही हैं?"
"करीब पिछले तीन दशक से... पहले लेस्टर के ही एक गाँव लॉफ़्बरो में रहती थी अब कुछ वर्षों से लेस्टर में रह रही हूँ।"
"तो फिर... इतने वर्षों से आप लेस्टर में हैं। अपने चारों ओर नजर डालिए विषय तो आपके सामने खड़ा है। आपने लेस्टर के कितने उतार-चढ़ाव देखे होंगे। चलाइए कलम और लिख डालिए लेस्टर शहर पर अगला उपन्यास..."
यहाँ के वरिष्ठ कहानीकार तेजेंद्र शर्मा जी का दिल की गहराइयों से धन्यवाद जो बातों ही बातों में मुझे उपन्यास के लिए एक विषय देकर मेरे दिमाग में उथल-पुथल मचा गए। मैं रात भर सोचती रही कि इस विषय पर क्या लिखा जा सकता है। कैसे शुरू करूँ... कहाँ से करूँ... इसके लिए सामग्री कहाँ से मिलेगी। तेजेंद्र जी ने मुझ पर विश्वास करके मुझे यहाँ के जन जीवन पर लिखने को बोला है तो अब मेरा भी फर्ज बनता है कि कुछ अलग सा लिख कर दिखाऊँ। यह मेरे लिए भी एक नया अनुभव था। मेरी सोच सुझे काफी वर्ष पीछे ले गई। जिस दिन से मैं ब्रिटेन आई एक एक करके वह सारी घटनाएँ आँखों के सामने से गुजरने लगीं। बस इसी उधेड़बुन में रात भर सो ना पाई।
दूसरे दिन से ही मेरा लेस्टर के विषय में रिसर्च आरंभ हो गया। मैं 1973 से लेस्टर में हूँ। यहाँ की इकोनोमी का उत्कर्षापकर्ष देखा है... माइनर्स की दो हड़ताल देखी हैं जो ब्रिटेन की इकोनोमी के अपकर्ष का कारण बनी।
यह विषय उतना सरल नहीं था जितना कि सुनने में लगता है। मैंने इसी विषय के ऊपर लिखने की ठान ली। कुछ ऐसा भी नहीं लिखना चाहती थी जो उपन्यास लेस्टर का इतिहास बन कर रह जाए।
एक अंग्रेज दंपति टैरी जेक्सन व फ्लोरी जेक्सन मेरे बहुत पुराने मित्र हैं। टैरी लेस्टर के ही एक प्रसिद्ध गाँव लॉफ़्बरो के स्कूलों के गवर्नर रह चुके हैं। इनके बहुत से अध्यापक व लेखक मित्र भी हैं। मैंने अपनी बात इनके सम्मुख रखी।
टैरी व फ्लोरी का हार्दिक धन्यवाद जिन्होंने मेरी बात की गंभीरता को जानते हुए इस उपन्यास को शुरू कराने में मेरी बहुत सहायता की। इन्होंने मुझे तीन ऐसे अंग्रेज लेखकों से मिलवाया जिन्होंने लेस्टर के इतिहास के विषय में लिखा है। मेरा मुख्य उद्देश्य लेस्टर का इतिहास नहीं यहाँ के रहन सहन और एशियंस पर उसका प्रभाव के विषय में लिखना था। फिर भी उन लेखकों से मिलना बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ।
इनसे बात-चीत करते हुए मेरी कलम भी नोट्स लेने में सक्रिय रही।
1973 में जब मैं ब्रिटेन आई तो मेरा निवास स्थान लॉफ़्बरो था। लॉफ़्बरो में काफी एशियंस दिखाई दिए। अधिकतर लोग यहाँ के कारखानों में ही काम करते मिले। इनमें बहुत से तो डिग्रियों के मालिक भी थे। उस समय इकोनोमी अपनी चरम सीमा पर थी। काम की कोई कमी ना थी। घरों में पर्चे फेंके जाते थे कि आओ हमारे कारखाने में काम करो। उन दिनों यूनियन का बोलबाला था।
एक फैसले से ब्रिटेन की इकोनोमी अपकर्ष की ओर चल पड़ी। इसमें दोष यूनियन को दिया जाए या सरकार को... पतन तो हुआ। यह कैसे हुआ। इसका कुछ आभास आपको उपन्यास पढ़ कर हो जाएगा।
मैं यहाँ हेजल फिश का भी धन्यवाद कर दूँ जिन्होंने मेरे लिए ब्रेडगेट लायब्रेरी व लॉफ़्बरो लायब्रेरी से सामग्री एकत्रित करके भेजी। हेजल फिश सैकंडरी स्कूल की अध्यापिका रह चुकी हैं जिनका वर्णन इस उपन्यास में भी मिलेगा। इनसे और भी बहुत सी बातों की जानकारी प्राप्त हुई जिसके बिना शायद मैं इस उपन्यास को लिखने का साहस ना जुटा पाती।
कुछ पुराने कारखानों के मालिकों से भी मुलाकात का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिनको माइनर्स की दूसरी हड़ताल के कारण अपने चलते हुए कारखानों को ताला लगाना पड़ा था।
जहाँ से जो भी जानकारी मिली मैंने सब को इकट्ठा किया। आधुनिक आविष्कार इंटरनेट की सहायता से काफी सामग्री एकत्रित करके करीब तीन वर्ष पहले मैंने इस उपन्यास की नींव रखी थी। अभी शुरुआत ही की थी कि अस्वस्थता के कारण सब बीच में ही छूट गया। हस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए मैं इस उपन्यास के विषय में ही सोचती रहती। यह मेरे लिए भी एक अलग सा नया अनुभव था।
वैसे तो प्रत्येक लेखक को अपनी हर रचना प्रिय होती है। आपको पढ़ कर ही पता चल जाएगा कि इस उपन्यास को लिखने में मैंने बहुत मेहनत की है। मेरा यह प्रयास कहाँ तक पाठकों को प्रभावित करता है यह तो उनकी प्रतिक्रिया से ही पता चलेगा।
"कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर" मेरा तीसरा उपन्यास है। इससे पहले दो उपन्यास "रिहाई" और "तलाश" पाठकों की प्रशंसा और सम्मान पा चुके हैं। रिहाई उपन्यास के लिए "अखिल भारतीय हिंदी सम्मेलन" द्वारा सम्मान मिला व "तलाश" उपन्यास के लिए कथा यूके द्वारा "पद्मानंद साहित्य सम्मान" जो ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमंस में मिलता है लेने का सौभाग्य प्राप्त कर चुकी हूँ।
यहाँ मैं अपने बच्चों का भी धन्यवाद कर दूँ जो हर कार्य में मेरे साथ खड़े मिलते हैं। अब आप पर निर्भर करता है कि पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया दीजिए कि मुभे अपने इस प्रयास में कहाँ तक सफलता मिली है।
नीना पॉल
कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर
एक हल्की सी आवाज से निशा की नींद खुल गई।
आवाज खुली खड़की से आई थी। जम्हाइयाँ और अँगड़ाइयाँ लेते हुए उसने कंबल को एक ओर सरकाया। कल की रात ही कुछ ऐसी उमस से भरी गर्म थी कि खिड़की खोलनी ही पड़ी।
ब्रिटेन में ऐसे अवसर कम ही होते हैं जब रात को ठंडी हवा की जरूरत महसूस हो...। वैसे यहाँ के मौसम का कुछ भरोसा भी तो नहीं किया जा सकता। सर्द हवाओं के बाद जब यह मौसम अचानक करवट लेता है तो वातावरण में एक अजीब सी उमस भर जाती है। ठंडी पड़ी धरती पर जब सूरज की गर्म किरणें थोड़ी गरमाहट पहुँचाने की कोशिश करती हैं उस समय हवा में एक हल्का दबाव सा महसूस होने लगता है। यहाँ की गर्मी भारत जैसी नहीं है कि सूरज का तपता हुआ गोला प्रकट हुआ और सब पसीने से नहा गए। यहाँ तो पसीना निकालने के लिए तेज धूप में बैठना पड़ता है जहाँ पसीना तो कम निकलता है लेकिन चमड़ी का रंग जरूर गहरा हो जाता है।
चमड़ी का रंग गहरा करने हेतु ही तो थोड़ी सी गर्मी होते ही लोग घरों से बाहर निकल पड़ते हैं। जो इतने महीनों से गर्म कपड़ों में लिपटे शरीर को सूर्य की थोड़ी किरणें छू सकें। वैसे ब्रिटेन में सूरज की गर्मी कहाँ नसीब होती है। यहाँ की अंग्रेज महिलाएँ अपने पीले रंग को थोड़ा गहरा करने के लिए बिजली की मशीनों का प्रयोग करती हैं। यह मशीनें भी ऐसी कि नीचे आरामदायक बिस्तर बिछा होता है और ऊपर के पलड़े पर बड़ी बड़ी टयूब लाइट्स लगी होती हैं जिनमें से गर्मी निकलती है।
महिलाएँ अपना रंग भूरा करने के लिए घंटों इन तेज रोशनी और गर्मी से भरी बिजली के नीचे लेटी रहती हैं। यह सोचे बिना कि यह तेज बनावटी गर्मी हानिकारक भी सिद्ध हो सकती है। इससे चमड़ी पर कैंसर होने का भी डर होता है। फिर भी गर्मी में सुंदर दिखने के लिए यह इन मशीनों का प्रयोग करती हैं।
वाह रे उल्टी खोपड़ी... एक ओर तो यह गोरे लोग भूरी चमड़ी वालों से घृणा करते हैं और दूसरी तरफ इतने पाउंड खर्चा करके इन जैसा रंग भी अपनाना चाहते हैं।
रंग तो स्वयं ही बदलेगा जब धूप निकलते ही लोग छोटे-छोटे कपड़े पहने हुए पार्क या किसी समुद्र के किनारे का रुख करते हैं। पार्क में जहाँ बड़े बच्चे आपस में फुटबाल खेलते दिखाई देते हैं तो वहीं छोटे बच्चे झूला झूलते हुए मिलते हैं। ऐसे मौसम को कोई भी चूकना नहीं चाहता। युवा जोड़े भी इस मस्ती से दूर कैसे रह सकते हैं। कुछ लोग तो खुलेआम इनकी मस्ती ही देखने के लिए आते हैं।
मस्ती भी ऐसी कि ब्रिटेन के समुद्री तटों पर लोगों का ताँता लग जाता है। कुछ कुर्सियों पर लेटे धूप का आनंद लेते मिलते हैं तो कुछ रेत पर बैठे बच्चों के साथ घरौंदे बना कर खेल रहे होते हैं। धूप में लेटी हुई अर्धनग्न महिलाएँ शरीर पर लोशन लगा कर सनटेन लेने की कोशिश कर रही हैं। चारों ओर शोर-शराबा, समुद्र की लहरों से खेलते युवा जोड़े, सतरंगी सूरज की किरणों से मेल खाते लोगों के रंग-बिरंगे कपड़े, बच्चों की किलकारियाँ, मस्ती भरा माहौल... यही सब देखने को मिलता है...। यह है ब्रिटेन के सूर्य देवता का कमाल जिसका लोग महीनों इंतजार करते हैं।
इंतजार तो निशा को भी है सुबह का। उसने जम्हाइयाँ लेते हुए बिस्तर छोड़ दिया। वह खिड़की के सामने से पर्दा हटा कर बाहर देखने लगी...।
बाहर का दृष्य बाँहें खोले निशा को निमंत्रण दे रहा था। निशा की आदत है कि सुबह उठते ही वह कुछ समय के लिए खिड़की के पास जरूर खड़ी होती है। जब पहाड़ी के पास घर हो... फूलों से सुगंधित ब्यार चल रही हो... सुबह के उगते सूर्य में हलकी सी गर्मी हो... कौन घर में बैठ सकता है।
निशा लेस्टर के एक गाँव लॉफ़्बरो में रहती है। लॉफ़्बरो जो अपनी युनिवर्सिटी के साथ-साथ और भी बहुत सी चीजों के लिए प्रसिद्ध है। अंतरिक्ष से अपनी पहली उड़ान के दौरान परीक्षण के लिए लाए गए पत्थर के टुकड़े का परीक्षण लॉफ़्बरो युनिवर्सिटी में ही हुआ था।
यहाँ की बहुत ही प्रसिद्ध बीकन हिल का नाम भी लॉफ़्बरो निवासी बड़े गर्व से लेते हैं। निशा बीकन हिल के करीब ही विक्टोरिया स्ट्रीट में रहती है। काली और भूरी चट्टानों से भरी बीकन हिल जिन पर खड़े हो कर पूरे लॉफ़्बरो शहर को देखा जा सकता हैं। चारों तरफ बने हुए एक जैसे मकान, कहीं कारखानों से उठता हुआ धुआँ तो कहीं लंबी टेढ़ी मेढ़ी सड़कें...। दूर से धुंध में डूबा हुआ लॉफ़्बरो का मशहूर क्वीन्स पार्क दिखाई दे रहा है जिसके बीचो बीच में एक लंबा स्मारक चिह्न सुबह की धुँधली धूप में चमक रहा है। जिसे क्रिलियन के नाम से जाना जाता है।
बीकन हिल से ही गर्व से सिर उठाए लॉफ़्बरो के चर्च आकाश को छूते मिलते हैं। जिधर नजर दौड़ाओ बस चारों ओर हरियाली ही हरियाली फैली हुई है। गर्मी के दिनों में बीकन हिल और इसके आस-पास लोगों की काफी रौनक रहती है। शाम के प्राकृतिक दृष्य रोज एक नई कहानी सुनाते हैं। एक तरफ सूरज के डूबने से चट्टानें भूरी और नारंगी रंग में भीग कर अपना सोंदर्य फैला रही होती हैं तो दूसरी ओर धीरे धीरे सरकती रात से चट्टानों पर सलेटी रंग की चादर बिछ जाती है...।
सलेटी रंग नहीं सफेदी से भरी कोहरे की चादर उस दिन भी बिछी हुई थी जब पहली बार निशा की मॉम सरोज ने परिवार सहित ब्रिटेन की धरती पर कदम रखा था।
छोटी सी पाँच महीने की बच्ची निशा को सीने से चिपकाए हीथरो हवाई अड्डे पर सरोज उनके पति सुरेश भाई व माँ सरला बेन डरते हुए भीड़ के साथ आगे बढ़ रहे थे। उनके समान और लोग भी डरे हुए थे जो पहली बार ब्रिटेन आ रहे थे।
डरने की तो बात ही थी। अपना बसा-बसाया घर बार छोड़ कर किसी अज्ञात स्थान पर जा कर फिर से आशियाना बसाना कोई मामूली बात तो थी नहीं। निशा की नानी सरला बेन को एक बार फिर मजबूर हो कर नया घर बसाने के लिए दर-दर भटकना पड़ा। अपना घर-बार छोड़ने का दर्द सरला बेन से अधिक कौन जान सकता है। उनकी खामोश नजरें दिल में उमड़ता तूफान छुपाए हुए थीं।
असली तूफान युगांडा में रहने वाले भारतीयों की जिंदगियों में उस दिन उठा था जब...
सुरेश भाई दुकान को ताला लगा कर बड़े उदास मन से घर में आए। उनका सिर झुका हुआ था। किसी गहरी सोच में डूबे हुए वह धम्म से कुर्सी पर बैठ गए...
सरोज जल्दी से हाथ पोंछते हुए किचन से बाहर आई... "क्या बात है जी... तबियत तो ठीक है। आज दुकान भी जल्दी बंद कर दी।"
"हाँ सरोज चिंता तो इस बात की है कि पता नहीं यह ताला कल खुलेगा भी या नहीं..."
"शुभ-शुभ बोलो जी... ऐसी भी क्या बात हो गई। किसी से झगड़ा हुआ है क्या... शीघ्र बताइए बात क्या है मेरा दिल बैठा जा रहा है।"
"इस बात की अफवाह तो बहुत दिनों से फैल रही थी सरोज। कुछ अकलमंद लोग सब कुछ बेच-बाच के यहाँ से चले भी गए हैं। किंतु कुछ हमारे जैसे भावुक यहीं से चिपके पड़े हैं यह सोच कर कि सब कुछ ठीक हो जाएगा। पर नहीं सरोज... हमारे राष्ट्रपति इदी अमीन ने खुले आम ऐलान कर दिया है कि सब भारतीवंशी युगांडा छोड़ कर चले जाएँ।"
"क्या... चले जाएँ पर कहाँ...?"
"यह तो नहीं बताया और ना ही कोई जानता है किंतु सप्ताह के अंदर हमारी जमीन जायदाद सब कुछ जब्त कर लिया जाएगा। इतने थोड़े से समय में कोई घर दुकान बेच भी तो नहीं सकता। जब यहाँ के निवासियों को भरा-भराया घर और दुकानें यूँ ही मिल जाएँगी तो कोई क्यों खरीदेगा। हम अपना कुछ निजी सामान ही ले कर जा सकते हैं। इदी अमीन को अपने देश में भारतीय नहीं उनका पैसा, जायदाद व व्यापार चाहिए। मेरा तो दिल बैठा जा रहा है सरोज परिवार के साथ हम कहाँ जाएँगे?"
सरोज की माँ सरला बेन... जिन्होंने दुनिया देखी हुई है वह आगे बढ़ कर सुरेश भाई को धीरज बंधाने लगीं। "घबराइए मत जमाई जी। मैं भी पड़ोसियों से यह बात सुन कर आ रही हूँ। वह सब इंग्लैंड जा रहे हैं। आपके पापा ने जाने से पहले बहुत अच्छा काम किया था कि हम सबका ब्रिटिश पासपोर्ट बनवा दिया था नहीं तो आज हम कहीं के न रहते। हमारे पास भी ब्रिटिश पासपोर्ट है। जिधर सब जा रहे हैं उधर हम भी अपनी किस्मत आजमाने चल पड़ेंगे।"
सब खामोशी से अपना सामान बाँध रहे थे। खामोशी के अतिरिक्त और कोई विकल्प भी तो नहीं था। सब को इस बात का भी ध्यान रखना था कि दो सूटकेस से अधिक न हो जाए नहीं तो हवाई जहाज वाले पैसे लगा देंगे।
नया जीवन आरंभ करने के लिए साथ में केवल दो सूटकेस और 55 पाउंड...
सरोज पैसे गिनते हुए बोली... यह 55 पाउंड कब तक चलेंगे जी। साथ में छोटा बच्चा है... बा हैं। इन 55 पाउंड में हम क्या खाएँगे और कहाँ रहेंगे।
सरोज घबराओ मत। जिसने इस मुसीबत में डाला है वही रास्ता भी दिखाएगा।
जिसे जिधर रास्ता दिखाई दिया वह उधर की ओर चल पड़ा। अधिकतर भारतीयों के पास ब्रिटिश पासपोर्ट थे। अपना निजी सामान ले कर व सब कुछ पीछे छोड़ कर सब ने एक अनजान देश ब्रिटेन का रुख किया।
पीछे केवल घर जायदाद ही नहीं छोड़ा बल्कि वहाँ का मौसम भी छूट गया। ब्रिटेन जैसे ठंडे देश का तो किसी को अनुभव ही नहीं था। हीथरो एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही जिस सबसे पहली चीज का सामना करना पड़ा, वे थीं ब्रिटेन की ठंडी हवाएँ। नवंबर का सर्द महीना था। मौसम के हिसाब से ढंग के कपड़े भी नहीं थे किसी के पास। वैसे अपनी सोच के अनुसार सभी ने गर्म कपड़े पहने हुए थे। शायद किसी को ये अंदाजा नहीं था कि इतनी ठंड भी हो सकती है।
छोटी सी निशा... शाल में लिपटी हुई बाहर की सर्दी से बेखबर सरोज के सीने से चिपकी हुई माँ के शरीर की गर्मी ले रही थी। ठिठुरते हुए अधिकतर लोगों ने लेस्टर का रुख किया। कारण साफ था कि लेस्टर को इंडस्ट्रीज का शहर माना जाता था। यह एक सस्ता शहर भी था। इंडस्ट्रीज के कारण उनके हिसाब का काम भी सारा लेस्टर में था।
लेस्टर में ही इनके आने से पहले कई भारतीय बसे हुए थे। सुरेश भाई को जब पता चला कि उनके दूर के रिश्ते के भाई मुकुल पटेल यहाँ लेस्टर में हैं तो उनके दिल को थोड़ी राहत मिली। यह वो समय था जब ब्रिटिश सरकार ने यहाँ के कारखानों में काम करने के लिए भारतीयों को अनुमति व बीजे दिए थे। उस समय गुजरात से आए लोगों के साथ मुकुल पटेल भी एक थे। ब्रिटेन के कारखानों में काम करने वालों की कमी थी। प्रोडक्शन बढ़ाने के लिए ब्रिटिश सरकार को यह एक सस्ता और आसान तरीका नजर आया जिस कारण भारत से बहुत से लोगों को यहाँ आने की अनुमति दे दी गई।
गुजरात से ही नहीं भारत के एक प्रदेश पंजाब के देहातों से भी काम करने के लिए लोगों को दिल खोल कर ब्रिटेन में आने के लिए वीजे दिए गए। ब्रिटिश निवासियों ने इनके आने पर आवाज तो उठाई किंतु देश की भलाई के कारण अधिक आपत्ति नहीं जताई। लोग ये सोच कर चुप थे कि पैसा कमा कर थोड़े समय के पश्चात यह लोग वापिस अपने देश लौट जाएँगे। मगर यहाँ की सुख सुविधाएँ व अच्छा वेतन देख कर यह लोग परिवार सहित यहीं बस गए। यहाँ पर बस ही गए तो यहाँ का रहन सहन अपनाने में ही सबने अपनी भलाई समझी।
जब परदेस में कोई अपना मिल जाए तो खुशी दोनों तरफ से होती है। मुकुल पटेल एक बड़ी सी कार ले कर सुरेश भाई के परिवार को लेने हीथरो हवाई अड्डे पर पहुँच गए। ब्रिटेन में कार केवल सुख सविधा के साधन के लिए ही नहीं बल्कि कार यहाँ पर एक जरूरत की वस्तु है... यहाँ के मौसम और दूरियों को देखते हुए। मुकुल भाई को देख कर सबको खुशी हुई। अनजान देश में कोई जाना पहचाना चेहरा देख कर दिल में छुपा डर कुछ हद तक दूर हो जाता है...
कार में बैठते ही मुकुल भाई ने कार में लगा हीटर चालू कर दिया जिससे सर्दी से सबको थोड़ी राहत मिली। सब उत्सुकतावश कार के शीशे से बाहर देख रहे थे। ब्रिटेन की साफ-सुथरी चौड़ी सड़कों पर कैसे कारें चुपचाप अपनी दिशा की ओर भागी जा रहीं हैं। कहीं से भी शोर या भोंपू की आवाज नहीं...। सड़कों पर व किनारे लगे पेड़ों पर सफेद कोहरा बिछा हुआ है। नंगे पेड़ों की डालियाँ सफेद कोहरे के वस्त्र पहने खुशी से झूम रहीं हैं। बीच बीच में धुंध भी मिल जाती। कहीं पर तो धुंध इतनी गहरी हो जाती कि सामने का रास्ता भी ठीक से दिखाई नहीं देता। नजर आती तो बस आगे चलती हुई कारों की लाल बत्तियाँ।
***
परिवार साथ हो और काम हाथ में ना हो तो अपना और प्रियजनों का पेट पालने के लिए इनसान कोई भी काम करने को तैयार हो जाता है।
बाहर से आए लोग तो कोई भी काम करने को तैयार थे किंतु ब्रिटिश निवासी इन्हें अपनाने को तैयार नहीं हुए। इतने सारे एक जैसे लोगों को देख कर वह वैसे ही घबरा गए थे। पहले ही कुछ वर्षों से ब्रिटेन के कारखानों में काम करने के लिए यहाँ की सरकार ने भारतवंशियों को वीजा देना शुरू कर दिया था। जो वह इनके कारखानों में काम करके प्रोडक्शन को योरोप के मुकाबले में और आगे बढ़ा सकें। मेहनती लोग सस्ते दामों पर मिल जाएँ तो और क्या चाहिए।
जहाँ पहले कभी जिन अंग्रेजों ने कोई भारतीय नहीं देखा वहाँ इतने सारे एक जैसे चेहरे देख कर वह पागल हो गए...। एक दूसरे से अपने दिल का डर बताने लगे...
"देखो तो... लगता है इतने सारे एलियंस हमारे देश पर हल्ला बोलने आ रहे हैं" खिड़की का पर्दा हटा कर बाहर झाँकते हुए बलिंडा ने कहा।
"नहीं बलिंडा ये एलियंस नहीं अफ्रीका से आने वाले कुछ और भारतीय हैं।"
"अब हमारा क्या होगा एनी...। यह भारत से आए लोग तो चारों ओर से हमें घेर रहे हैं...। लगता है हमने जो करीब दो सौ साल तक इन पर राज्य किया है ये शायद उसी का बदला लेने इतनी बड़ी संख्या में इकट्ठे हो रहे हैं। हैरानी तो इस बात की है कि सब कुछ जानते हुए भी अंग्रेज सरकार ने इतने सारे लोगों को यहाँ आने की अनुमति कैसे दे दी...।"
अनुमति तो मिली किंतु बेचारे अफ्रीका से निकाले गए लोग बहुत डरे हुए थे। अंग्रेजों का डरना अपनी तरह का था और भारतीयों का दूसरी तरह का। सब एक साथ रहने में ही अपनी भलाई मानते थे। इसमें उनका भी कोई दोष नहीं था। नया देश, नई भाषा, नए लोग वो एक गुट बना कर रहने में ही स्वयं को सुरक्षित समझने लगे।
इससे पहले कोई एक-आध भारतीय ही पढ़ाई के सिलसिले में ब्रिटेन आया करता था। उसे काफी कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता था। कोई भारतीय कितना भी पढ़ा लिखा क्यों ना हो उसे हीनता की भावना से ही देखा जाता था। भारतीयों में भी हीनता आना और डर पैदा होना स्वाभाविक था। इतने साल अंग्रेजों की गुलामी जो सही थी। जहाँ थोड़े से अंग्रेज आ कर अपनी रणनीति से इतने बड़े भारतवर्ष पर राज कर सकते हैं वहीं उन्हीं के देश में कदम रखते हुए घबराहट तो होगी ही।
वैसे एक बात तो ब्रिटिश निवासी भी मानते हैं कि लेस्टर को असली पहचान भारतीयों ने ही दिलाई है। 19वीं सदी के आरंभ में लेस्टर के विषय में कोई जानता भी नहीं था। मोटर-वे पर कहीं लेस्टर का साईन तक नहीं था। यहाँ तक कि ब्रिटेन के नक्शे में छोटा सा लेस्टर का नाम कहीं लिखा मिलता था। यूँ कहिए कि लेस्टर की पहचान भारतीयों से, और भारतीयों की पहचान लेस्टर से हुई।
लेस्टर अपने टैक्सटाइल के नाम से भी जाना जाता है। कपड़ा बुनने से लेकर पूरा वस्त्र तैयार करने के कारखाने यहाँ मौजूद हैं। कच्चा माल सस्ते दामों में भारत से लाकर, फिर उससे सामान तैयार करके पूरी दुनिया में बेचा जाता। प्रोडक्शन और सामान की माँग बढ़ने लगी तो काम करने वालों की कमी महसूस हुई। ऑर्डर्स पूरे करने के लिए अधिक से अधिक लोगों को काम पर रखा जाने लगा।
काम की बात छोड़ो... ब्रिटेन के लोगों को किसी से भी मिल-जुल कर रहना अच्छा नहीं लगता। ये स्वयं को सब से ऊँचा और सभ्य मानते हैं। और तो और अपने जैसे गोरे दिखने वाले अपने ही देशवासी आइरिश लोगों के साथ भी यह मेल-मिलाप रखना पसंद नहीं करते। आइरिश लोगों को चर्च, पब, यहाँ तक कि आइरिश बच्चों को इनके स्कूलों में भी जाने की अनुमति नहीं थी। आइरिश बच्चों को पढ़ाने के लिए कोई इंगलिश अध्यापक तैयार नहीं मिलता। इंगलिश और आइरिश बच्चों में भी आपस में भेद-भाव साफ दिखाई देता।
उस दिन गर्मी बहुत थी। कुछ आइरिश नौजवान ठंडी बियर पीने के लिए एक पब में घुस गए।
ग्राहकों को आया देख कर एक बारमैन ने मुस्कुराते हुए आगे बढ़ कर कहा... यस सर..."
"चार गिलास ठंडी बियर मेरे दोस्तों के लिए देना..."
उस लड़के का आइरिश एक्सेंट सुन कर बारमैन के होठों से मुस्कुराहट गायब हो गई। उसे बगलें झाँकते देख कर दूसरा बारमैन जल्दी से आगे आ कर बोला "हमारे यहाँ बियर नहीं बिकती..." पब लोगों से खचाखच भरा हुआ था। अधिकतर लोग बियर ही पी रहे थे। वह लड़का जरा गुस्से से बोला... "नहीं बिकती तो यह सब कैसे पी रहे हैं।"
"मैंने कहा न हमारे यहाँ बियर नहीं बिकती। आप लोग किसी अपने जैसों के पब में जाइए। यह इंगलिश पब है।"
इस प्रकार सब के सामने अपना अपमान होते देख वह चारों लड़के बारमैन की ओर गुस्से से देखते हुए पब से बाहर हो गए।
पब तो दूर की बात है इंगलिश चर्च में भी इन्हें जाने की अनुमति नहीं थी। चर्च तो इबादत का घर है। जब ऊपर वाले ने सब को एक जैसा पैदा किया है तो फिर ये धरती पे रहने वाले किस अधिकार से मतभेद करते हैं। वो भी इतना कि धर्म के नाम पर मरने मारने पर उतारू हो जाएँ। इंगलिश लोगों से अधिक तो आइरिश धार्मिक माने जाते हैं। हर रविवार को पूरे परिवार के साथ ये चर्च जाते हैं। आइरिश लोग अधिकतर केथोलिक धर्म को मानने वाले होते हैं। वैसे तो ब्रिटेन में हमेशा से ही दो धर्म मानने वाले पाए गए हैं - केथोलिक और प्रोटेस्टियन्स। जिनमें अकसर धर्म के नाम पर झगड़े भी होते रहते हैं...।
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आज चर्च में बहुत भीड़ व चहल-पहल है। लोगों के चेहरे से खुशी साफ झलक रही है। बात ही कुछ ऐसी है। आज से आइरिश लोगों को भी चर्च में आने की अनुमति जो मिल गई है। अब यह लोग भी जब चाहें चर्च आ सकते हैं।
धार्मिक कार्य समाप्त होते ही माइकल अपने परिवार के साथ आगे बढ़ा पादरी के हाथ को किस करने के लिए जो पादरी उनके मुँह में भी वाइन में भीगा हुआ डबल रोटी का टुकड़ा डाल दें। उसे अपना हाथ देने से पहले ही पादरी ने खींच लिया। वह पीछे खड़े अंग्रेज की ओर बढ़ गया। आयरिश लोगों के चेहरे से सारी खुशी गायब हो गई। चर्च में आने का रास्ता तो खुला किंतु कोई अंग्रेज पादरी इनको संडे सर्विस देने को तैयार नहीं हुआ।
आइरिश लोग भड़क उठे। यह सरासर उनका अपमान था। वह एक दूसरे के सामने अपना गुस्सा प्रकट करने लगे...
"अब हम क्या करेंगे माइकल... केवल चर्च के दरवाजे खुलने से ही हमारी पूजा पूरी नहीं होती। जब सरकार ने हमारे लिए चर्च के दरवाजे खोल दिए हैं तो इन धर्म के ठेकेदारों को क्या आपत्ति हो सकती है।"
"घबराओ मत... यदि यहाँ के पादरी स्वयं को भगवान से भी ऊँचा समझते हैं तो हम इटली से पादरी बुलवाएँगे जो हमें संडे सर्विस दे सके।"
इटली से पादरी तो आ गया किंतु संडे सर्विस से पहले ही उस इटली से आए पादरी के सफेद लंबे चोगे को ले कर विवाद खड़ा हो गया। वैसे भी जब कहीं छोटा सा भी परिवर्तन होता है तो ना चाहने वाले आवाज तो उठाते ही हैं। इटली से आए पादरी और ब्रिटेन के पादरियों में झड़प हो गई... इंगलिश पादरी ने आगे बढ़ कर गुस्से से कहा...
"आप इस प्रकार के कपड़े पहन कर हमारे चर्च में नहीं आ सकते।"
"पहली बात तो चर्च किसी एक का नहीं होता। चर्च केवल इबादत का घर है। और दूसरा क्या आप सब पादरियों की कोई खास युनिफॉर्म है यहाँ पर..."
"नहीं... लेकिन यह पढ़े लिखे लोगों का चर्च है जहाँ ऐसे लंबे चोगों की गुंजाइश नहीं...।"
"धर्म कहाँ कहता है कि आप क्या पहन कर चर्च में आओ। मैं इटली से आया हूँ जो देश धर्म के विषय में आप से अधिक जानता है।"
"अच्छा अब धर्म की परिभाषा आप हमें सिखाएँगे। यह हमारी मेहरबानी समझो जो आप जैसों को हमने चर्च में आने की अनुमति दे दी है। हम अपने धर्म को किसी के साथ नहीं बाँटते।"
"यह धर्म का बँटवारा कब से होने लगा। चाहे किसी भाषा में भी इबादत करो धर्म तो धर्म ही रहेगा। इस प्रकार किसी दूसरे पादरी भाई के अपमान की धर्म अनुमति नहीं देता।"
"हम धर्म के नाम पर कुछ भी कर सकते हैं..."
"धर्म तो भाईचारे का दूसरा नाम है मेरे भाई... धर्म सहनशीलता सिखाता है... आप यह क्यों भूल गए कि करुणा ही धर्म का आधार है... जो मुझे आप में दिखाई नहीं देती... आप धर्म का आदेश नहीं दे सकते। यह दिल से और प्यार से उत्पन्न होने वाली चीज है। जैसे प्यार बुद्धी को स्थिर करता है, धीरज मन को स्थिर करता है, प्रेम हृदय को स्थिर करता है, समर्पण शरीर के आवेश को स्थिर करके शांत करता है, न्याय आत्मा को स्थिर करता है... उसी प्रकार धर्म करुणा को जन्म हेता है। यह सब धर्म के आधार हैं। यह सारे आधार जब स्थिर हो जाते हैं तब मनुष्य करुणा से भर जाता है जिसे हम धर्म का नाम देते हैं। आप इन आधारों का बँटवारा कैसे कर सकते हैं..."
ऐसी धर्म की परिभाषा सुन कर वहाँ खड़े सब पादरियों के मुँह खुले के खुले रह गए। वह लंबे चोगे वाला केथोलिक पादरी उन्हें धर्म का अर्थ समझा कर चर्च से बाहर हो गया।
इटली से आने वाला पादरी अपने संग काफी पैसा लेकर आया था। अधिक पचड़े में ना पड़ने के कारण उन्होंने अपना अलग केथोलिक चर्च बनाने के लिए लेस्टर में ही एक जमीन का टुकड़ा खरीद लिया। जिसे देख कर केथोलिक लोग खुश तो हुए किंतु अपनी परेशानी लेकर पादरी के पास जा पहुँचे...
"फादर... जमीन तो हमने खरीद ली है किंतु इस पर चर्च बनाने का खर्चा कहाँ से उठाएँगे?" माइकल ने उदास स्वर में पूछा।
"बेटे जिसने यह जमीन खरीदने की हिम्मत दी है वही आगे भी सहायता के लिए हाथ बढ़ा देगा।"
प्रयत्नों के पश्चात सहायता मिलनी आरंभ हो गई। इटली में अधिकतर केथोलिक धर्म को मानने वाले रहते हैं। जब उनके पादरी ने ब्रिटेन में पहला केथोलिक चर्च बनाने का प्रस्ताव रखा तो धर्म के नाम पर इटली निवासियों ने दिल खोल कर दान दिया।
इस तरह लेस्टर में ही नहीं पूरे ब्रिटेन में इस पहले केथोलिक चर्च की स्थापना हुई जो लेस्टर की धरती पर बना। इसकी बाकी की बची हुई जमीन पर एक कम्युनिटी सेंटर बनाया गया जो बाद में एक स्कूल में परिवर्तित हो गया। यह स्कूल केवल लड़कियों के लिए ही था। आगे चल कर काफी मुसलमान लड़कियों ने इसमें दाखिला लिया। यह ब्रिटेन का सबसे पहला ऐसा स्कूल था जिसमें अधिकतर एशियंस और आइरिश लड़कियाँ थीं।
इधर आइरिश लोगों के लिए चर्च के दरवाजे खुले और उधर भारतीय बच्चों की मेहनत भी रंग दिखाने लगी। भारतीय बच्चे जान गए थे कि स्कूलों में अपना स्थान बनाने के लिए उन्हें कठिन परिश्रम करना होगा। पढ़ाई में गोरे बच्चों से आगे निकल कर दिखाना होगा। जिन स्कूलों में वह पहले प्रवेश नहीं कर सकते थे उनकी पढ़ाई की लगन को देख कर उन्हीं स्कूलों के दरवाजे उनके लिए खुलने लगे। किंतु केवल स्कूलों के अंदर जाने से ही बच्चों की मुश्किलें समाप्त नहीं हुईं। वहाँ पढ़ने वाले कई अंग्रेज छात्रों को उन्हें अपनाने में बड़ा समय लगा। अंग्रेज और भारतीय छात्र अपने अलग गुट बना कर रहते। अक्सर खेल के मैदान में दोनों की आपस में भिड़ंत भी हो जाया करती।
ये नहीं कि केवल लड़के ही बुली करते हों, लड़कियों में यह भावना और भी अधिक पाई जाती है। हाँ! वह तभी ऐसा करतीं हैं जब तीन चार इकट्ठी होतीं। यह लड़कियाँ जब किसी एशियन को पास से निकलता देखतीं तो नाक पर रूमाल रख कर ऐसे रास्ता बदल लेतीं जैसे सामने से गंदगी का ढेर चला आ रहा हो। कुछ तो घृणा से उनकी तरफ देख कर सड़क पर थूक भी देतीं। वैसे सड़क पर थूकना अंग्रेजी सभ्यता के खिलाफ समझा जाता है। एशियंस के लिए पाकी, ब्लडी बास्टर्ड आदि सुनना तो आम सी बात हो गई...।
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निशा जब ब्रिटेन आई थी तो कुछ महीने की बच्ची थी। ब्रिटेन में पहले प्ले ग्रुप व फिर यहाँ के स्कूल में पढ़ने के कारण उसे दूसरे बच्चों के समान अंग्रेजी भाषा समझने व बोलने में इतनी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। फिर भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ना और अंग्रेजी माहौल में रहना दो अलग बातें हैं। निशा घर में तो अपनी मातृ-भाषा ही बोलती है। जो अंग्रेजी में बोलते ही नहीं सोचते भी अंग्रेजी में ही हों, उनके लहजे को समझने और पकड़ने में समय तो लगता ही है।
सैकंडरी स्कूल में पहुँचते ही निशा को अलग ही परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। अंग्रेज बच्चे स्वयं को इन सब से ऊँचा मानते थे और अपना अलग ही गुट बनाए रहते थे। एशियन बच्चों का बोलने का ढंग, कपड़े पहनने का ढंग, खाने का ढंग आदि... सबका मजाक उड़ाया जाता।
मजाक उड़ता देख कर भी निशा ने हिम्मत नहीं हारी और अंग्रेज बच्चों से दोस्ती का हाथ बढ़ाने में पहल उसी ने की। एक स्कूल कैंटीन ऐसी जगह होती है जहाँ सभी बच्चे इकट्ठे बैठ कर खाना खाते हैं। कुछ सोच कर निशा अपनी प्लेट ले कर एक मेज की ओर बढ़ी जहाँ पहले से ही कुछ अंग्रेज छात्र बैठे खाना खा रहे थे...।
"इस लड़की का हौंसला तो देखो अपना गुट छोड़ कर अकेली ही हमारी मेज की ओर आ रही है।" खाना खाते हुए एक छात्र बोला...।
"आने दो ना मजा आएगा..."
निशा जैसे ही एक खाली कुर्सी पर बैठने लगी सब ने ऐसे मुँह बनाया जैसे अचानक कोई कड़ुवी चीज खा ली हो।
"हाय... मेरा नाम निशा है। हम एक ही कक्षा में पढ़ते हैं और आपस में जान पहचान ही नहीं तो सोचा क्यों न मैं ही दोस्ती का हाथ बढ़ा दूँ।" निशा ने जैसे ही हाथ आगे बढ़ाया सब ऐसे बनने लगे जैसे उसकी बात समझ में ना आ रही हो। फिर उसके एक्संट का मजाक उड़ा कर हँसने लगे।
उनकी हँसी ही नहीं जुबान भी बंद हो गई जब पढ़ाई में भारतीय बच्चे स्वयं को साबित कर गोरों से आगे निकलने लगे। भारतीय बच्चे समझ गए थे कि अंग्रेज बच्चों का मुकाबला करने के लिए उन्हें उनसे अधिक नंबर लाने होंगे जिसके लिए माँ-बाप ने भी अपना पूरा सहयोग दिया।
कुछ माता पिता इकट्ठे होकर स्कूल की मुख्य अध्यापिका के पास पहुँच गए। मुख्य अध्यापिका इतने सारे बच्चों के माता पिता को देख कर हैरान हो गई। वह शीघ्रता से दफ्तर से बाहर आकर उनके आने का कारण पूछने लगी...
आप सब लोग इतनी बड़ी मात्रा में यहाँ। कोई विशेष शिकायत...
"शिकायत तो नहीं एक विनती ले कर हम सब यहाँ उपस्थित हुए हैं... मैडम आप तो जानती ही हैं कि हमारे बच्चे कितने मेहनती हैं। अंग्रेजी हमारी मातृभाषा नहीं है जिस के कारण वह पिछड़ जाते हैं। हम चाहते हैं कि इन बच्चों को अलग से स्कूल के पश्चात एक दो घंटे अंग्रेजी की शिक्षा दी जाए जो उन्हें अंग्रेजी लहजा समझने में कोई कठिनाई न हो।"
इतने सारे बच्चों के माता-पिता की बात अध्यापिका कैसे ठुकरा सकती थी। उसने सबको आश्वासन ही नहीं दिया बल्कि स्कूल में ही भारतीय बच्चों को अंग्रेजी लिखना बोलना सिखाने के लिए अलग से कक्षाएँ लगनी आरंभ हो गईं। उनकी लगन और मेहनत को देखकर दूसरे अध्यापकों का रवैया भी धीरे-धीरे बदलने लगा। जिस स्कूल में भारतीय बच्चे पढ़ते थे उस स्कूल की पढ़ाई का परिणाम काफी अच्छा आने लगा। अब तो हर बड़े स्कूल ही नहीं बल्कि प्राइवेट स्कूलों ने भी भारतीय बच्चों को अपनाना आरंभ कर दिया जहाँ पहले अमीर अंग्रेजों के बच्चे ही पढ़ सकते थे।
बच्चों की अंग्रेजी भाषा में परिवर्तन साफ दिखाई देने लगा। निशा के माता-पिता के समान और माँ-बाप भी घर में अपने बच्चों को अंग्रेजी में ही बात करने के लिए प्रोत्साहित करते दिखाई दिए। इससे उनके दो मकसद पूरे हो रहे थे। एक तो बच्चों को यहाँ का समाज अपना ले, और वह दूसरे अंग्रेज बच्चों के साथ घुल-मिल कर रहें। इसी बहाने बड़े लोग स्वयं भी काफी अंग्रेजी के शब्द सीख रहे थे।
कुछ भी हो एशियन्स और अंग्रेजों के रहन-सहन में अंतर तो है ही। किसी हद तक ब्रिटिशर्स का डर भी सही था। जब बच्चे एक साथ बड़े होंगे, आपस में मिलें जुलेंगे तो जाहिर सी बात है कि यहाँ के स्वतंत्र माहौल में रहने के कारण लड़के लड़कियों में आपस में नजदीकियाँ भी बढ़ेंगी। युवा बच्चों के मेल-जोल को दोनों परिवार रोक नहीं पाएँगे। अंतर उस समय और भी सामने आएगा जब अंतर्राष्ट्रीय विवाह होंगे। दो भिन्न संस्कृतियों के ऐसे मिलने से टकराव भी अवश्य होंगे।
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"मम्मा यह लोग तो यहाँ बढ़ते ही जा रहे हैं..." सामने वाले घर में इतने सारे लोगों को आते जाते देख कर मिडल एवन्यू स्ट्रीट के लोग घबरा गए।
"घबराओ मत बेटा यह लोग कुछ समय के लिए ही यहाँ पर हैं। कुछ साल यह यहाँ ब्रिटेन में काम करके, अधिक से अधिक धन कमा कर वापिस अपने देश चले जाएँगे तब तक तो हमें इन्हें झेलना ही होगा।"
"अपने देश तो यह लोग बाद में जाएँगे मम्मा पहले तो यह भी पता नहीं चल रहा कि सामने वाले इतने छोटे से घर में कितने लोग रहते हैं कुछ समझ में नहीं आता।"
"हाँ बेटा जब से सामने वाले घर में रहने वाली महिला जून की मृत्यु हुई है तब से हमारी स्ट्रीट का माहौल ही बदल गया है। मना करने पर भी उसकी बेटी इन लोगों को मकान बेच कर लंदन चली गई है। उसे तो बस पैसों से मतलब था।"
"जी मम्मा... एक छोटा सा तीन बेडरूम का घर और सुबह शाम इतने नए चेहरे दिखाई देते हैं। इतने लोग सोते कैसे होंगे माँ।"
"पता नहीं बेटा... जब तक यह किसी नियम का उल्लंघन ना करें हम कुछ कर भी तो नहीं सकते।"
गोरों की उत्सुकता अपने स्थान पर सही भी थी। एक तीन बेडरूम के घर में दस से भी अधिक लोग रहते हैं। यह लोग शिफ्टों में काम करते हैं। कुछ लोग दिन में और कुछ रात में। किसी का भी परिवार साथ न होने के कारण पाँच बिस्तर को दस लोग प्रयोग में लाते हैं। जो लोग दिन में काम करते वह रात को जिन बिस्तरों पर सोते हैं उन्हीं पर रात को काम करने वाले दिन में सोते हैं। इस प्रकार वह अधिक से अधिक पैसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं जो शीघ्र ही या तो अपने देश वापिस चले जाएँ या अपना स्वयं का घर ले कर परिवार को यहाँ बुला सकें।
अंग्रेज तो ऐसा कुछ करने के विषय में कभी सोच भी नहीं सकते थे। उनके लिए ये सब दूसरी ही दुनिया की बातें थीं। जब लोगों ने वापिस भारत जाने के स्थान पर अपने परिवारों को ब्रिटेन में ही बुलाने की बात ब्रिटिश सरकार के सामने रखी तो वह कुछ न कर सकी। सबके पास रहने के लिए वीजा जो थे। एक दूसरे की सहायता से लोगों ने अपने घर खरीदने आरंभ कर दिए जो उनका परिवार आराम से रह सके और वह बच्चों को अच्छा जीवन दे पाएँ।
***
रविवार का दिन था।
अँगड़ाइयाँ लेते हुए निशा ने खिड़की खोल दी। बाहर पक्षियों के शोर से वातावरण भरा हुआ था। खुला मैदान हो... सुबह का समय हो... तो पक्षी भी कहाँ खामोश रहने वाले हैं। सुबह के समय हवा भी ठंडक भरी होती है। ब्रिटेन के हर मौसम की कुछ अपनी ही विशेषताएँ हैं। दिन चाहे कितना भी गर्म क्यों ना हो परंतु सूर्य के ढलते ही हवाओं में एक हलकी सी नमी महसूस होने लगती है। निशा अपने घर की खिड़की से बीकन हिल को साफ देख सकती है। जहाँ विभिन्न आकार और रंग की चट्टानें सिर उठा कर मुस्कुरा रही हैं।
बीकन हिल की दूसरी ओर नीचे उतरते ही पेड़ पौधों से भरा खुला मैदान है। थोड़ा आगे चल कर पानी से भरा तालाब है जिसमें सैंकड़ों बतखें मस्ती में इधर से उधर तैर रही हैं। स्कूल की छुट्टियों में तो इस तालाब के चारों ओर का दृश्य ही कुछ और होता है। जब हर उम्र के बच्चे माता पिता की उँगली थामे हाथों में डबलरोटी से भरा थैला बतखों को खिलाने के लिए ले कर आते हैं। कभी बतखें डबलरोटी लेने के लिए बच्चों के पीछे भागती हैं तो कभी बच्चे इनके पीछे भागते हैं। चारों ओर बस बच्चों का और बतखों का शोर सुनाई देता है।
शोर तो यहाँ की हवाएँ भी खूब करती हैं। रात के सन्नाटे में मस्ती से झूमती हुई पेड़ों की डालियों के बीच से छन्न कर आती हुई सड़क की बत्तियों की रोशनी... जैसे सैंकड़ों साये हाथ थामे चल रहे हों... हरियाली और मौसम में गमीं होने के कारण सुबह के समय चट्टानों पर हलकी सी धुंध बिछ जाती है।
उस गीली मटमैली धुंध को देख कर यूँ प्रतीत होता है... मानों किसी गृहणी की दही बिलोती, चिटक कर टूटी मटकी का झाग से भरा मट्ठा सारी चट्टानों पर इधर से उधर बह रहा हो। उस बिखरे झाग के नीचे से झाँकती हुई भीगी शरारती चट्टानें... ज्यूँ चोरी से माखन खाते हुए किसी नटखट बालक का लिबड़ा हुआ मुखड़ा... सुबह के समय के मंद मंद हवा से लहराते पेड़ और पूरे मैदान में बिछे जंगली फूल... अपनी सोंधी खुशबू से पूरे वातावरण में एक नशीली सुगंध भर देते हैं।
खुली खिड़की से फूलों की सुगंध से भरा ठंडा हवा का झोंका आया और निशा की पतली सी नाइटी के अंदर तक उसके बदन को छूता हुआ निकल गया। एक हल्की सी सिहरन निशा के सिर से पैर तक दौड़ गई। उसने शीघ्रता से खिड़की के पलड़े बंद कर दिए। उसकी साँसें तेज चल रही थीं। निशा का जी चाहा कि एक बार फिर से खिड़की खोल कर उस सिहरन को महसूस करे जो सारे बदन में एक हलकी सी गुदगुदी कर के निकल गई थी...।
महसूस करने की चीज तो ब्रिटेन का मौसम है जो ना जाने कब कौन सी करवट लेकर बैठ जाए।
जैसे इनसान का मस्तिष्क।
यह इनसानी मस्तिष्क भी कहाँ स्थिर रहता है। छोटा सा दिमाग जिसमें इतनी सारी जिज्ञासाएँ भरी हैं... जिनमें अनेक सवाल जवाब अपनी खिचड़ी पकाते रहते हैं। मस्तिष्क का शरीर के सबसे ऊपरी भाग, सिर में होने का भी कोई तो कारण अवश्य होगा...। शायद शरीर के सबसे ऊपरी भाग में होने से वह पूरे शरीर की गतिविधियों पर नजर रख सकता है। यहीं से यह सारी इंद्रियों को कार्य करने के संकेत भेजता रहता है जिससे शरीर का संतुलन बिगड़ने ना पाएँ।
मस्तिष्क विचारों का केंद्र है और विचार ही एकत्रित हो कर आविष्कार करते हैं। आविष्कार हुए, तो आकांक्षाएँ, जिज्ञासाएँ और भी बढ़ने लगीं, जिससे व्यक्ति जीने के, उन्नति करने के नए तरीके खोजने लगा।
ये आकांक्षाएँ ना होतीं तो मनुष्य अभी तक ना जाने कौन सी सदी में विचरण कर रहा होता। माना कि जीवन को आगे बढ़ाने के लिए इच्छाओं की आवश्यकता है परंतु हर चीज का अपना एक सीमित दायरा भी होता है। जब कोई यह दायरा तोड़ कर अपनी बाँहें चारों ओर फैलाने का प्रयत्न करता है तो अपने साथ-साथ दूसरों के लिए भी कष्टदायी सिद्ध होता है।
निशा एक खूबसूरत जवान लड़की है। उसके दिमाग में भी इच्छाओं की सरिता प्रवाहित होती रहती है जैसे बारिशों में बहती उफानी नदिया। नदिया का क्या भरोसा... वह तो एक दिन जा विशाल सागर की आगोश में समा कर अपना आस्तित्व तक खो देती हैं। इतने विशाल, खारे पानी के सागर में उसकी मिठास का महत्व ही समाप्त हो जाता है लेकिन निशा के दिमाग में अनगिनित उठते सवाल एक दिन जवाब खोज कर ही दम लेंगे...।
यह जवाब भी अपने में कई सवाल लिए होते हैं...। बीकन हिल की चोटी पर खड़े हो कर जब भी निशा दूर धरती और आकाश का मिलन देखती तो सोचने लगती कि ये बादलों के उस पार का जीवन कैसा होगा...। क्या वहाँ भी हमारे जैसे लोग रहते होंगे। ...अभी तो मैंने इस पार की जिंदगी को ही पूरी तरह से नहीं पहचाना तो फिर उस पार को जानने की तीव्र इच्छा मन में क्यों जागृत हो रही है। ...उस पार ...जिसे माँ ने भी कभी नहीं देखा लेकिन फिर भी हमेशा हमारा देश कह कर संबोधित करती है...। कैसा होगा वह देश जिसे देखने की ललक माँ के दिल में सदैव पनपती रहती है और जिसकी याद मात्र से नानी की पलकें भीग उठती हैं।
नानी को तो उस देश को छोड़े एक अरसा बीत गया है। क्या इतने वर्षों में वहाँ कोई परिवर्तन न आया होगा। ...जिस देश को माँ और नानी इतने मान के साथ अपना कह कर याद करती हैं क्या इतने समय के पश्चात उस देश के वासी उन्हें अपनाएँगे? ...बस इसी उधेड़बुन में खोई निशा माँ से अकसर उलटे सीधे सवाल कर के जवाब ढूँढ़ का प्रयत्न करती रहती है जिसका सीधा जवाब उसे आज तक नहीं मिला...।
सवाल करना हर बच्चे का अधिकार है पर सामने वाले के पास सही जवाब भी तो होने चाहिए...। निशा बचपन से माँ की जुबानी सुनती आ रही है कि हम भारत देश के रहने वाले हैं। हम कहीं भी रहें लेकिन हमारी जड़ें भारत में रहेंगी। निशा अक्सर सोचती...
वह पेड़ कैसा होगा जिसकी जड़ें तो भारत में हैं और शाखाएँ सारे संसार में फैली हुई हैं...। यदि कभी समय और मौसम की मार खाकर उस पेड़ की जड़ें खोखली होकर धरती में ही धँस गईं तो उन शाखाओं का क्या होगा जिन पर हजारों लोग घरौंदे बना कर रह रहे हैं। क्या वो घरौंदे टूट कर बिखर नहीं जाएँगे... आखिर अपनी जिज्ञासा मिटाने के लिए वह माँ से सवाल करने लगती...
"जब शाखाएँ ही उस पेड़ से अलग हो जाएँगी क्या तब भी हम उस देश से जुड़े हुए कहलाएँगे जिसमें कभी वह पेड़ पनप कर बड़ा हुआ था माँ।"
"बेटा तेरे सवाल तो कभी-कभी मुझे भी उलझन में डाल देते हैं...।
इन्हीं उलझनों का ही तो निशा हमेशा हल ढूँढ़ती रहती है। क्षितिज के उस पार जाने की उसकी इच्छा और भी तीव्र होने लगती है...।
"माँ आप बता सकती हैं कि उस पेड़ की नींव किसने रखी होगी। मैं उनसे मिल कर सब कुछ जानना चाहती हूँ। उस विशाल पेड़ को छूना चाहती हूँ..."
"बेटा मैं भी यही अपनी माँ से और शायद मेरी माँ अपनी माँ से सुनती आ रही हैं कि इस विशाल पेड़ की नींव हमारे पूर्वजों ने रखी थी। यह पूर्वज कितनी पीढ़ियों पुराने हैं इसका इतिहास बताना तो बहुत कठिन है...। मैंने जो अपने बड़े बूढ़ों से सुना है वही तुम्हें बता सकती हूँ कि हमारे पूर्वज भारत देश से हैं। हम संसार के किसी भी कोने में क्यों न चले जाएँ मगर कहलाएँगे भारतवंशी ही।"
"लेकिन माँ हमारा देश तो वही होना चाहिए न जहाँ हम पैदा हुए हैं। जहाँ हम रहते हैं। यह बात मेरी समझ से परे है मॉम कि हम रहें कहीं और कहलाएँ किसी और देश के... जहाँ हम रहते हैं, खाते कमाते हैं, क्या उस देश के प्रति हमारा कोई कर्तव्य नहीं? उस देश के साथ तो नाइंसाफी होगी न माँ...।"
"नाइंसाफी की सोचो तो क्या हमारे साथ कम हुई है, तब भी हम अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं। हमने अपनी पहचान नहीं छोड़ी..."
"मनुष्य की पहचान यदि उसके देश से होती है तो आप किस देश की कहलाएँगी माँ... भारत, अफ्रीका या ब्रिटेन...? नानी जी भारत से हैं, आप अफ्रीका में पैदा और बड़ी हुईं हैं। भारत देश आपने कभी देखा नहीं। अब पिछले कई वर्षों से आप ब्रिटेन में रहती हैं तो आप किस देश की कहलाएँगी माँ। मेरे बच्चे या उन के बच्चे किस देश को अपना देश कहेंगे या फिर दर-दर भटकते खानाबदोश कहलाएँगे..."
खा़नाबदोश ही तो हैं हम... निशा की नानी सरला बेन जो दूर बैठी माँ बेटी की बातें बड़े ध्यान से सुन रही हैं मन ही मन सोचने लगीं। जिस युगांडा देश को अपना घर जान कर जी जान तोड़ मेहनत की। तिनका-तिनका जोड़ अपना और बच्चों का पेट काट कर कितने अरमानों से एक आशियाना सजाया था यह सोच कर कि यह घर हमें और हमारे बच्चों को सुरक्षा देगा। जब उसी की छत उड़ गई तो फिर बचा ही क्या अपना कहने के लिए...। इधर सरोज जो स्वयं ही सवालों में घिरी हुई है वह बेटी को क्या जवाब दे।
जवाब तो सरला बेन निशा की नानी भी बरसों से कई सवालों के ढूँढ़ रही है...। दो भाइयों की लाड़ली बहन सरला बेन जो गुजरात के एक शहर नवसारी में अपने परिवार के साथ रहती थी। घर में छोटी होने के कारण सब की चहेती थी। माँ तो अपनी बेटी को नवसारी से बाहर अहमदाबाद तक भेजने को तैयार नहीं थी मगर क्या जानती थी कि उनकी बेटी की तकदीर में कुछ और ही लिखा है। शादी के समय माँ ने गले लगाते हुए ठीक ही कहा था "जा बेटा तुझे तखता हम देते हैं बखता ऊपर वाला दे...।" माँ-बाप बेटी के लिए अच्छा घर तो ढूँढ़ सकते हैं किंतु विरासत में अच्छी तकदीर नहीं दे सकते।
सरला बेन के पति पंकज भाई के चाचा जो युगांडा में रहते थे उनकी अचानक मृत्यु हो गई। वे पीछे पत्नी और दो बेटियों को छोड़ गए थे। अच्छा खासा उनका वहाँ किराना स्टोर चल रहा था। उसे अब सँभालने के लिए घर में कोई पुरुष न था। यह वह समय था जब महिलाएँ काम के लिए घर से बाहर नहीं जाती थीं। कमाना केवल पुरुषों का ही काम था। नौकरों के भरोसे किसी व्यापार को कब तक छोड़ा जा सकता। घर वालों ने सलाह करके पंकज भाई व उनकी नई नवेली पत्नी सरला बेन को युगांडा भेज दिया। उनका सोचना अपने स्थान पर उचित था कि कुछ वर्षों पश्चात वहाँ का काम समेट कर सब वापिस भारत आ जाएँगे। मगर वह जो ऊपर बैठा है न, वह मनुष्य की सोच से बहुत आगे सोचता है और सदा ही अपनी मनमानी करता है...। तकदीर ने कुछ ऐसा चक्कर चलाया कि एक बार उनके कदम अपने देश से बाहर क्या निकले कि फिर पलट कर वापिस न आ पाए। उन्हें एक देश से दूसरे देश में ले गए।
सरला बेन अकसर सोचतीं कि... पहले जन्म स्थान छूटा, फिर कर्म स्थान छूटा अब यह धर्म स्थान देखो कब तक पनाह देता है। धर्म स्थान इसलिए कि सब के पास ब्रिटिश पासपोर्ट होने के कारण ब्रिटिश सरकार को बिना कोई सवाल उठाए इन्हें अपने देश में पनाह देनी ही पड़ी...।
सवाल तो सरोज भी कभी खुल कर अपनी माँ सरला बेन से नहीं कर पाई कि वह किस देश की कहलाएगी। युगांडा जहाँ वह जन्म से लेकर जवानी तक रहीँ उसे वह कैसे भूल जाएँ जिसे कुछ वर्षों पहले बड़े गर्व से वह अपना देश कहती थी।
वह भी क्या समय था। देखते ही देखते कितने ही भारतीय जो अधिकतर गुजरात और पंजाब से थे, आ कर अफ्रीका के विभिन्न शहरों में बसने लगे। जिनमें हिंदू, मुसलमान भी और सिख भी थे। सबसे विशेष बात तो यह थी कि इन सब में आपस में भाईचारे की भावना थी। इनके मन में रंग रूप, जाति पांति का कोई भेद भाव नहीं था। पंजाबी जितनी अच्छी तरह से गुजराती बोल सकता था उससे कहीं अच्छी एक गुजराती पंजाबी बोलता था...। एक ही बिल्डिंग के लोग एक परिवार के समान रहते और मिलते जुलते थे। एक दूसरे के त्यौहारों में शामिल होते थे। अधिकतर लोगों का अपना कारोबार था। विशेषकर किराना स्टोर वगैरह जिसमें एशियन मसाले, दालें, चावल, घी, तेल आदि सामान मिलता था।
गुजराती जहाँ भी जाएँगे वहाँ एशियन खाने पीने की कभी भी कमी नहीं हो सकती। गुजराती अपना खाना पीना और अपनी संस्कृति को साथ लेकर चलते हैं। अफ्रीका में हर चीज का अलग-अलग बाजार लगता है। चूड़ी बाजार, मछली बाजार, सब्जी बाजार आदि...। इन सब बाजारों में एशियंस की दुकानें थीं। गरीबी के कारण थोड़े से पैसों में घरों और दुकानों पर काम करने के लिए वहीं के निवासी अफ्रीकन मिल जाते थे।
युगांडा में बहुत गरीबी थी जिसका फायदा एशियंस ने उठाया। वहाँ के रहने वालों के मुकाबले में एसियंस थोड़े पढ़े-लिखे थे। वह पैसा कमाना जानते थे।
वैसे तो अफ्रीका में खुले मैदान व बहुत जमीन है। परंतु जमीनों पर खेती बाड़ी करने के लिए भी तो धन की आवश्यकता होती है जो वहाँ के गरीब निवासियों के पास नहीं था। एशियंस के घरों व दुकानों पर वह दिन रात काम करते थे। जब पेट में दाना न हो और बच्चों की लाइन लगी हो तो इनसान क्या करे। वह स्वयं तो भूखा रह लेगा किंतु बच्चों को भूख से बिलखता कोई नहीं देख सकता। इस लिए चोरी-चकारी का भी काफी डर रहता था। उन के रंग व गरीबी के कारण वह लोगों की मनमानी और हर प्रकार के जुल्म भी सहते थे। अपने बच्चों का पेट भरने की खातिर हर अपमान सहना उनकी मजबूरी थी।
मजबूरी इनसान से क्या नहीं करवाती। इस पापी पेट को काट कर फेंका भी तो नहीं जा सकता। कोई किसी भी रंग का क्यों ना हो भूख सब को लगती है। पेट ना होता तो कौन काम करता। अफ्रीका से देश निकाला मिलने के पश्चात जब ब्रिटेन में आकर पुरुषों को ही नहीं महिलाओं को भी कारखानों में मेहनत मजदूरी करनी पड़ी तब आटे दाल की कीमत समझ में आई। ब्रिटेन जैसे महँगे देश में घर गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए जब तक मियाँ बीवी दोनों काम ना करें निर्वाह होना बड़ा कठिन है। जुबान से तो कोई भी नहीं बोल सकता था लेकिन जिस युगांडा देश ने उन्हें पनाह दी थी उसी देश के वासियों पर अत्याचार करने का परिणाम सामने आ गया कि सब को देश निकाला मिल गया।
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साथ वाले घर में इतनी हलचल देख कर जूलियन ने अपने पति को आवाज दी...
"डेव जल्दी आओ देखो पड़ोसी क्या करने वाले हैं।" पड़ोसी यदि एशियन हों तो अंग्रेजों की उत्सुकता और भी बढ़ जाती है।
इस घर में गुरमेल सिंह अपने परिवार सहित रहते हैं। इनके पास डबल गैरेज है। दो महीने में इनके बेटे रजिंदर सिंह की शादी होने वाली है। शादी के लिए तो गुरुद्वारे का हॉल बुक है परंतु कुछ खास रिश्तेदार जो भारत से आने वाले हैं उनको तो घर पर ही ठहराना होगा। ब्रिटेन में वैसे भी घर इतने बड़े नहीं होते जो मेहमानों को ठहराया जा सके। गुरमेल सिंह ने अपने डबल गैरेज की सफाई करवा कर ठीक-ठाक कर दिया। अब इसमें मेहमान रात को आराम से सो सकते थे। वहीं गैरेज के कोने में सबकी सुविधा को ध्यान में रख कर रात को प्रयोग में लाने के लिए एक छोटी सी टॉयलेट भी बनवा दी गई।
उत्सुकता वश अंग्रेज पड़ोसी बार-बार अपने बेडरूम की खिड़की से झाँक कर देखते कि आखिर गैरेज के एक कोने में ये छोटा सा कमरा कैसे बन रहा है। दूसरों के कार्यों में टाँग अड़ाना तो अंग्रेजों का काम है ही।
आखिर डेव से पूछे बिना नहीं रहा गया... "मिस्टर सिंह... यह गैरेज में क्या बन रहा है...।"
"आपको मैंने बताया था डेव कि मेरे बड़े बेटे रजिंदर सिंह की शादी है। शादी में कुछ बाहर से मेहमान आ रहे हैं। आप तो जानते ही हैं हमारे घर इतने बड़े नहीं हैं जो महमानों को ठहराया जा सके। सोचा गैरेज काफी बड़ा है। क्यों ना उनके सोने का इंतजाम यहीं कर दिया जाए। जुलाई का महीना होगा तो हीटिंग की भी आवश्कता नहीं पड़ेगी। रात को एक बिजली के हीटर से काम चल जाएगा। बस उसी के लिए कुछ काम हो रहा है...।"
डेव का माथा ठनक गया। गोरों के पास न तो भारतीयों जैसा दिमाग है और न ही आवभगत की भावना। इनकी शादियों में भी यदि रात को किसी को ठहरना हो तो वह अपना इंतजाम स्वयं किसी होटल में कर के आएगा।
वह समय ही ऐसा था कि एशियंस की शिकायत लगाने के गोरे हमेशा बहाने ढूँढ़ते रहते थे। फिर क्या था कि अचानक पुलिस की दो गाड़ियाँ आ धमकीं। पुलिस ने जब आकर देखा कि वहाँ आराम की हर वस्तु मौजूद है। किसी प्रकार का कानून भंग नहीं हुआ तो वह कुछ न कर सके। बस ये कह कर चले गए कि ख्याल रहे दस बजे के बाद कोई शोर न हो...।
ब्रिटेन में एक यह भी कानून है कि रात के दस बजे के पश्चात कोई शोर नहीं कर सकता। यहाँ तक कि कोई अपनी कार का हार्न भी नहीं बजा सकता जो किसी की नींद खराब ना हो। आप तो अपने घर में जश्न मना रहे हैं किंतु और लोगों ने काम पर जाना होता है। इस लिए रात देर तक शोर करने की मनाही है।
हाँ, तब एशियंस नहीं गोरे शोर मचाते हैं जब पूरा सप्ताह काम करने के पश्चात शुक्रवार को एशियंस का पे-पैकेट अंग्रेजों के मुकाबले में भारी होता है। किंतु उस समय वह शोर नहीं मचाते जब पब में उनके शराब के दौर पे दौर चल रहे होते हैं और एशियंस ओवरटाइम करके पसीना बहा रहे होते हैं। उस वक्त उनको लालची और न जाने क्या-क्या कह कर गालियाँ दी जातीं हैं। अंग्रेज लड़कों के लिए हफ्ते में चालीस घंटे काम करना भी मुसीबत से कम नहीं होता। उन्हें जल्दी से जल्दी घर भागने की पड़ी रहती है। भई क्यों न भागें... शाम होते ही यदि पब नहीं पहुँचेंगे तो उन की गर्लफ्रेंड्स उन्हें छोड़ कर नहीं भाग जाएँगी...।
और चीजों के साथ-साथ लेस्टर अपने पबस के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है। यहाँ पब में लोग केवल शराब पीने ही नहीं आते बल्कि यह उनका सोशल क्लब भी होता है। यहाँ लोग शराब के साथ पब के गर्मा-गर्म खाने का भी मजा लेते हैं। शाम को सब दोस्त यहाँ इकट्ठे होते हैं। बारी-बारी से ड्रिंक्स के दौर चलते हैं। जब एक हाथ में सिगरेट दूसरे में बियर का गिलास और बगल में गर्लफ्रेंड हो तो शाम भी झूमती हुई गुजरती है। पैसों की भी कोई परवाह नहीं करता चाहे सोमवार से ही उनके पास डबलरोटी के लिए भी कुछ नहीं बचता। वह एक दूसरे से उधार माँगते फिरते हैं।
पब का माहौल कुछ अपनी ही रंगीनियाँ लिए होता है। शुक्रवार और शनिवार की शाम को सड़कों पर विशेषकर पब के अंदर और आस-पास बहुत ही चहल पहल और शोर-शराबा सुनने को मिलता है। लोग अपनी गर्लफ्रेंड्स व पत्नियों की बाहों में बाँहें डाले घूम रहे होते हैं। उस दिन सबकी जेब जो गर्म होती है। लोग पब में तरह-तरह के खेल जैसे क्विज, डार्टस आदि, खेलते मिलते हैं। पब चलाने वाले भी कम दाम पर शराब और बड़ी टी.वी. स्क्रीन पर फुटबाल मैच दिखा कर लोगों के मनोरंजन का पूरा खयाल रखते हैं।
शुक्रवार और शनिवार की रात को पब के आस पास पुलिस भी काफी सतर्क दिखाई देती है। पीने वालों का कोई भरोसा नहीं कि कब पीकर इनका दिमाग फिर जाए और आपस में हाथापाई पर उतर आएँ जो अक्सर शुक्रवार और शनिवार की रातों को देखने को मिलता है। इन दो रातों को पुलिस का काम भी बढ़ जाता है।
यह नहीं कि शराब पीकर पुरुष ही हाथापाई करते हों। कई बार तो महिलाएँ भी नशे में धुत आपस में गुत्थमगुत्था हुई सड़क पर लड़ती हुई मिलती हैं।
लेस्टर की हर बड़ी सड़क पर दो तीन पब होने मामूली बात है। जब हर कोने पर पब हों तो एशियंस भी कैसे उनसे अछूते रह सकते हैं। जैसे-जैसे लेस्टर की जनसंख्या बढ़ने लगी पब वालों की बिक्री में भी बढ़ोती होने लगी। इस बात के लिए वह एशियंस का धन्यवाद करते न शरमाते।
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यह नहीं कि भारतीय केवल कारखानों में ही काम कर रहे थे। अफ्रीका से आने वाले भारतीय अपने साथ पैसा लेकर आए थे। वहाँ करीब सभी का अपना कारोबार था। यह अफ्रीका में बड़ा बिजनस चलाने वाले एशियंस पहले से ही अपने काम के सिलसिले में ब्रिटेन के लोगों से जुड़े हुए थे जिनमें एशियंस ही नहीं गोरे भी थे। यह लोग पढ़े-लिखे भी थे। वहाँ बड़ा अच्छा समय व्यतीत कर के आ रहे थे।
ब्रिटेन उनके लिए नया नहीं था। उन्हें जैसे ही यह आभास हुआ कि युगांडा के राष्ट्रपति इदी अमीन एशियंस को देश से निकलने का आदेश देने वाले हैं तो वह चुपचाप अपनी दुकानें व मकान बेच कर ब्रिटेन आ गए। अपने कारोबार को लेकर पहले से ही ब्रिटेन से जुड़े होने के कारण उन्हें किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। इनके पास पैसा था। ब्रिटिश पासपोर्ट था। यह अपना हक जान कर ब्रिटेन में आए और आते ही सैटल भी हो गए।
पहले भारत फिर अफ्रीका से भारतवंशियों के आने से ब्रिटेन की इकोनोमी को भी बहुत लाभ हुआ। कारखानों में काम तेजी से चलने लगा। लोगों के पास भरपूर काम था। जिनके पास पैसा था उन्हों ने रहने के लिए मकान व कारोबार के लिए दुकाने लेकर काम करना आरंभ कर दिया। लेस्टर की बेलग्रेव रोड पर धीरे-धीरे साड़ियाँ, सोने चाँदी, हीरे के आभूषण और खाने-पीने की दुकाने दिखाई देने लगीं। जगह जगह गुजराती मिठाई की दुकानें व पंजाबी ढाबे व रेस्तराँ खुल गए।
भारत और अफ्रीका से आए लोगों में अंतर यह है कि भारत से आए लोग स्वयं को प्रवासी कहते हैं। उन्हें ब्रिटेन में वर्किंग वीजे के साथ, जेब में केवल तीन या पाँच पाउंड लेकर ही आने की अनुमति मिली। अफ्रीका से आने वाले लोगों के पास पहले से ही ब्रिटिश पासपोर्ट होने के कारण वह स्वयं को प्रवासी नहीं इस देश का निवासी समझते हैं। उनके पास पैसा भी है और इस देश में रहने के पूरे अधिकार भी।
अधिकार समझ कर ही तो लोग एक दूसरे से पैसा लेकर अपने घर खरीदने लगे...
"मनोज भाई आप घर देख रहे थे कैसा लगा?"
"घर तो अच्छा है लेकिन थोड़ा छोटा है..."
"अरे भाई छोटा है तो क्या हुआ, है तो अपना ही ना। थोड़े समय के पश्चात जब काम अच्छा चल पड़े तो बड़ा भी ले लेना। किराये के मकान में तो डर ही लगा रहता है कि कब मकान मालिक खाली करने को बोल दे।"
"ठीक कहा यार... अकेली जान तो कैसे भी रह ले किंतु बाल बच्चों के साथ दर-दर भटकना भी तो आसान बात नहीं।"
"ठीक कहा मनोज भाई। गोरे तो वैसे ही हम से उखड़े रहते हैं..."
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भारत से केवल देहातों से अनपढ़ लोग ही ब्रिटेन में नहीं आए थे बल्कि कुछ डिग्रियाँ लिए लोग भी थे। जो ठीक प्रकार से अंग्रेजी लिख बोल लेते थे उनके पास अच्छी नौकरियाँ भी थीं। अधिकतर लोगों को अपने रंग-रूप व ठीक से अंग्रेजी न बोल सकने के कारण मजबूर हो कर कारखानों में मजदूरी करनी पड़ी। घर वालों ने उन्हें बड़ी आशाओं के साथ यहाँ भेजा था इस लिए वह वापिस भी किस मुँह से जाते। कुछ ने कारखानों का रुख किया, कुछ टैक्सी ड्राइवर बने और कुछ तकदीर के मारे ऐसे भी थे जिन्हें होटलों में बर्तन धोने तक का काम करना पड़ा।
व्यापार और कारखाने बेलग्रेव रोड के आस पास होने के कारण लोगों ने मकान भी यहीं ढूँढ़ने आरंभ कर दिए। भारतीयों की एक विशेषता है कि घर चाहे छो़टा हो परंतु अपना होना चाहिए किराए का नहीं।
बेलग्रेव रोड के आस-पास जितनी भी स्ट्रीटस हैं उनमें अधिकतर टैरेस्ड घर हैं। टैरेस्ड यानी 10-12 या कभी उस से भी अधिक एक जैसे घर सीधे एक ही कतार में जुड़े हुए होते हैं। हर दो घरों के बीच में घर के पिछवाड़े तक ले जाने के लिए एक छोटी सी गली होती है। ब्रिटेन के कानून के अनुसार घरों से बाहर निकलने के लिए दो रास्ते होना आवश्यक है। यदि कोई दुर्घटना हो जाए, घर में आग लगने से एक रास्ता बंद हो जाए तो दूसरे दरवाजे से निकल कर कम से कम अपनी जान तो बचाई जा सकती है।
सन् 1970 तक यहाँ के आम घरों में सर्दियों में घरों को गर्म करने के लिए गैस या बिजली की सैंट्रल हीटिंग नहीं थी। बड़े मनोरंजक तरीके से घरों को गर्म किया जाता था। नीचे वाले कमरों में दीवार के बीचोबीच एक अँगीठी बनी होती थी जिसमें कोयला जलाया जाता था। यह अँगीठी दो काम करती थी। एक तो कोयले की गर्मी से घर गर्म रहते थे दूसरा इस अँगीठी के ऊपर ही बड़ी सी चिमनी बनी होती थी जो ऊपर बाथरूम से होकर छत पर खुलती थी। (आज कल भी जिन घरों में बिजली या गैस के हीटर हैं उन घरों में यह चिमनियाँ दिखाई देती हैं जिनका काम है हीटर से निकलती जहरीली गैस को सीधे चिमनी के द्वारा बाहर निकाल देना।) कमरे में अँगीठी से थोड़ी दूर दीवार पर एक लोहे की छड़ लटक रही होती थी। उस छड़ को खींचते ही बाथरूम में ठीक चिमनी के ऊपर रखे हुए पानी के टैंक में पानी गर्म होने लगता था। ठीक अँगीठी के ऊपर पानी का टैंक लगाने का भी एक कारण था। क्यों कि हीट हमेशा ऊपर को उठती है। यही हीट ऊपर रखे पानी के टैंक को गर्म करने का काम करती थी। यह गर्म पानी नहाने और सारा दिन घर के काम करने के लिए प्रयोग किया जाता था।
पानी के टैंक इतने बड़े नहीं होते थे जो कि परिवार के सदस्य प्रतिदिन नहा सकें। गोरे तो वैसे भी नहाने के चोर होते हैं। सुबह उठ कर गीले कपड़े से शरीर को पोंछ कर अच्छी तरह से परफ्यूम छिड़क कर काम पर चल देते हैं।
यह वो समय था जब अधिकतर लोग टैरेस्ड घरों में रहते थे। इन घरों में लोगों के नहाने के लिए टब या शावर तक की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। नहाने के लिए पब्लिक बाथ बने होते थे जहाँ पैसे डाल कर गर्म पानी उपलब्ध होता था। लोग सप्ताह में एक बार वहाँ जाते थे नहाने के वास्ते।
जिन घरों में टब थे भी वहाँ सप्ताह में एक बार आधा टब भर कर घर के सारे बच्चों को एक साथ एक ही पानी में नहलाया जाता था।
यह टैरेस्ड घर अधिक बड़े नहीं होते बस दो या तीन बेडरूम के ही होते हैं। घरों में जलाने वाला कोयला या बाकी का फालतू सामान रखने के लिए घरों के नीचे सैलर यानी तहखाने होते हैं। उन दिनों कोयले की खपत बहुत अधिक थी। कारखानों से लेकर घर के हर काम के लिए कोयले की आवश्यकता पड़ती थी।
घर के बाहर सैलर के ठीक ऊपर एक छोटी सी खिड़की बनी होती थी जिसके द्वारा बाहर से ही अँगीठी में जलाने वाला कोयला सैलर में भरा जा सकता था। बहुत से लोग इन कोयले की खदानों में काम करते थे। इन कोयले की खदानों में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए घरों में प्रयोग करने का कोयला मुफ्त में मिलता था।
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लेस्टर अपनी एक और चीज के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है और वह है उसके चारों और बनी हुई केनाल्स। केनाल प्रकृति की नहीं मनुष्य द्वारा बनाई हुई छोटी नहरें हैं जो बारिश का पानी इकट्ठा करने का काम भी करती हैं। उन दिनों इन्हीं केनाल्स के द्वारा ब्रिटेन का सारा व्यापार होता था। इन केनाल का सबसे बड़ा आकर्षण है इनका लॉक सिस्टम। क्यों कि इन में ज्यादा पानी नहीं होता इस लिए थोड़ी थोड़ी दूर पर पानी को रोकने के लिए लंबे दरवाजेनुमा पुल और उनमें लगे ताले हैं। इन्हीं तालों द्वारा केनाल के पानी पर रोक लगाई जाती है। जब कश्ती एक केनाल से दूसरी में जाने लगती है तो ताला और दरवाजा खोल कर पिछली केनाल से थोड़ा पानी आगे आने वाली केनाल में भरा जाता है जो पानी की सतह एक सी रहे और कश्ती आराम से चल सके।
आज भी पानी के इस मनोरंजक तरीके से ऊपर नीचे जाने के दृश्य का अनुभव करने के लिए ही कुछ लोग किराए पर कश्तियाँ लेकर केनाल में उतरते हैं। कई बार तो स्कूल के बच्चों को भी यह सब दिखाने के लिए केनाल बोट ट्रिप पर ले जाया जाता है।
सन् 1960 से पहले इन्हीं केनाल के द्वारा कारखानों का कच्चा माल व घरों के लिए कोयला आदि कश्तियों के द्वारा पहुँचाया जाता था। पहले दूर से कश्तियों में सामान आता था। फिर बाहर तैयार खड़ी घोड़ागाड़ी में सामान लाद कर घरों में ले जाने का काम होता। कश्तियों और घोड़ागाड़ी के द्वारा सामान इधर से उधर पहुँचाना काफी महँगा भी पड़ता था और समय भी अधिक लगता था। इसका स्थान बाद में स्टीम से चलने वाली मालगाड़ियों और सड़क द्वारा सामान पहुँचाने का काम ट्रकों ने ले लिया। धीरे धीरे केनाल्स का प्रयोग कम होते हुए बिल्कुल ही समाप्त सा होने लगा। आज कल लोग इन केनाल्स में घूमने व पिकनिक करने जाते हैं।
केनाल के साथ साथ किनारे से थोड़ी ही दूरी पर मकान बने हुए हैं। पब हैं जहाँ कश्ती को रोक कर वहीं पर तैयार हुए गर्मागरम खाने के साथ ड्रिंक्स का भी मजा लिया जा सकता है। कुछ फिशिंग के शौकीन लोग केनाल के किनारे बैठे सारा दिन मछलियाँ पकड़ते दिखाई देते हैं। केनाल का पानी साफ न होने के कारण पकड़ी हुई मछली खाई नहीं जाती। बस यह तो एक शौक और समय बिताने का एक साधन है। इसी बहाने लोग थोड़ी धूप भी सेंक लेते हैं।
पहले काँटा डाल कर मछली को पकड़ा जाता है फिर उसे तोल कर और उसकी लंबाई नाप कर उसे फिर से पानी में छोड़ देते हैं...। घर जाने से पहले देखा जाता है कि किसने सबसे अधिक व सबसे बड़ी मछली पकड़ी है। यह उनके लिए एक प्रकार का खेल और मन बहलाने का एक जरिया है। सैंकड़ों बतखें वहाँ तैरती व मछलियों का शिकार करती मिलती हैं। जहाँ इनसान होंगे वहाँ खाने के लालच में पक्षी भी दिखाई देंगे...। यह केनाल बारिश का पानी इकट्ठा करने में सहायक सिद्ध होती हैं जो बारिश अधिक होने से पानी सड़कों पर न आ जाए।
यहाँ की बारिश भी एक विशेष चीज है। हर समय अपने साथ छाता रखना पड़ता है कि न जाने कब सूर्य देवता थक कर बादलों की शैया पर विश्राम करने चले जाएँ और हवाओं के हिंडोलों के साथ बरखा रानी अपनी तान छेड़ कर उन्हें लोरी सुनाने आ धमकें।
वैसे गर्मी की बारिश में भीगने का तुत्फ कुछ अपना ही होता है। ब्रिटेन की गर्मी की बारिश का हाल कोई निशा और उसकी सहेलियों से पूछे...
निशा सहेलियों के साथ स्कूल से आ रही थी। आसमान बादलों से भरा हुआ था। फिर भी काफी गर्मी थी। हवा भी उमस भरी थी। देखते ही देखते हवा की गति तेज हो गई... हवा का साथ देने के लिए उतरी दिशा से घुमड़ कर बादल भी आ गए। लोगों का कहना है कि जब उत्तरी दिशा से बादल आएँ तो बरस कर ही जाएँगे। काले घने बादलों में गड़गड़ाहट होते ही जोर से बारिश आरंभ हो गई। कुछ लड़कियाँ बारिश से बचने के लिए पेड़ों का सहारा लेने लगीं तो दूसरी उन्हें खींच कर फिर बारिश में ले आतीं। सब सहेलियाँ एक दूसरे के पीछे भागती हुई मस्ती से शोर मचाते हुए बारिश में भीगने लगीं।
सामने ही निशा का घर दिखाई दे रहा था। एक सर्द हवा के झोंके के साथ जब बादलों ने गरज कर जोर से ओले बरसाने शुरू किए तो सब पेड़ों के नीचे पनाह लेने के लिए भागीं। ओले छोटे हों या बड़े जब किसी गंजे से के सिर पर बरसते हैं तो इसका मजा वही जानता है। जब लड़कियाँ पेड़ों के नीचे भी ना बच पाईं तो निशा के साथ उसके घर की ओर भागीं।
सब बुरी तरह से ओलों की मार खा चुकीं थी। अभी थोड़ी देर पहले जो गर्मी की शिकायत कर रही थीं वही ठंड से बुरी तरह काँपने लगी।
"उफ यह बरसात है कि बर्फ के गोले, इतनी ठंडी बारिश और वह भी गर्मी के मौसम में..." निशा टपकते बालों को निचोड़ते हुए बोली।
"यही तो है ब्रिटेन का मौसम जो यहाँ की महिलाओं के मूड के समान बदलता है..."
थोड़ी देर में आसमान साफ हो गया। जितनी तेजी से बादल आए उतनी ही तेजी से बरस कर चले गए। बादलों के छटते ही सब जा कर बाहर धूप में अपने कपड़े सुखाने के लिए खड़ी हो गईं और फिर धीरे-धीरे अपने घरों की ओर चल पड़ीं...।
"निशा आज मेरे घर चलो इकट्ठे मिल कर होमवर्क करेंगे एंजलीना जाते-जाते रुक कर बोली...।"
"हूँ... तुम चलो एंजलीना मैं मम्मा से पूछ कर और कपड़े बदल कर आती हूँ।"
एंजलीना... जिसे सब लोग एंजी कह कर बुलाते हैं निशा की अच्छी दोस्त है। वह निशा की ही स्ट्रीट में तीन-चार मकान छोड़ कर रहती है। दोनों स्कूल भी एक साथ जाती हैं। एंजी जब भी निशा के घर आती है तो खाना खाकर ही जाती है। उसे एशियन खाना बहुत पसंद है। एंजी की माँ को भी उसके निशा के घर में आने जाने से कोई आपत्ति नहीं है। वह जानती हैं कि निशा पढ़ाई में बहुत तेज है और उसके साथ रह कर एंजी की भी पढ़ाई के प्रति रुचि बढ़ने लगी है। दोनों लड़कियाँ बड़े मन से पढ़ाई कर रही थीं कि घड़ी पर नजर डालते हुए एंजी ने कहा...
"निशा अभी हमारा होमवर्क पूरा नहीं हुआ और शाम के खाने का भी समय हो रहा है... क्यों ना तुम आज खाना हमारे साथ खा लो।"
"लेकिन एंजी तुम्हारी मॉम... "
"मैं अभी मॉम से पूछ कर आती हूँ..." उसकी बात बीच में ही छोड़ कर एंजी भाग खड़ी हुई।
"निशा... एंजी की मम्मी की किचन से आवाज आई... मैं रोस्ट चिकन बना रही हूँ। तुम्हें पसंद है ना। तुम उसके साथ कितने आलू लोगी..."
"जी..."
"हाँ निशा हमारा खाना तुम्हारी तरह नहीं होता। हम गिन कर पूरा हिसाब से बनाते हैं जो खाना दूसरे दिन के लिए बचे नहीं।"
निशा को यह बातें बड़ी अजीब सी लगीं। उसके घर में तो आवश्यकता से अधिक खाना बनता है कि यदि कोई खाने के समय घर पर आ जाए तो शर्मिंदगी का सामना ना करना पड़े। निशा ने झिझकते हुए कहा... जी दो आलू।
भारतीय और अंग्रेजों की संस्कृति में धरती आकाश का अंतर है। भारतीयों के लिए अतिथि भगवान का रूप माना जाता है जबकि अंग्रेजों के घर में कोई बिन बुलाए आ जाए तो कई बार तो वह उसे घर के अंदर आमंत्रित भी नहीं करते बस दरवाजे से ही बात कर के टरका दिया जाता है। अंदर बुला भी लें तो चाय तक नहीं पूछते।
समय पर खाना खाने के लिए आवाज आ गई। आज खाने की मेज पर केवल एंजी और उसकी मॉम ही हैं। एंजी के डैड काम के सिलसिले में कहीं बाहर गए हुए हैं। एक बड़ा भाई है जो युनिवर्सिटी में पढ़ रहा है।
किचन से ही खाने की प्लेटें परोस कर लाई गईं। निशा की प्लेट में एक पीस चिकन का, दो आलू और साथ में उबले हुए गाजर और मटर थे। सबने ऊपर ग्रेवी डाल कर खाना शुरू कर दिया। निशा खाते हुए सोच रही थी... इतने से मेरा क्या बनेगा... घर जाते ही माँ के हाथ के बने हुए थेपले खाऊँगी।
खाने में जो सब से अच्छी चीज निशा को लगी वो थी पुडिंग। घर की बनाई हुई ताजी एपल पाई और उसके ऊपर गर्मागर्म कस्टर्ड बिल्कुल वैसा ही जैसा स्कूल डिनर्स में मिलता है...।
***
लेस्टर के चारों ओर हर आठ-दस मील की दूरी पर छोटे-छोटे गाँव बसे हुए हैं। जैसे लाफ़्बरो, सालबी, कोलविल, ऐशबी, थर्मस्टन, सायस्टन, मेलटन मोबरी आदि। प्रत्येक गाँव की अपनी एक विशेषता है। कोई अपनी यूनिवर्सिटी के लिए, कोई पब और रेस्तराँ के लिए तो कोई लैंडस्केप के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के मेल्टन मोबरी गाँव के कारखाने में बनी हुई पोर्क पाईस तो देश में ही नहीं पूरे योरोप में मशहूर हैं। पाई की पेस्ट्री ऐसी कि अपना स्वाद छोड़ते हुए मुँह में ही घुल जाए। यह सब गाँव लेस्टर का ही एक हिस्सा हैं जिन्हें मिला कर ही यह "लेस्टरशयर" कहलाता है।
लेस्टर को गाँवों का देश भी कहा जाता है क्यों कि यह चारों ओर से गाँवों से घिरा हुआ है। इसी से इसकी गिनती ब्रिटेन के बड़े शहरों में होती है। कुछ लोग रिटायर होने के पश्चात छोटी जगह पर रहना अधिक पसंद करते हैं जहाँ वह शहरों की भीड़-भाड़ से दूर रह कर प्रकृति का मजा लेते हुए टहल सकें। गर्मी के दिनों में यहाँ रंग-बिरंगे बाग व घरों के बाहर टँगी हुई फूलों से भरी टोकरियों से सारा वातावरण महकता है।
निशा जिस घर में अपने परिवार के साथ रहती है वह एक कोने का मकान है। लेस्टर के लोगों का कहना है कि यदि किसी एशियन के पास कोने का घर है तो समझ लो कि वहाँ एक दुकान खुल जाएगी।
निशा के पापा ने भी नीचे के कमरे को और बड़ा करवा कर उसमें शैल्फ वगैरह लगवा एक अच्छी सी दुकान में परिवर्तित कर दिया। घर के पास कोई और दुकान भी नहीं थी जो रात देर तक खुली मिले। वैसे इन दुकानों की बिक्री शाम 6 बजे के बाद बाकी सारी दुकानें और सुपरमार्किट बंद हो जाने के पश्चात अच्छी खासी हो जाती है। इन कोने की दुकानों में घर में प्रयोग होने वाला हर छोटा बड़ा सामान, समाचार पत्र से लेकर शराब तक मिलते हैं।
एशियंस का सोचना है कि शराब बेचना महिलाओं का काम नहीं है इसलिए दिन में नानी सरला बेन इस दुकान को चलातीं हैं और शाम को निशा के पापा सुरेश भाई। उस समय ग्राहक अधिकतर बियर, सिगरेट वगैरह लेने आते हैं। आस-पास सब गोरों के मकान होने के कारण शुरू में दुकान चलाने के लिए काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पास में और कोई ऐसी दुकान थी नहीं जो रात देर तक खुलती हो। पब भी थोड़ी दूरी पर थे। धीरे-धीरे ग्राहक आने आरंभ हो गए। सुरेश भाई के हँसमुख स्वभाव और मीठी जुबान ने जल्दी ही ग्राहक खींचना शुरू कर दिया।
सामने से सरोज को आता देख कर सुरेश भाई बोले...
"सरोज दुकान ने ग्राहक खींचने आरंभ कर दिए हैं। ऊपर वाले की मर्जी हुई तो और अच्छी चल पड़ेगी। मैं चाहता हूँ कि आप कारखाने की नौकरी छोड़ कर दिन में बा के साथ दुकान का काम सँभाला करो।"
" नहीं जी... दुकान से अभी इतना खर्चा नहीं निकलता कि मैं अपनी कारखाने की नौकरी छोड़ दूँ। बच्चों की स्कूल की पढ़ाई चाहे मुफ्त होती है परंतु बाकी के खर्चे तो स्वयं ही करने पड़ते हैं। निशा और जितेन जैसे-जैसे बड़े हो रहे हैं उनके खर्चे भी बढ़ रहे हैं। मैं चाह कर भी कारखाने की नौकरी अभी नहीं छोड़ सकती।"
सरोज जैसी और भी बहुत सी महिलाएँ हैं जिन्होंने अफ्रीका में कभी नौकरी नहीं की थी। यहाँ आने पर घर चलाने के लिए सब को कड़ी मेहनत का सामना करना पड़ा। कारखानों में पीस-वर्क के हिसाब से वेतन मिलता है यानी जितना काम उतने पैसे। हर काम गिनती के साथ होता है इस लिए सबकी यही कोशिश रहती है कि बिना किसी से बात किए बस अधिक से अधिक काम किया जाए। उस समय यह तेज हाथ चलाती हुई महिलाएँ किसी मशीन से कम दिखाई नहीं देतीं।
सरोज जिस होजरी में काम करती है वह यहाँ के बहुत ही प्रसिद्ध सर रिचर्ड टाउल्स का कारखाना है। सर रिचर्ड टाउल्स ने अपने कठिन परिश्रम द्वारा देखते ही देखते एक छोटे से कारखाने से तीन बड़े कारखाने खड़े कर लिए। इनके पिता कोयला खदान में काम करने वाले एक मामूली मजदूर थे।
रिचर्ड अपने माता पिता की एकलौती संतान हैं। यह वो समय था जब पीढ़ी दर पीढ़ी लोग कोयला खदानों में काम करते चले आ रहे थे। पढ़ाई केवल अमीर लोगों के बच्चों का काम था। रिचर्ड की माँ एलिजबेथ का यह सपना था कि वह अपने एकलौते बेटे को पढ़ा लिखा कर एक बड़ा आदमी बनाए जिसके लिए पति और बेटे दोनों ने उसका साथ दिया। यह जानते हुए भी कि यह रास्ता बहुत कठिन है। दोनों मियाँ-बीवी ने अपना पेट काट कर आखिर बेटे को युनिवर्सिटी तक पहुँचा ही दिया। रिचर्ड के लिए भी यह सब आसान नहीं था। अमीर बच्चों के साथ वह कहाँ मेल रख सकता था। बहुत कुछ ताड़ना, अवहेलना सहते हुए आखिर वह दिन भी आ गया जब रिचर्ड डिग्री ले कर बाहर आया।
"डिग्री तो मिल गई अब आगे क्या करने का इरादा है बेटे?" माँ ने पूछ ही लिया।
"मैंने अपना ही कुछ काम करने का सोचा है मॉम।"
"अपना काम... क्या करने की सोची है...?"
"मॉम यहाँ अमीर गरीब के बीच बहुत बड़ा अंतर है। अब जब डिग्री ले ही ली है तो मैं किसी के लिए काम नहीं करूँगा। मैं अपना ही कोई काम करना चाहता हूँ।"
"बेटे इस मामले में तुम हमसे अधिक जानते हो जैसा उचित समझो..."
रिचर्ड का काम शुरू करवाने के लिए उसके माता पिता ने अपना बड़ा मकान बेच दिया। वह एक दो बेडरूम के फ्लैट में चले गए। बचे हुए पैसों से रिचर्ड ने एक छोटा सा कारखाना खोल कर उसमें तीन चार ओवरलॉकिंग की मशीनें लगा दीं। जिसके लिए उसे बैंक से भी सहायता लेनी पड़ी। वह दूसरे बड़े कारखानों से ओवरलॉकिंग का काम लाकर अपने कारखाने में तैयार करता। रिचर्ड की हिम्मत, मेहनत व लगन ने रंग दिखाया और काम बढ़ने लगा।
कॉलेज के समय से ही रिचर्ड और जेनी एक दूसरे से प्यार करते हैं। जेनी एक उद्योगपति की बेटी है। उसे मालूम है कि मॉम डैड रिचर्ड से शादी की मंजूरी कभी नहीं देंगे। एक तो अमीर माता पिता की बेटी ऊपर से एकलौती संतान। उसने जब जो माँगा फौरन मिल गया। जेनी जानती थी कि इस बार डैड उसकी बात आसानी से नहीं मानेंगे। अपनी बात मनवाने का उसने दूसरा तरीका निकाला...
"रिचर्ड अब समय आ गया है कि हम दोनो शादी कर लें..." जेनी ने रिचर्ड की बाँहों में मचलते हुए कहा...
"किंतु जेनी तुम्हारे मॉम और डैड... वो तो कभी मंजूरी नहीं देंगे।"
उन्हें देनी ही पड़ेगी... मेरे मन में एक विचार आया है... बस तुम्हारा साथ चाहिए..." पहले तो रिचर्ड को जेनी की बात पसंद नहीं आई किंतु जेनी की जिद के आगे वह झुक गया।
बेटी जब शादी करके सामने खड़ी हो गई तो जेनी के मॉम डैड कुछ न कर सके। हाँ समाज में अपनी इज्जत कायम रखने के लिए उन्हें रिचर्ड को अपनाया ही नहीं बल्कि धूम-धाम से बेटी की शादी सारे समाज के सामने चर्च में कर दी। रिचर्ड की काम के प्रति लगन व मेहनत देख कर जेनी के डैडी ने अपने दामाद का काम बढ़ाने में उसका पूरा साथ दिया। उसकी सफलता को देख कर एक दिन जेनी के डैडी ने उन्हें सलाह दी...
"रिचर्ड अब समय आ गया है कि तुम अपना काम बढ़ाने के लिए एक और कारखाना खोल लो..."
"पर डैडी इसका काम ही कितना फैला हुआ है। जेनी काम में मेरा हाथ बँटाती है। हमारी बेटी रोजी भी अभी छोटी है। और काम बढ़ा लिया तो इसे कौन सँभालेगा।"
तुम इसकी चिंता मत करो। जेनी समझदार है वह सब सँभाल लेगी। तुम नया काम शुरू करो।"
"वो तो ठीक है डैडी लेकिन कारखाना चलाने के लिए वर्क फोर्स की भी तो आवश्यकता होती है। हमारे पास इतने लोग नहीं हैं।"
"तुम यह सब मुझ पर छोड़ दो रिचर्ड। इसका भी उपाय है। मालूम है न कि हमारी सरकार पहले ही गरीब देशों से यहाँ काम करने के लिए मजदूरों को लेकर आई है। उन्हें काम करने के परमिट व बीजे दिए गए हैं। यह लोग एक दो नहीं सैंकड़ों की संख्या में ब्रिटेन में आए हैं। यह मौका अच्छा है। मजदूर स्वयं ही काम की तलाश में इधर आएँगे क्योंकि सारे कारखाने और होजरी तो मिडलैंड्स में ही हैं...। कोशिश करो कि यहीं लॉफ़्बरो में ही कहीं जगह मिल जाए एक और कारखाना खोलने के लिए तो अच्छा होगा।"
बस फिर क्या था देखते ही देखते रिचर्ड ने लॉफ़्बरो में ही एक के बाद एक तीन बड़े कारखाने खड़े कर दिए...। लॉफ़्बरो जैसे छोटे शहर में जिधर भी नजर घुमाओ टाउल्स टैकस्टाइल की इमारतें ही दिखाई देने लगीं। पूरे लेस्टरशयर में उनका दबदबा बढ़ने लगा। कोयला खदान में काम करने वाले एक मामूली से मजदूर का बेटा नाम और इज्जत कमा कर रिचर्ड से "सर रिचर्ड टाउल्स" बन गया।
टाउल्स कारखानों की इमारतें एक विशेष प्रकार के हल्के भूरे रंग की ईंटों से बनी हुई हैं। यह ईंटे भी लॉफ़्बरो के कारखाने में ही तैयार की गई हैं। इमारत के अंदर घुसते ही सामने एक बड़ा सा दरवाजा है लोगों के अंदर आने के लिए। दरवाजे के ऊपर सर उठाए एक बड़ा सा नीले रंग का बोर्ड लगा है जिस पर सफेद शब्दों में लिखा हुआ है "टाउल्स टैक्स्टाइल्स"। दरवाजे से अंदर बाएँ हाथ पर एक बड़ी सी क्लॉक मशीन लगी हुई है। वहाँ काम करने वाले कारखाने में आते ही सबसे पहले अपने नाम और नंबर का कार्ड निकाल कर उस मशीन के अंदर डाल पंच करते हैं जिससे उस पर समय छप जाता है कि वह कितने बजे काम पर आए। ऐसे ही जाते समय सब लोग कार्ड को पंच करके जाते हैं।
दरवाजे में प्रवेश करते ही कहीं मशीनों की आवाजें तो कहीं ट्रॉली को इधर से उधर घसीटने के शोर से पता चल जाता है कि यह कोई बड़ा कारखाना है। यह 70 के दशक का समय था जब कि कारखानों की नहीं काम करने वालों की कमी थी।
सारी कमी पहले भारत और फिर अफ्रीका से आए लोगों ने पूरी कर दी।
सर रिचर्ड एक के बाद एक तीन बड़े कारखानों के मालिक बन गए। इनका सबसे पहला कारखाना... जिसमें रंगाई का काम होता है इसकी इमारत स्वयं अपना इतिहास बताती है। छत और दीवारों पर जमी हुई काई तो कहीं मौसम की मार खाती हुई भुरभुरी ईंटें। यह कारखाना छोटा होने के कारण यहाँ काम करने वाले कम दिखाई देते हैं। यह पुरुष प्रधान कारखाना है। एक बड़े से आँगन में बर्तनों में पानी में घुले हुए विभिन्न प्रकार के रंग पक रहे हैं। कुछ काम करने वाले मजदूर सूती धागों व ऊन के लच्छों को अलग-अलग रंगों में डुबो कर रंग रहे हैं। यह रंगे हुए लच्छे फिर बड़ी टोकरियों में भर कर दूसरे डिपार्टमेंट में भेज दिए जाते हैं।
यहाँ चारों ओर चर्खे लगे हुए हैं। चर्खों पर कुछ ओर आदमीं काम करते हुए मिले। इनका काम उन लच्छों को चर्खों पर चढ़ाना है। चर्खे के बीचो बीच गर्म हवा का पंखा लगा होता है। चर्खा चलते ही यह पंखा भी चल पड़ता है रंगे हुए धागों को सुखाने के लिए। सूखे लच्छों को चर्खे से उतार कर फिर उनके गोले बनते हैं। इन गोलों को बुनाई के लिए दूसरे कारखानों में भेज दिया जाता है।
यहाँ काम बड़े मनोरंजक तरीके से होता है।
दूसरे कारखाने में बुनाई और कटाई का काम है। बुनाई के लिए काफी भारी मशीने लगी होने के कारण केवल पुरुषों को ही इस काम के लिए रखा जाता है। यहाँ शिफ्ट वर्क में चौबिसों घंटे काम चलता रहता है। पहली शिफ्ट सुबह 6 बजे से 2 बजे तक, दूसरी शिफ्ट दोपहर 2 बजे से रात 10 बजे तक व तीसरी शिफ्ट रात के 10 बजे से सुबह के 6 बजे तक चलती है।
इन मशीनों पर काम करने वालों को निटर कहते हैं। एक निटर दस से अधिक मशीनों पर एक साथ काम कर सकता है...।
पहले मशीनों पर धागा चढ़ाते है। मशीनों को बुनाई के डिजाइन के हिसाब से एक बार सैट कर दिया जाए तो वो तब तक वही डिजाइन बनाती रहेंगी जब तक उन्हें बंद न किया जाए। निटर को यह देखना होता है कि धागा कहीं टूट या समाप्त तो नहीं हो गया। यहाँ बड़ी सावधानी व तेजी से काम हो रहा होता है। धागा समाप्त होने से पहले ही निटर को दूसरा गोला तैयार रखना होता है जोड़ने के लिए। जरा सी असावधानी से डिजाइन के आगे पीछे होने का डर होता है। यह बुना हुआ कपड़ा छोटे टुकड़ों में नहीं थान के रूप में बाहर निकलता है। इस काम के लिए निटर्स वेतन भी काफी अच्छा पाते है।
वेतन निटरस को ही नहीं और काम करने वालों को भी उनकी मेहनत के हिसाब से ही मिलता है। यह बुनाई किए हुए थान दूसरे बड़े से कमरे में भेज दिए जाते हैं जहाँ कटाई का काम होता है। इस काम में अधिकतर महिलाएँ दिखाई देती हैं जो नाप नाप के थान से कपड़ा काट कर उसे दूसरों के लिए आगे खिसका देती हैं।
यहाँ एक दीवार पर गत्ते के आकार टँगे हुए हैं। उन गत्ते के बने आकार के अनुसार कुछ महिलाएँ वस्त्रों का केवल आगे और पीछे का हिस्सा काट रही होती हैं और कुछ केवल बाजू। फिर यह सब कटे हुए टुकड़े दर्जन और नाप के हिसाब से बाँध कर ओवरलॉकिंग के लिए दूसरी मशीन पर बैठी महिलाओं के पास चले जाते हैं। वह इन टुकड़ों को जोड़ कर इनकी कच्ची सिलाई कर के अपनी टिकट काट के फिर से बंडल बाँध कर प्रेस के लिए भेज देती हैं।
सरोज सर रिचर्ड के कारखाने में प्रेस का काम करती है।
वह जब से ब्रिटेन आई है बड़ा कठिन परिश्रम कर रही है। चाहे कैसा भी मौसम हो सुबह पाँच बजे उठ कर काम पर जाने से पहले घर के कितने ही काम निपटाने होते हैं। बच्चों का, पति का व अपना दोपहर के खाने का डिब्बा तैयार करना। माँ दुकान सँभालती है इस लिए उनके लिए भोजन की व्यवस्था करना। बच्चों को स्कूल के लिए जगा कर 7.30 से पहले वह काम पर पहुँच जाती है।
ब्रिटेन में आ कर सब ने यही जाना है कि गृहस्थी की गाड़ी तभी पटरी पर सीधी चल सकती है जब पति पत्नी दोनों कमाएँ। नहीं तो घर की आवश्यकताएँ पूरी करना असंभव हो जाए।
आवश्यकताएँ पूरी करने हेतु ही तो महिलाएँ सुबह सबेरे झोला लेकर बच्चों को सोता हुआ छोड़ कर काम पर चल निकलती हैं। सरोज के साथ और भी बहुत सी महिलाएँ प्रेस का काम करती हैं।
ये महिलाएँ जहाँ काम करती है वह एक बहुत बड़ा सा कमरा है। बाएँ हाथ की दीवार के साथ ही 9-10 लंबी प्रेस लगी हुई हैं। यह बहुत बड़ी और भारी दो पलड़ों वाली इंडस्ट्रियल प्रेस होती हैं जिसे पहले कुछ सप्ताह सीखना पड़ता है। इस प्रेस की लंबाई लगभग पाँच फुट और चौड़ाइ तीन-साढ़े तीन फुट होती है। ऊपर और नीचे के दोनों पलड़े बराबर के होते हैं जिन पर गद्देदार कपड़ा कस के बिछा होता है। प्रेस के नीचे तीन पैडल लगे होते हैं। एक ऊपर के पलड़े को नीचे खीचने के लिए, दूसरे को दबाने से स्टीम निकलती है और तीसरा कपड़े को सुखाता और ठंडा करता है।
प्रत्येक प्रेस के सामने एक लंबी मेज काम करने के लिए बिछी हुई है। सामने ही बड़ी-बड़ी खुली अलमारियाँ हैं जो ओवरलॉकिंग किए हुए कपड़ों के बंडल से भरी हुई हैं। महिलाओं को काम देने के लिए दो पुरुष हैं। जिनमें से एक ओवरलॉकिंग के कमरे से ट्राली पर बंडल भर कर लाता है और दूसरा उन्हें प्रेसर की मेज पर रखने का काम करता है। यहाँ मनुष्य भी मशीनों के समान काम कर रहे होते हैं।
काम करने की खातिर ही तो सब अँधेरे मुँह घर से बाहर निकल पड़ते हैं। वरना इतनी सुबह सबेरे गर्म बिस्तर छोड़ कर सर्दी में घरों से बाहर निकलना किसे अच्छा लगता है। मजबूरी इनसान से क्या नहीं करवाती... जब कुछ महिलाओं को अपने बच्चों को सोता छोड़ कर काम पर आना पड़ता है। जब तक सरोज के बच्चे छोटे थे सुरेश भाई रात की शिफ्ट में काम करते थे जो दिन में जब सरोज काम पर जाए तो वह बच्चों का ध्यान रख सकें।
ध्यान तो सरोज का है इस समय अपने काम पर। ओवरलॉकिंग किया कपड़ों का एक बंडल खोल कर सरोज ने उसमें से कुछ कपड़े निकाल कर ठीक से प्रेस के नीचे के पलड़े पर बिछाए। प्रेस पर काम के लिए हाथ और पैर दोनों से काम लिया जाता हैं। बाईं ओर के लगे पहले पैडल को बाएँ पैर से दबाते ही ऊपर का पलड़ा थोड़ा ढीला पड़ गया। शीघ्र ही दाएँ हाथ से ऊपर के पलड़े को नीचे खींच कर उन बिछे हुए कपड़ों पर रख दिया जाता है जो नीचे बिछे कपड़े हिलें नहीं...। तब दूसरे पैडल से 10-15 सेकेंड तक कपड़ों को स्टीम देकर तीसरे पैडल को दबाते हैं जहाँ से ठंडी हवा निकल कर उन प्रेस किए कपड़ों को सुखा देती है। प्रेस किए कपड़ों को फिर से सरोज ने उसी रस्सी से इस प्रकार बांधा कि उनकी प्रेस खराब न हो।
हर एक बंडल के साथ एक लंबी सी टिकट होती है जिस पर प्रत्येक डिपार्टमेंट का नाम लिखा है। काम करने के पश्चात उस बड़ी टिकट में से अपनी छोटी टिकट काट कर व बड़ी टिकट पर अपना नाम लिख कर उसे बंडल के साथ अगले वर्कर के लिए भेज दिया जाता है। बड़ी टिकट पर अपना नाम इस लिए लिखते हैं जो पता चले कि यह काम किस ने किया है।
प्रेस के बाद यह बंडल कटर्स के पास जाता है जहाँ वह पहले ओवरलॉकिंग के धागे को खींच कर निकालती हैं। यह ओवरलॉकिंग किया हुआ कच्चा घागा बड़ी सुगमता से निकल जाता है। डिजाइन दे कर और काट कर इन कपड़ों को सिलाई के लिए भेजते हैं। जब कपड़े को आकार मिल जाता है तो एक बार फिर प्रेसर नाप के अनुसार एक फ्रेम पर वस्त्र को चढ़ा कर उसे सावधानी प्रेस करती हैं।
यहीं पर ही काम समाप्त नहीं होता। प्रेस किए हुए तैयार वस्त्र एग्जामिनर्स के पास जाते हैं जहाँ वे प्रत्येक बने हुए कपड़े की ठीक से जाँच करके प्लाटिक के लिफाफों में डाल कर पैक कर देती हैं। इस प्रकार कितने हाथों से निकल कर एक वस्त्र तैयार होता है। प्रत्येक काम करने वाला साथ लगी बड़ी टिकट से अपनी टिकट काटना नहीं भूलता। शुक्रवार उनकी टिकटों को गिनने के पश्चात सब को उन्हीं टिकटों के अनुसार वेतन दिया जाता है
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सरोज एक बहुत अनुभवी प्रेसर है। पैसों की कमी होने के कारण वह कभी ओवरटाईम भी कर लेती है। सरोज जहाँ काम करती है वह कमरा थोड़ा बड़ा है। लंच ब्रेक के समय उस की और सहेलियाँ भी जो दूसरे विभागों में काम करती हैं यहीं आ जाती हैं खाना खाने के लिए।
सरोज के साथ वाली प्रेस पर एक युवा गोरी लड़की एंड्रिया काम करती है। अच्छी लड़की है। अधिक पढ़ी लिखी नहीं है। वह ठीक से अपने काम की टिकटें भी नहीं गिन सकती जिसके लिए सरोज उसकी सहायता कर देती है। एंड्रिया का ब्वायफ्रेंड जैक भी उसी का हमउम्र है। कुछ दिनों से वह भी एंड्रिया के साथ खाना खाने के लिए प्रेस के कमरे में ही आने लगा। युवा दिमाग हो और उसमें कभी कोई खुराफात न आए ऐसा तो हो ही नहीं सकता।
कुछ दिन तक तो सब ठीक चलता रहा। एक दिन खाना खाने के पश्चात एंड्रिया को मस्ती सूझी और वह जैक के सामने अपनी मेज पर टाँगें नीचे लटका कर लेट गई। उसका इशारा समझ कर जैक एंड्रिया के साथ शैतानी करने लगा जो शायद एंड्रिया को बहुत अच्छा लगा। अब यह रोज की बात हो गई। बात धीरे धीरे हल्की फुल्की छेड़खानी से आगे बढ़ने लगी। यही शैतानियाँ बदतमीजी पर उतर आईं। दोनों उन बैठी हुई महिलाओं की ओर शैतानी से देखते और शर्मनाक हरकतें करते। सरोज और उसकी दोस्तों से वहाँ बैठना दूभर हो गया।
एक दिन सरोज को इतना गुस्सा आया कि वह खाना वहीं छोड़ कर कहीं चल दी।
"मैनेजर साहब मैं अंदर आ सकती हूँ।"
"अरे सरोज आप... आइए अंदर आइए।" मैनेजर सरोज को जानते हैं कि यह एक बहुत तेज और खामोशी से काम करने वाली महिला हैं। सरोज जो आज मैनेजर के पास आई है तो अवश्य ही कोई जरूरी काम होगा...।
"कहिए सरोज क्या बात है...?"
"सर हमें आधे घंटे का लंच ब्रेक मिलता है। कुछ दिन पहले तक सब ठीक से चल रहा था जब से जैक हमारे कमरे में नहीं आता था।"
"यह जैक कौन है और कहाँ से आता है?" मैनेजर ने जरा जोर से पूछा।
"सर यह कौन है मैं नहीं जानती। ये वहीं काम करने वाली युवा लड़की एंड्रिया का दोस्त है। यह लोग ब्रेक के समय ऐसी शर्मनाक हरकतें करते हैं कि हमारे लिए वहाँ बैठना मुश्किल कर दिया है। आप अभी चल कर अपनी आँखों से देख लीजिए...।"
मैनेजर उसी समय उठ कर सरोज के संग हो लिया।
"जैक... एक कड़कती आवाज आई... एंड्रिया... ये सब क्या हो रहा है। जैक तुम यहाँ क्या कर रहे हो महिलाओं के कमरे में।"
"सर मैं यहाँ अपनी दोस्त एंड्रिया के साथ खाना खाने आता हूँ।"
"वो तो मैने देख ही लिया है कि तुम क्या करने आते हो...। आइंदा तुम किसी भी महिला विभाग में दिखाई दिए तो कारखाने से बाहर कर दिए जाओगे... और तुम एंड्रिया... इतनी ही गर्मी चढ़ी हुई है तो जा कर घर बैठो...।"
घर तो मैं अब इस को बिठाऊँगी जो बड़ी होशियार बनती है...। एंड्रिया ने बॉस से तो माफी माँग ली परंतु मन में सरोज के प्रति एक खुंदक रखी जिस के लिए वह समय की प्रतीक्षा करने लगी।
अंग्रेजों की एक बहुत बड़ी विशेषता है कि वह किसी से कितनी भी दुश्मनी क्यों न रखें परंतु चेहरे पर एक भाव भी नहीं आने देते। हमेशा बत्तीसी निकाल कर और गले मिल कर ही मिलते हैं। समय आने पर कब पीछे से वार कर दें किसी को पता भी नहीं चलेगा...।
यही एंड्रिया ने किया। किसी बड़ी कंपनी के आर्डर की आखिरी तारीख सर पर थी। बड़ी तेजी से काम हो रहा था। सब जानते हैं कि यह बड़ी कंपनियों का जब समय पर आर्डर पूरा नहीं होता तो यह पूरा का पूरा आर्डर कैंसिल कर देती हैं जिस का सारा नुकसान कारखाने को भुगतना पड़ता है। यहाँ का फोरमैन परेशान है आर्डर ठीक समय पर निकालने के लिए। वह सबसे ओवरटाइम करने के लिए पूछ रहा है...
"सरोज दो सप्ताह थोड़ा ओवरटाइम लगा दो बहुत बड़ा आर्डर है..." फोरमैन ने कहा।
"देखिए मैं 40 घंटे में ही इतना काम कर देती हूँ जितना ये बाकी की महिलाएँ ज्यादा समय लगा कर भी नहीं कर पातीं। मेरा तीन साल का बेटा राह देख रहा होता है। मैं आपको कल बताऊँगी...।"
सरोज कल क्या बताती दूसरे दिन वह काम पर आई तो चौंक गई यह क्या... शाम को तो मैं अपनी प्रेस को अच्छा भला छोड़ कर गई थी... यह कपड़े पर इतना बड़ा छेद कहाँ से आ गया। सरोज सोचते हुए वहीं खड़ी हो गई। जब तक पूरा प्रेस का कपड़ा न बदला जाए काम करना असंभव है। स्टीम के साथ जल जाने का डर है।
"सुंदर भाई... सरोज ने वहाँ काम करने वाले आदमी को पुकारा... जरा फोरमैन को बुला दीजिए...। प्रेस का कपड़ा फटा हुआ है ऐसी प्रेस पर काम नहीं हो सकता ये तो मुझे जला देगी। और कोई प्रेस खाली भी नहीं जिस पर मैं जा कर काम करूँ।"
"अरे इतना बड़ा छेद। आप यहीं रुकिए मैं फोरमैन को बुला कर लाता हूँ।"
"यह कैसे हो गया सरोज?" फोरमैन ने आते ही पूछा।
"मालूम नहीं... शाम को तो मैं ठीक ठाक छोड़ कर गई थी। आप जल्दी से इसका कपड़ा बदलवा दीजिए।"
"कपड़ा बदलना इस समय नहीं हो सकता। इतनी सुबह तो मकैनिक नहीं आता। तुम ऐसे करो काम शुरू कर दो जैसे ही मकैनिक आएगा मैं लेकर आता हूँ।"
सरोज जब तक प्रेस पर कपड़े बिछा कर काम करती रही सब ठीक चल रहा था। परंतु जहाँ फ्रेम पर चढ़ा कर प्रेस करने की बारी आई छेद में से गर्म स्टीम सीधी सरोज की बाजू पर लगी। जलन के मारे वह चीख पड़ी। उसकी बाजू पर फफोले पड़ने लगे। सरोज से हमदर्दी दिखाने के स्थान पर फोरमैन उसी को डाँटने लगा...।
"ध्यान से काम नहीं कर सकती थी। जरा सी बात के लिए काम पिछड़ जाएगा।" फोरमैन को अपने बोनस की पड़ी थी। समय पर काम निकल जाए तो उसे बड़ा बोनस मिलेगा।
"अब यह लो कपड़ा हाथ पर बांधो और काम शुरू कर दो। एक-एक मिनट कीमती है।"
सरोज की आँखों में दर्द के मारे आँसू भरे हुए थे। मन तो चाहा कि ये कपड़ा फोरमैन के मुँह पर फेंक कर अभी घर चली जाए। पैसों की आवश्यकता ने उसे वहीं रोक दिया। जले हुए हाथ से स्टीम के साथ काम करना मुश्किल ही नहीं असंभव था।
असंभव को संभव बनाने के लिए एंड्रिया जो थी वहाँ। वह आवाज में प्यार भर कर सहानुभूति जताने चली आई...
"सरोज बहुत जल रहा है। मैं यदि तुम्हारे स्थान पर होती तो यह गंदा कपड़ा फोरमैन के मुँह पर मार कर अभी घर चली जाती।"
"आप अपनी सहानुभूति अपने तक ही रखिए एंड्रिया। जरा जल्दी हाथ चलाइए नहीं तो काम भेजना मुश्किल हो जाएगा पीछे से सुंदर की आवाज आई।"
मुश्किल समय तो अब फोरमैन के लिए आने वाला था। उसका व्यवहार एशियंस के प्रति कभी भी ठीक नहीं रहा। फिर भी किसी ने भी उसकी शिकायत करने की हिम्मत नहीं दिखाई। सब को अपनी नौकरी की चिंता है।
चिंता केवल सुंदर भाई ने व्यक्त की। सुंदर भाई जो इन सब महिलाओं को प्रेस करने के लिए काम देते हैं उनसे सरोज का दुख देखा नहीं गया। फोरमैन के व्यवहार से वह भली भांति परिचित है। उसे केवल अपने काम की पड़ी है कोई वर्कर जिए या मरे उसकी बला से। परंतु मैं सरोज को इनसाफ दिलवाऊँगा। सुंदर ने चुपचाप से जाकर यूनियन से संपर्क किया और उन्हें सब कुछ बता दिया। इस फोरमैन की पहले से ही काफी शिकायतें यूनियन के पास दर्ज थीं। अब कुछ करने का समय आ गया था। इस फोरमैन को सबक सिखाना ही पड़ेगा। यह वो समय था जब यूनियन का काफी बोलबाला था। यूनियन कर्मचारी प्रेस विभाग में आया...
"कम ऑन एवरी बाडी आऊट...। यूनियन के लीडर ने आते ही कहा। सब लोग अपना काम छोड़ दीजिए। इस कारखाने का फोरमैन कहाँ हैं बुलाइए उनको.."
फोरमैन के हाथ पैर फूल गए। वह सब काम छोड़ कर भागा हुआ आया। वह तो सरोज को बाकी एशियन महिलाओं के समान दब्बू और सीधी साधी अनपढ़ औरत समझता था।
"मिस्टर बील्स आप इस बात से अवगत हैं कि आप के यहाँ काम करने वाले एक कर्मचारी के साथ काम करते हुए दुर्घटना हुई है?" यूनियन कर्मचारी टोनी ने कहा।
दुर्घटना तो हुई है किंतु सरोज इस असमंजस में है कि यूनियन को कैसे पता चल गया। अब बिना किसी कारण यहाँ पर इतना बड़ा हंगामा खड़ा हो जाएगा। कारखाना बंद हो गया तो सब उसी को कोसेंगे।
कोस तो इस समय फोरमैन रहा था स्वयं को कि उसने इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया। वह जल्दी से बोला...
"जी मैं जानता हूँ कि यहाँ काम करने वाली महिला सरोज का मामूली सा हाथ जला है और मैंने कपड़ा भी बाँध दिया था उस पर।"
"इसको आप मामूली सा जला कहते हैं..." टोनी ने सरोज की बाँह आगे करते हुए कहा। "ये फफोले देख रहे हैं आप।"
"दुर्घटना रजिस्टर में तो आपने इस को दर्ज कर दिया होगा मिस्टर बील्स?"
"नहीं कर पाया टोनी इतना समय ही नहीं मिला।" फोरमैन अभी भी इस बात की गंभीरता को नहीं समझ रहा था।
सरोज के चेहरे से भय साफ दिखाई दे रहा था। वह तो इसी असमंजस में थी कि यूनियन को पता कैसे चला। सरोज को डरा हुआ देख कर उस यूनियन के आदमी को दया आने लगी।
"सरोज आप डरिए मत, हम आपको इनसाफ दिलवा कर रहेंगे।"
"ठीक है इसको आप इनसाफ दिलाते रहिए हमें कोई आपत्ति नहीं लेकिन इसके कारण हम काम रोक कर क्यों नुकसान उठाएँ?" एंड्रिया काम करते हुए बोली।
"जो आज इनके साथ हुआ है कल आप के साथ भी हो सकता है मिस... क्या है आपका नाम।"
"एंड्रिया..."
"हाँ तो एंड्रिया... अभी तो हमने यह भी पता लगाना है कि अचानक सरोज की प्रेस में इतना बड़ा छेद कहाँ से आ गया। आप इनके साथ वाली प्रेस पर काम करती हैं। शायद आपने ही किसी को देखा हो..."
एंड्रिया एकदम सकते में आ गई। उसने उसी समय काम करना बंद कर दिया।
"किस बात का इनसाफ दिलाने की बात हो रही है टोनी। क्या हुआ है यहाँ कोई मुझे भी बताएगा..." सूचना मिलते ही कारखाने का मैनेजर वहाँ आ गया।
"यहाँ ये हुआ है..." सरोज की बाँह आगे करते हुए टोनी यूनियन के आदमी ने कहा। "ये सब आपके कारखाने के फोरमैन की लापरवाही के कारण हुआ है। पहले तो सरोज को इतने बड़े छेद वाली प्रेस पर काम करने को बोल दिया। यह भी नहीं सोचा कि गर्म स्टीम से कितना बड़ा हादसा हो सकता है। हाथ जलने के पश्चात सरोज को हस्पताल भेजने के स्थान पर उनके हाथ पर यह गंदा कपड़ा बाँधने को बोला है जिससे सेप्टिक भी हो सकता है। आपका फोरमैन इस बात से अवगत नहीं है शायद कि सरोज चाहे तो अभी सारे कारखाने का काम बंद करवा सकती है।"
कारखाना बंद होने के नाम से मैनेजर मुलायम आवाज में बोला...
"मेरे ऑफिस में आओ टोनी आराम से बैठ कर बात करते हैं। सुंदर आप सरोज को हस्पताल ले जाकर मरहम पट्टी करवा कर लाइए। और हाँ सरोज..." मैनेजर ने जाते हुए कहा, "आप घबराइए मत आपको इसका पूरा हरजाना मिलेगा।"
"क्या हरजाना देने वाले हो। बेचारी का हाथ बहुत जल गया है।"
"सरोज एक बड़े ही भले घर की पढ़ी लिखी महिला है टोनी। कभी कुछ मजबूरियाँ ऐसे लोगों को भी कारखानों का रास्ता दिखा देती हैं।"
"भई कारखाने के बाहर का रास्ता तो आपको अब इस फोरमैन को दिखाना होगा नहीं तो कहीं किसी दिन इसके कारण सच में ही हड़ताल न हो जाए। वैसे भी सरोज के स्थान पर यदि कोई अपनी अंग्रेज महिला होती तो कारखाने के बाहर तमाशा कर रही होती।"
गोरी औरतें तो काम पर भी तमाशा ही करती रहती हैं। इनको काम पर भी हर एक घंटे में चाय चाहिए। सिगरेट पीना भी इनके लिए अनिवार्य होता है। जहाँ कश लगाते हुए उन्हें समय का भी ध्यान नहीं रहता। वह ये नहीं जानतीं की घड़ी तो अपनी गति से भाग रही होती है चाहे कोई उसमें काम करले या बातें। जब परिणाम वेतन के रूप में प्रत्येक शुक्रवार को सामने आता है तब उनके चेहरे लटक जाते हैं। जिसका दोष वह एशियन महिलाओं को देने से नहीं चूकतीं।
"खैर सरोज से हमारा संपर्क रहेगा इसलिए..."
"उसका ख्याल तो रखना ही पड़ेगा टोनी... बात अब यूनियन तक जो जा पहुँची है...। चिंता मत करो सरोज को हरजाने के साथ 6 से 8 सप्ताह की छुट्टी पूरे वेतन के साथ दी जाएगी।"
"यह पूँजीपति लोग हम जैसे गरीबों से ही तो डरते हैं नहीं तो..." और हँसते हुए टोनी ने कुर्सी छोड़ दी।
***
पूरे सप्ताह की मेहनत के पश्चात जहाँ अंग्रेज महिलाओं की शामें पब में गुजरतीं हैं वहीं एशियन स्त्रियाँ या तो दुकानों पर अपने पति का हाथ बँटा रही होतीं या फिर कुछ पढ़ी-लिखी अपने बच्चों को स्कूल का काम करवा रही होतीं। दूसरे देशों से ब्रिटेन में आए लोगों की इस सोच को भी झुठला नहीं सकते कि इतना अपमान सह कर भी कड़वा घूँट पीकर वे यहाँ चुपचाप इसलिए काम कर रहे हैं जो अपने बच्चों को अच्छा जीवन दे सकें। उन्हें पढ़ा कर इस काबिल बना दें कि वह इस देश में इन लोगों के मुकाबले में सिर उठा कर बराबरी में खड़े हो कर दिखाएँ। अच्छी नौकरियाँ प्राप्त करें। इस काम में बच्चों ने भी उनका पूरा साथ दिया।
अच्छी नौकरियाँ हासिल करने के लिए अंग्रेजी भाषा का खुल कर प्रयोग करना भी आना चाहिए। किसी चीज को सीखने के लिए उसका अनुभव और अभ्यास बहुत आवश्यक है। अनुभव के लिए उसका अधिक से अधिक प्रयोग करना। बच्चे सारा दिन तो घर से बाहर अंग्रेजी भाषा में बात करते ही हैं घर पर भी माता-पिता उन्हें अंग्रेजी बोलने पर टोकना तो दूर बल्कि प्रोत्साहित करने लगे। ऐसा करने से केवल लाभ ही हुआ हो यह कहना उचित न होगा। ऐसा करने से बच्चे अपनी संस्कृति और भाषा से दूर होने लगे। कुछ पाने के लिए कभी-कभी बहुत कुछ खोना भी पड़ जाता है।
जहाँ कुछ लोगों के बच्चे अपनी संस्कृति और भाषा को अच्छे जीवन की खातिर दाँव पर लगा रहे थे वहीं गुजराती कम्युनिटी एक गुट होकर आगे बढ़ रही थी।
लेस्टर के बेलग्रेव तथा मेल्टन रोड व उसकी आस-पास की सड़कों में अधिक से अधिक गुजराती लोगों की दुकानें व मकान बढ़ने लगे। जहाँ देखो आभूषण, कपड़े, खाने-पीने आदि की दुकानों के गुजराती मालिक कहलाने लगे। खाने पीने की दुकानें खुलने का परिणाम यह निकला कि अंग्रेज लोग वहाँ से घर बेच कर बेलग्रेव रोड से दूर भागने शुरू हो गए।
भारतीय और अंग्रेजी खाने में जमीन आसमान का अंतर है। जहाँ अंग्रेज उबला और फीका खाना खाते हैं वहीं भारतीयों के मसालों की फैलती हुई खुशबू से कोई बच नहीं सकता। इसमें अंग्रेजों को भी कोई क्या दोष दे। उनके लिए इस प्रकार की खुशबुएँ बर्दाश्त से बाहर हो गई थीं। अंगरेजों के मकान बिकते गए व बेलग्रेव और आस-पास की स्ट्रीट्स में एशियंस फैलते गए।
हर इनसान की पहचान उसके धर्म से मानी जाती है। लेस्टर में विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों का बसेरा है। भारतवंशियों में तो धार्मिक भावना कूट कूट कर भरी होती है। घरों में भी भगवान की मूर्तियों के आगे दीपक जला कर पूजा करना व सारा दिन जलता हुआ दीपक छोड़ देना तो आम सी बात थी। घरों में हर समय जलता दीपक देख कर अंग्रेज इस बात से भी डरते थे कि ये अपना घर तो जलाएँगे ही साथ में हमें भी ले डूबेंगे।
डरने की बात होती ही है जब पड़ोसी के घर से निकलता हुआ धुआँ दिखाई दे। जान तो सबको प्यारी है चाहे वो गोरा हो या काला। यहाँ तक कि जंगल में आग जलती
देख कर जानवर भी जान बचाने के लिए विपरीत दिशा में भागने लगते हैं। एक तो यहाँ लकड़ी के घर दूसरे साथ जुड़े हुए। पड़ोसी से ज्यादा उन्हें अपने घर की चिंता सताने लगी क्यों कि आग की लपटें फैलते देर नहीं लगती।
पड़ोस के घर से धुआँ क्या उठा कि सायरन बजाती हुई दो फायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ आ गईं। आस-पड़ोस के लोग घरों से बाहर आ गए। कुछ ऐसे भी थे जो खिड़कियों से परदे हटा कर पता लगाने का प्रयत्न करने लगे कि आग किस घर में लगी है।
फायर ब्रिगेड वाले शीघ्रता से अपने काम में लीन हो गए। दो कर्मचारी पानी का बड़ा सा पाइप घसीटते हुए घर के पिछवाड़े भागे तो कुछ दरवाजा खटखटा कर घर के अंदर घुस आए...
"वेयर इज दा फायर... सब बाहर निकलिए। हमें सूचना मिली है कि इस घर में आग लगी है।"
घर मेहमानों से भरा हुआ था। सब लोग एक दूसरे का मुँह देखने लगे।
"आफिसर आप को गलत सूचना दी गई है यहाँ कोई आग नहीं लगी।"
पता चला कि छोटे बेटे के मुंडन के बाद घर में हवन रखा गया था। यह धुआँ उसी छोटे से हवनकुंड से उठ कर खिड़की से बाहर आ रहा था। जिसे देख कर पड़ोसी अंग्रेज घबरा गया। ऐसी छोटी मोटी घटनाएँ होना तो अब मामूली सी बात हो गई थी। कसूर इसमें किसी का भी नहीं कहा जा सकता क्यों कि दोनों की संस्कृतियों, रहन-सहन, खान-पान में इतना अंतर है कि यह सब होना स्वाभाविक सा लगने लगा था।
एशियंस के यहाँ आकर बस जाने से लेस्टर ही नहीं ब्रिटेन की इकोनमी पर भी बहुत अच्छा असर दिखाई दिया। अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिलने लगा, कारखानों में प्रोडक्शन बढ़ने लगा, ऑडर्स से रजिस्टर भरने लगे, तरह-तरह के भारतीय खानों के रेस्तराँ खुलने लगे, एशियन बच्चों ने स्कूलों में भी अपनी मेहनत से पूरा योगदान दे कर यहाँ के बच्चों की भी पढ़ाई की ओर रुचि बढ़ाई...। ब्रिटिश लोगों का रवैया भी इनके प्रति थोड़ा बदलने लगा। इकोनोमी के बढ़ने से सरकार ने भी इनके परिवारों को भारत से यहाँ आने में कोई आपत्ति न जताई।
उस समय अंग्रेज आपत्ति जरूर जताते थे जब एशियन के घर में कोई पूजा-पाठ होती हो। सड़कों पर ही नहीं उनके घरों के आगे भी कारों का ताँता, ढोलक मंजीरे की तेज आवाजें, छोटे से घर में इतना भीड़-भड़का सब कुछ उनकी सहनशक्ति से बाहर होता जा रहा था।
अंग्रेजों की आए दिन की शिकायतें सुन कर सरकार ने एशियंस को अपने मंदिर बनाने की अनुमति ही नहीं दी बल्कि उन्हें मंदिर के लिए ग्रांट की भी मंजूरी दे दी गई जो ये लोग घरों में नहीं मंदिर में जा कर अपने धार्मिक कार्यों को पूरा करें।
ग्रांट मिलने के पश्चात लेस्टर में सबसे पहला मंदिर "गीता भवन" के नाम से खुला। यह केवल इनका पूजा पाठ का स्थान ही नहीं था बल्कि एक कम्युनिटी सेंटर भी था। दिन में यहाँ घर के बुजुर्ग इकट्ठे मिल कर बैठते व शाम को हिंदी, गुजराती, पंजाबी आदि भाषाएँ सिखाने की कक्षाएँ लगने लगीं। सरकार की ओर से प्रोत्साहन मिलते ही कुछ और मंदिर भी खुल गए। पहले डरते-डरते फिर खुल कर लोगों ने अपने त्यौहार मनाने शुरू कर दिए। अंग्रेज भी जान गए थे कि अब यह लोग यहाँ से जाने वाले नहीं हैं तो क्यों न मिल कर रहा जाए।
इनके देखा देखी दूसरे धर्मों के लोगों को भी अपने सेंटर खोलने का साहस मिल गया।
अभी अफ्रीका से लोगों का आना बंद भी नहीं हुआ था कि पाकिस्तान से मुसलमान व बंगलादेश से बंगलादेशी काफी संख्या में आने आरंभ हो गए। बंगलादेशियों ने तो आकर यहाँ का माहौल ही बदल दिया जिसका प्रभाव ब्रिटेन की वेलफेयर स्टेट पर काफी पड़ा।
एक बंगलादेशी परिवार में आठ-दस बच्चे होना मामूली बात है। जब काम न करने पर भी सरकार से बच्चों का लालन-पालन करने के लिए पैसा व रहने के लिए बड़े घर मिलने लगे तो इन्होंने अधिक से अधिक लाभ उठाने का प्रयत्न आरंभ कर दिया।
ब्रिटिश सरकार की यह विशेषता है कि एक परिवार जिसमें छोटे बच्चे हैं उन्हें कभी दर-दर भटकने नहीं देगी। जब तक इनके लिए ठीक से रहने का इंतजाम नहीं हो जाता इन्हें टेंपरेरी शैल्टर्ड अकामोडेशन में रखा जाता है। घर के जितने सदस्य होते हैं उन्हीं के अनुसार घर जुटाने का प्रयास किया जाता है। इन्हें रहने खाने के लिए भत्ता भी दिया जाता है। जब बैठे बिठाए सब कुछ मिल रहा था तो बंगलादेशियों ने इस बात का भरपूर लाभ उठाया।
यह लोग सरकार से पैसा भी लेते और चुपचाप बंगाली दुकानों पर काम भी कर रहे थे। जब दुकानदारों को भी सस्ते मजदूर मिल रहे हों तो क्यों ना इनको काम दें। यह सब सरकार की नाक के नीचे हो रहा था।
यदि बेलग्रेव और मेलटन रोड एरिया हिंदू प्रधान था तो मुसलमानों ने हाइफील्ड, और एविंगटन की ओर रुख किया जहाँ मकानों के साथ इनकी हलाल मीट की दुकानें भी खुलने लगीं। क्योंकि अधिकतर लोग अनपढ़ थे और कारखाने लेस्टर और उसके आस पास थे इस लिए जनसंख्या तेजी से बढ़ने लगी। साथ में ही मकानों की कीमतों में भी बढ़ोतरी दिखाई देने लगी। बंगलादेशी अधिकतर लेस्टर के पास ही एक गाँव लॉफ़्बरो में जाकर बस गए।
लॉफ़्बरो में मकान अभी लेस्टर के मुकाबले में सस्ते थे। वैसे भी लॉफ़्बरो अपनी होजरीस के लिए मशहूर था ही साथ में यहाँ जहाज व इंजन के पुर्जे बनाने वाला कारखाना ब्रश व दवाइयाँ बनाने वाली मशहूर फाइजन कंपनी, जुराबें बनाने वाला मैराथन नाम का कारखाना व प्लास्टिक के डिब्बे आदि बनाने वाले कारखाने भी मौजूद थे। उस समय लॉफ़्बरो ही एक ऐसी जगह थी जहाँ बैल फोंडरी पाई जाती थी जहाँ की बनी हुई चर्च की घंटियाँ पूरे ब्रिटेन के चर्च में प्रयोग होती थीं इस लिए काम की कोई कमी नहीं थी।
अभी अंग्रेज लोग भारतीयों के खाने और मसालों को थोड़ा समझ ही रहे थे कि बंगलादेशियों ने आकर सोने पर सुहागे का काम कर दिया। बंगाली तो बिना मछली खाए रह नहीं सकते। उनका मछली पकाने का ढंग भी ऐसा कि महक अगली स्ट्रीट तक जाए। बेचारे वहाँ रहने वाले लोग परेशान हो उठे। जब उनकी सरकार ने ही उन्हें यहाँ रहने की आज्ञा दी है तो वो क्या कर सकते हैं। हाँ आए दिन इनमें आपस में टकराव के चर्चे समाचार की सुर्खियों में जरूर रहने लगे।
***
दो बुजुर्गी अंग्रेज महिलाएँ कंधे पर पर्स लटकाये बातें करती हुई जा रही थीं कि फुटपाथ पर इतने सारे खून के धब्बे देख कर परेशान हो उठीं... .
"अरे ये फुटपाथ पर जगह-जगह खून के धब्बे कैसे पड़े हुए हैं। लगता है यहाँ कोई बहुत बड़ी दुर्घटना हुई है। कहीं यह एशियंस और अपने लोगों के बीच झगड़ा तो नहीं हो गया।"
"अब हम कर ही क्या सकते हैं जब थर्ड वर्ड देशों से इतने लोग यहाँ आकर बस जाएँगे तो यह सब तो होगा ही। वैसे देखा है तुमने उन लोगों के पास तहजीब नाम की तो कोई चीज ही नहीं है। कैसे सड़क के दोनों किनारों पर खड़े हो कर जोर-जोर से चिल्ला कर बातें करते हैं। अरे भई सड़क पार करके एक स्थान पर खड़े हो कर पढ़े लिखों के समान आराम से बात करो। उनमें इतने मैनर्स हों तब न। इन्हें तो न कपड़े पहनने का ढंग न खाने का तरीका। इसका प्रभाव हमारे सभ्य समाज पर भी पड़ रहा है। उन्हें देख कर हमारे बच्चे भी तो बिगड़ सकते हैं।"
"तुम्हारा कहना भी ठीक है सूजी। आखिर हम ही क्यों उन से डर कर अपना घर बार छोड़ कर भागें। अपने ही देश में हमें अपने ढंग से जीने का अधिकार नहीं है...।"
"अरे देखो तो यह खून के धब्बे तो पूरे फुटपाथ पर बिखरे दिखाई दे रहे हैं..." अभी उन दोनों की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि एक बंगलादेशी खून थूकता हुआ उनके पास से निकल गया।
उस आदमी का हुलिया देख कर ऐसा लग रहा था जैसे अभी किसी जंगल से पकड़ कर लाया गया हो। मटमैला सफेद लंबा चोगा, लंबी पूरे मुँह पर फैली हुई दाड़ी, ऊबड़ खाबड़ सिर की खेती पर पहनी हुई टोपी और मुख से निकलती हुई पीक। उस आदमी के मुख से खून निकलता देख कर दोनों बुजुर्ग महिलाओं को दया आ गई।
"पुअर मैन... लगता है इस आदमी को मुँह पर चोट लगी है। बेचारे का कितना खून बह रहा है। चाहे कोई भी हो आखिर है तो इनसान ही न... ऐ मिस्टर... उन्होंने उस जाते हुए व्यक्ति को रोका। रुकने से पहले उस व्यक्ति ने फिर एक बार थूका। इस बार खून की पीक और दूर तक गई।
"हम दूर से यह खून के धब्बे देखती आ रही हैं...। लगता है आप का किसी से झगड़ा हुआ है और आपको सहायता की आवश्यकता है। देखो ना मुँह से बहुत खून बह रहा है। आप यहीं रुकिए हम एंबुलेंस बुलाते हैं...।"
"नो... नो एंबुलेंस..." उसने टूटी-फूटी अंग्रेजी में जवाब दिया, "यह खून नहीं पान की पीक है" और उसने जेब से पान की डिब्बी निकाल कर उन्हें दिखाई कि "हम यह चीज चबाते हैं जिससे लाल रंग निकलता है। यह जमीन पर वही धब्बे हैं...।"
"हाऊ डिस्गस्टिंग... यू इलमैनर्ड पीपल..." और वह दोनों बुरा सा मुँह बना कर वहाँ से चली गईं। बंगलादेशी को कुछ समझ में नहीं आया कि इन दोनों को हुआ क्या है और ये क्या बोल कर गई हैं। वह थोड़ी देर उन बूढ़ी औरतों को जाते देखता रहा फिर कंधे झटक कर अपने रास्ते चल पड़ा।
***
निशा कॉलेज से घर आई तो क्या देखती है कि नानी बहुत उदास सी कोने की कुर्सी पर बैठी हैं। माँ अभी काम पर से नहीं आईं। नानी दूर कहीं अपने ही ख्यालों में खोई हुई हैं। वह तब चौंकी जब निशा ने पीछे से उनके गले में अपनी बाँहें डाल दीं।
"क्या नानी मैं कब से सामने खड़ी हूँ और आप देख भी नहीं रहीं..."
"अरे निशा बेटा तुम कब आई?"
"पहले यह बताइए आप कहाँ खोई हुई थीं। नवसारी की बहुत याद आ रही है नानी...? नानी मुझे अपना वादा याद है। बस थोड़ा सा और इंतजार कर लीजिए फिर मैं जरूर आपको नवसारी ले कर जाऊँगी। बस तीन साल और..."
"पता नहीं तब तक तुम्हारी नानी कहाँ होगी बेटा। यहाँ कल का भरोसा नहीं फिर तीन साल किसने देखे हैं..." नानी की आवाज में मायूसी साफ झलक रही थी।
"हम देखेंगे नानी। हर बात का एक समय होता है। सोचिए जब हम हवाई जहाज में बैठे होंगे। मेरा भी तो मन करता है अपने संबंधियों से मिलने का। हमें बस सही समय का इंतजार है जो जल्दी आएगा। जहाँ इतनी प्रतीक्षा कर ली वहाँ यह तीन साल क्या हैं। फुर्र से उड़ जाएँगे। बस आप खुश रहा करिए।"
"चल तू बैठ मैं तेरे लिए चाय बना कर लाती हूँ।" नानी उठ कर किचन में चली गईं।
पढ़ाई के सही रास्ते पर चलने के कारण निशा शीघ्र ही अध्यापकों की चहेती बन गई। अब तो स्वयं अंग्रेज बच्चे उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने लगे। निशा की कक्षा में ही एक लड़की पढ़ती है लिंडा। दोनों में गहरी दोस्ती हो गई। जब विचारों में शुद्धता आती है तो आँखों से नफरत भी मिट जाती है। रंग-रूप का भेद-भाव भी समाप्त हो जाता है। जब दो विभिन्न संस्कृतियों के बच्चे एक हो जाते हैं तब बड़ों को भी अपने विचारों की दिशा को मोड़ देना ही पड़ता है। हाँ अपने व्यवहार को बदलने में उन्हें समय अवश्य लग जाता है।
निशा और लिंडा दोनों को ही लेस्टर की डीमॉटफर्ट युनिवर्सिटी में आगे पढ़ने के लिए जगह मिल गई है। दोनों बहुत खुश हैं।
लिंडा निशा के कुछ नोट्स पढ़ने के लिए घर ले गई थी यह कह कर कि वह कल उसे लौटा देगी।
सुबह दोनों कॉलेज पहुँची तो बातें करते हुए निशा ने पूछा "लिंडा मेरे नोट्स तो ले आई हो ना मुझे युनिवर्सिटी जाने से पहले कुछ तैयारी करनी है।"
"ओह आई एम सो सॉरी निशा वहीं घर की मेज पर ही भूल आई हूँ...।" कुछ सोचते हुए वह बोली...
"वैसे भी निशा आज मेरा जन्म दिन है। मम्मा तो मेरा जन्मदिन शनिवार को मनाएँगी। तुम चलो ना मेरे घर। अपने नोट्स भी ले लेना और डैड ने मेरे जन्मदिन पर एक बहुत अच्छा विडियो गेम भेजा है हम दोनों वो भी खेलेंगे।"
"कहाँ से भेजा है लिंडा, तुम्हारे डैड कहीं बाहर गए हुए हैं।"
"नहीं मेरे डैड तो यहीं थोड़ी दूर सायस्टन में ही रहते हैं।"
"क्या मतलब डैड तुम्हारे साथ नहीं रहते?"
"अरे, तुम नहीं जानती क्या... मेरे मॉम और डैड तो वर्षों से अलग रहते हैं। उनका तलाक हो गया है।"
"तलाक... आई एम सॉरी लिंडा, मुझे नहीं मालूम था।"
"कोई बात नहीं निशा। कॉलेज में सभी जानते हैं मैने सोचा तुम्हें पता होगा। खैर छोड़ो, मॉम और डैड का तलाक जरूर हो गया है लेकिन मुझे दोनों प्यार करते हैं बल्कि मेरी स्टेप मदर भी।"
"क्या... तो, तुम्हारे डैड ने दूसरी शादी कर ली?"
"हाँ... मैं तो अभी बहुत छोटी थी जब मॉम और डैड अलग हो गए थे। मॉम उस दिन के बाद से कभी डैड से नहीं मिलीं किंतु उन्होंने मुझे डैड से मिलने से कभी नहीं रोका। मैं अक्सर अपनी छुट्टियाँ बारबरा और डैड के साथ बिताती हूँ। मेरा एक छोटा हाफ ब्रदर जेमी भी है।"
"तुम्हारी मॉम को बुरा नहीं लगता जब तुम उनके साथ जा कर रहती हो।"
"बिल्कुल नहीं। वह मेरे डैड हैं। उनका भी पूरा हक है मेरे साथ समय बिताने का। फिर मुझे अच्छा भी लगता है। वहाँ जेमी है, बारबरा है, डैड हैं।"
"तुम अपनी स्टेप मदर को नाम से बुलाती हो तो तुम्हारे डैड कुछ नहीं कहते।"
"नहीं... और क्या बुलाऊँ... बारबरा ने मेरे डैड से शादी जरूर की है किंतु वह मेरी मॉम नहीं हैं।"
निशा कुछ देर लिंडा को देखती रही। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बात करे। बात को आगे बढ़ाने के लिए वह पूछ बैठी... "लिंडा तुम्हारी मॉम ने कभी डैड से मिलने की इच्छा प्रकट नहीं की।"
"नहीं... कहीं न कहीं इस सब के लिए मॉम स्वयं को दोषी मानती हैं। इसमें उनका कोई कसूर नहीं था। उस समय मैं बहुत छोटी थी जब मॉम और डैड अलग हुए थे।" इससे आगे निशा ने कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा।
"सॉरी लिंडा, मैंने तुम्हारे जन्मदिन वाले दिन तुम्हारा दिल दुखा दिया। बस एक बात मेरे दिमाग में घूम रही है, इस बात को इतने साल हो गए। तुम्हारे डैड ने दूसरी शादी कर ली। क्या तुम्हारी मॉम ने फिर से शादी करने की नहीं सोची।"
"नहीं निशा... मुझे लगता है मॉम आज भी डैड से बहुत प्यार करती हैं। मैंने कई बार मॉम को अकेले में डैड की तसवीर से बातें करते और रोते देखा है। जो हो गया उसमें मॉम की कोई गल्ती नहीं थी। मॉम के मन में बचपन से ही एक डर बैठा हुआ था...
यह बहुत पुरानी बात है। मॉम की शादी से पहले की। जब मेरी मॉम का छोटा भाई पैदा हुआ था तब उनकी माँ को तीन महीने हस्पताल रहना पड़ा था। उनकी मॉम यानी मेरी नानी के पेट में रसोली थी जिसे बच्चा पैदा होने के पश्चात ही निकाला जा सकता था। अपनी माँ को इतनी पीड़ा में देख कर मेरी मॉम डर गईं। कितने समय तक तो उन्होंने अपने भाई को भी प्यार नहीं किया यही सोच कर कि इसी के कारण मेरी मॉम को इतनी तकलीफ हो रही है। उन्होंने तभी तय कर लिया था कि जिस बात में इतना दर्द हो वह उसे कभी नहीं करेंगी।
मॉम माँ नहीं बनना चाहती थी और डैड को बच्चों का बहुत शौक था। मॉम के मना करने पर भी डैड ने उन्हें गर्भवती बना दिया। एक डर दूसरा अनचाहा गर्भ... मॉम की तबियत काफी खराब रहने लगी। हारमोनस में बदलाव आने से मॉम के मूड्स भी बदलने लगे।
डैडी पिता बनने के ख्याल से ही बहुत खुश थे। खुश मॉम भी थीं किंतु वह दर्द से डरती थीं। जब उन्हें उल्टियाँ आतीं कहीं दर्द होता तो वह डैडी पर बरस पड़तीं।
यह सब आपका ही कसूर है जॉर्ज... मना करती थी ना कि मैं अभी माँ बनने के लिए तैयार नहीं हूँ। देख ली आपने अपनी जिद।
कुछ ही महीनों की बात है डार्लिंग... जब नन्हीं सी जान को अपनी बाँहों में लोगी तो सारा दर्द भूल जाओगी जॉर्ज आगे बढ़े पत्नी को प्यार करने के लिए तो वह पीछे हट कर बोली... प्लीज अब आप मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए। अच्छा यही होगा कि आप... और वह दूसरे कमरे में चली गई।
जॉर्ज जानते थे कि ऐसे में मूड्स बदलते रहते हैं। एक बार बेबी आ गया तो सब ठीक हो जाएगा। किंतु... कुछ भी ठीक नहीं हुआ...। मॉम चुपचाप सी अपने में ही रहने लगीं। डैडी को पास भी नहीं आने देती थी। वह बहुत उदास रहने लगीं थी। अधिकतर ऐसे में महिलाएँ बच्चे से मुँह मोड़ लेती हैं किंतु मेरे पैदा होने के पश्चात मॉम ने मुझे सीने से लगाया और डैड को दूर कर दिया।
दूर भी ऐसा किया कि वह मुझे छू तक नहीं सकते थे। डैड भी आखिर खुद्दार इनसान थे। कब तक अपने ही घर में अजनबियों की तरह रहते और अपना अपमान सहते रहते। एक दिन उन्होंने गुस्से में आ कर घर छोड़ दिया।"
"लिंडा क्या तुम्हारे डैडी ने फिर घर आने की कोशिश नहीं की। यह उनका भी घर था। मॉम ने भी कभी उन्हें मनाने का प्रयत्न नहीं किया।"
"नहीं निशा... मॉम शायद अपने अपराधबोध के नीचे दबी हुईं थी। वह डैड को बुलाने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं और डैड आने की। दरार ऐसी बनी कि फिर भर नहीं पाई।"
"हूँ..." निशा भी उदास हो गई... "तुम कितने वर्ष की थी लिंडा जब तुम्हारे डैड ने दोबारा शादी कर ली..."
"डैड एक घरेलू किस्म के इनसान हैं। उन्हें परिवार से बहुत प्यार है। डैड ने करीब दो साल तक मॉम की प्रतीक्षा की कि शायद वह अपना इरादा बदल लें। उस समय तक बारबरा डैड के जीवन में आ चुकी थी। जब मॉम ने कोई कदम नहीं बढ़ाया तो डैड ने बारबरा से शादी कर ली। आखिर वह भी कब तक इंतजार करते। उस समय मैं लगभग तीन वर्ष की थी।
कई साल तो मॉम को यह भी डर लगा रहा कि कहीं मैं भी उन्हें छोड़ कर डैड के पास न चली जाऊँ। जानती हो बडी मुश्किल से मैंने उन्हें यह आश्वासन दिलाया कि मैं उन्हें छोड़ कर कहीं जाने वाली नहीं हूँ। डैड के चले जाने के पश्चात मॉम बिल्कुल बदल गई। वह डिप्रेशन में चली गईं। घर से बाहर निकलना बंद कर दिया। हर समय मुझे सीने से लगा कर रोती रहती।"
निशा चुप चाप सारी बातें सुनती रही। उसे लिंडा के घर में जाना कुछ अजीब सा लगने लगा... "लिंडा तुम्हारी मॉम मुझे देख कर नाराज तो नहीं होंगी यदि ऐसी कोई बात है तो तुम मुझे नोट्स लाकर दे दो मैं यहीं से चली जाती हूँ।"
"अरे नहीं ऐसी कोई बात नहीं है मेरे और भी दोस्त आते हैं।"
और दोस्तों में और निशा में अंतर था... निशा को देखते ही लिंडा की मॉम के चेहरे का रंग बदल गया जिसे लिंडा ने भी महसूस किया। निशा का जी चाहा कि अभी उठ कर यहाँ से चली जाए। उसे बहुत अटपटा सा लग रहा था। वह अपने दोनों हाथों की उँगलियों को दबाते हुए कभी लिंडा की ओर देखती और कभी नजरें झुका लेती। लिंडा सब समझ रही थी किंतु खामोश थी। वह निशा के सम्मुख माँ से कुछ कहना नहीं चाहती थी।
लिंडा को मॉम से अपनी दोस्त के साथ ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं थी। निशा ज्यादा वहाँ न बैठ पाई और शरम के मारे लिंडा ने भी उसे न रोका।
निशा तेज कदम उठाती हुई घर की ओर बढ़ रही थी कि अचानक ख्याल आया कि वह लिंडा से अपने नोट्स लेना तो भूल ही गई जो उसे बहुत जरूर चाहिए। निशा न चाहते हुए भी उल्टे पाँव फिर लिंडा के घर की ओर चल पड़ी। लिंडा के घर की खिड़की खुली हुई थी। खुली खिड़की से लिंडा की माँ के जोर जोर से बोलने की आवाजें आ रहीं थीं। उनके हाथ में एक बोतल थी जिससे वह पूरे कमरे में छिड़काव कर रही थी...
"न जाने यह लड़की किन एलियंस को ले कर घर आ जाती है। उफ... सारा घर बदबू से भर गया है। क्या किसी अपने जैसे से दोस्ती नहीं कर सकती। न जाने कितने किटाणु छोड़ गई होगी वो ब्लैकी...।"
लिंडा की नजर खिड़की में से निशा पर पड़ी। "शी... मॉम..." और उसने जल्दी से भाग कर दरवाजा खोला।
"निशा... क्या बात है?"
"लिंडा मैं नोट्स ले जाना भूल गई हूँ जरा जल्दी से ला दो प्लीज।"
"हाँ अंदर तो आओ।"
"नहीं मैं यहीं ठीक हूँ।"
लिंडा के चेहरे से शर्मिंदगी साफ झलक रही थी। "देखो, तुम मेरी दोस्त हो मेरी मॉम की नहीं..." और उसने बढ़ कर निशा को गले लगा लिया।
सबसे अच्छी बात तो यह हुई कि निशा और लिंडा को एक ही जगह डीमॉटफर्ट युनिवर्सिटी लेस्टर में दाखिला मिल गया...।
दाखिला ही नहीं उन्हें कमरा भी इकट्ठा ही मिला। युनिवर्सिटी का यह नियम है कि प्रथम वर्ष में छात्रों को होस्टल में रहना पड़ता है। यहाँ सब हमउम्र होते हैं। भिन्न शहरों से आए हुए होते हैं। कुछ छात्रों का घर से बाहर रहने का यह पहला अनुभव होता है। इस तरह छात्र आपस में जल्दी घुल मिल जाते हैं।
लिंडा बहुत खुश थी। उसके जीवन का यह पहला अवसर था जब कि वह अकेली घर से बाहर इतने दिन के लिए आई थी। वह भी एक युवा लड़की है। अपने हमउम्र लोगों में आ कर वह घर की परेशानियाँ भी भूल गई।
बचपन से ही मॉम उसे स्कूल ट्रिप्स पर भी बड़ी मुश्किल से भेजती थी। एक अजीब सी घबराहट उनके मन में घर कर गई थी...। डर था कि कोई लिंडा को उनसे छीन कर ना ले जाए... वह जब तक स्कूल से घर ना आ जाती माँ खिड़की के सामने खड़ी हो कर लिंडा की राह देखती रहती। लिंडा माँ की भावुकता में कैद हो कर रह गई थी।
निशा को आज लायब्रेरी में थोड़ा अधिक समय लग गया था। कमरे में आई तो लिंडा वहाँ नहीं थी। लिंडा की मेज पर टेबल लैंप के नीचे एक चिट्ठी मिली...
निशा माफ करना तुम्हारे आने तक रुक नहीं पाई। हमारी पड़ोसन का फोन आया था कि मॉम की तबियत अचानक खराब हो गई है। मॉम हस्पताल में हैं। मैं जा रही हूँ। पता नहीं लौट पाऊँगी कि नहीं। मेरी डिग्री मॉम से बढ़ कर नहीं है..." - लिंडा
लिंडा ऐसी गई कि फिर पलट कर नहीं आ पाई। उसके जाने के पश्चात निशा के कमरे में एंजी नाम की एक लड़की को भेज दिया गया। एंजी भी चाहे हमउम्र थी किंतु हर किसी से तबियत मिलना आसान नहीं होता। एंजी एक ऐसे इंगलिश परिवार से थी जो एशियंस से घृणा ही नहीं उनकी परछाईं से भी दूर भागते थे। उनकी नजर में भारतीय गुलाम थे और सदा रहेंगे। चाहे उनके बच्चे कितना भी पढ़-लिख जाएँ लेकिन वह गोरे बच्चों का मुकाबला करने का सपना भी नहीं देख सकते।
एंजी की स्वयं तो पढ़ाई में कोई रुचि थी नहीं उसकी अकसर निशा से झड़प हो जाती...।
"देखो निशा मुझे तुम्हारा रात देर तक पढ़ना कतई पसंद नहीं। तुम मेरी नींद डिस्टर्ब करती हो।"
"डिस्टर्ब होती है तो मुँह दूसरी ओर करके सो जाया करो। तुम कई बार रात को इतनी देर से आती हो, चीजें इधर से उधर पटकती हो। मैंने तो कभी शिकायत नहीं की।"
"लेकिन मैं शिकायत कर रही हूँ...। जब तक मैं कमरे में हूँ तुम रात देर तक बत्ती नहीं जला सकती।"
"देखो परीक्षा सिर पर हैं किसी को तो पढ़ाई करनी है।"
"तुम्हें जीनियस बनने का इतना ही शौक है तो अपना कमरा बदल सकती हो। वैसे भी तुम जैसों के साथ एक ही कमरे में रह कर मेरा दम घुटता है।"
निशा एक पल उसे देखती रही फिर मुँह बना कर बोली "प्राब्लम तुम्हे है मुझे नहीं। यह कमरा पहले मेरा है फिर तुम्हारा। तुम चाहो तो कहीं और जा सकती हो।"
एंजी को निशा से ऐसी उम्मीद नहीं थी। वह तो उसे एक दब्बू और कमजोर लड़की समझती थी। यू ब्लैक बास्टर्ड कहती हुई वह आँखें तरेर कर और नथुने फुला कर आगे बढ़ी निशा को चाँटा मारने के लिए। निशा ने बीच रास्ते में ही उसका हाथ पकड़ कर पीछे की ओर मरोड़ दिया। वैसे भी वह जब से इस कमरे में आई है निशा को उसके तेवर ठीक दिखाई नहीं दे रहे थे लेकिन वह इस हद तक गिर जाएगी ऐसी उसे उम्मीद न थी।
एंजी अपना हाथ सहलाते हुए उसकी शिकायत करने के लिए पैर पटकती हुई कमरे से बाहर चली गई।
ऐसी घटनाएँ तो अब निशा के लिए कतई मायने नहीं रखतीं थीं। बचपन से अब तक वह ऐसे ही हादसों से तो गुजरती आ रही है। वह कंधे झटक कर पढ़ने बैठ गई।
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पढ़ते हुए निशा को कँपकँपी लगी तो उसने पास पड़ी शॉल उठा कर अपने चारों ओर लपेट ली। सोचने लगी अभी तो अक्तूबर शुरू ही हुआ है और इतनी ठंड...
अक्तूबर का महीना... यानी शीत ऋतु का आगमन। ठंडी तेज हवाओं का महीना।
अक्टूबर से ही शीत ऋतु के त्यौहारों का भी आगमन आरंभ हो जाता है। उन में से हैलोवीन भी एक है जो ब्रिटेन का एक बहुत ही प्रसिद्ध त्यौहार है। हैलोवीन को लेकर पूरी युनिवर्सिटी में बहुत चहल-पहल है। फैंसीड्रेस पार्टी जो होने वाली है। निशा का यह युनिवर्सिटी में दूसरा वर्ष है। लड़कियों को इस बात की चिंता है कि वह इस पार्टी में क्या पहनेंगी और लड़कों को इस बात की चिंता कि वह लड़कियों को पहचानेंगे कैसे।
निशा के मिलनसार स्वभाव के कारण उसके बहुत से दोस्त बन गए जिनमें से सायमन कुछ खास ही है। निशा और उसके साथियों का पाँच लोगों का ग्रुप है।
सायमन एक आइरिश लड़का है। वह यहाँ इतिहास की डिग्री लेने आया हुआ है। वैसे तो आइरिश लोग जुबान खुलते ही अपने एक्सेंट से पहचाने जाते हैं परंतु सायमन बचपन से ही इंग्लैंड के एक शहर लिवरपूल में रहता है इस लिए उसकी भाषा पर आइरिश लहजे का अधिक प्रभाव दिखाई नहीं देता।
जैकलीन... जिसे प्यार से सब जैकी बुलाते हैं एक फ्रेंच लड़की है जो सायकॉलोजी में डिग्री कर रही है। अलका पंजाबी है और मॉनचैस्टर से लेस्टर युनिवर्सिटी में पढ़ने आई है और पाँचवाँ साथी किशन कारडिफ... वेल्स से है। इन सब के पढ़ाई के विषय चाहे अलग हैं किंतु यह हमेशा साथ देखे जाते हैं और एक दूसरे का पूरा ख्याल रखते हैं।
देखा जाए तो ब्रिटेन चार टापुओं में बटा हुआ है... इंग्लैंड, आयरलैंड, स्कॉटलैंड और वेल्स। जैसे इंगलिश लोगों को आइरिश, स्कॉटिश और वैल्श लोग पसंद नहीं वैसे ही यह लोग भी इंगलिश लोगों को दूर ही रखते हैं। खेल के मैदानों में चारों की अपनी टीम आती हैं जिनका आपस में मुकाबला भी होता है। इन चारों टापुओं को इकट्ठा मिला कर ही बनता है ग्रेट-ब्रिटेन। कोई भी पढ़ने के लिए किसी भी युनिवर्सिटी में जा सकता है जहाँ बच्चे शीघ्र ही एक दूसरे से घुल-मिल जाते हैं...
शाम की हैलोवीन पार्टी को लेकर पूरी डीमॉटफर्ट युनिवर्सिटी के छात्र उत्सुक हैं...
"निशा आज शाम की पार्टी में कौन सी ड्रेस पहनने वाली हो?" चलते चलते अलका ने पूछा जिसे सुन कर सायमन के कान खड़े हो गए।
"यार... यदि बता दिया तो पार्टी का सारा आकर्षण ही खत्म हो जाएगा।"
"मुझे तो ठीक से यह भी नहीं मालूम कि हैलोवीन मनाते क्यों है..." अलका ने अपनी अज्ञानता को छुपाने का बिल्कुल भी प्रयत्न नहीं किया।
"चलो इस इतिहास के जीनियस से पूछते हैं कि हैलोवीन क्यों मनाई जाती है रास्ता भी अच्छे से कट जाएगा।" किशन की पीछे से आवाज आई।
"हैलोवीन के विषय में तो यहाँ का बच्चा बच्चा जानता है किशन। यह बता कर कौन सा तीर मार लेगा..." निशा ने सायमन को छेड़ा...।
"ऐसी बात है तो चलो तुम ही बताओ..." सायमन तुनक के बोला।
"क्या यह तुम्हारा चैलेंज है या... " निशा ने सायमन के सुर में ही पूछा।
"चैलेंज ही समझ लो...।"
"ऐसी बात है तो सुनो... तुम भी क्या याद रखोगे... निशा सिर ऊँचा करके बताने लगी... हैलोवीन सदैव 31 अक्टूबर को ही आती है। दुकानें कुछ समय पहले से ही खास इस त्यौहार की चीजों से भर जाती हैं जैसे चेहरे पर लगाने वाले भिन्न-भिन्न मुखौटे, पोशाकें, बच्चों को आकर्षित करते हुए खिलौने आदि। यह त्यौहार केवल ब्रिटेन में ही नहीं अमरीका के साथ-साथ और भी बहुत से देशों में मनाया जाता है। त्यौहार कोई भी हो बच्चे उसका भरपूर मजा उठाते हैं फिर ये त्यौहार तो है ही खास सायमन जैसे बच्चों के लिए।"
"हाँ... आगे बोलो... सहायता की आवश्यकता हो तो बता देना।" सायमन चिढ़ कर बोला।
निशा को सायमन को चिढ़ा कर बड़ा मजा आ रहा था। सायमन की ओर देखते हुए उसे जीभ दिखा कर वह आगे बताने लगी... "सायमन अगर तुम्हें ना मालूम हो तो बता दूँ कि करीब हर त्योहार उस समय की फसल से संबंधित होता है। अक्तूबर के महीने में छोटे बड़े पीले रंग के कद्दुओं की फसल तैयार हो जोती है। उस दिन लोग बच्चों के लिए कद्दू खरीदते हैं। इन कद्दुओं में तेज चाकू से मनुष्य के मुखाकार के छेद किए जाते हैं। कद्दू के ऊपरी भाग से एक गोलाकार टुकड़ा काट कर उस के अंदर का सारा गूदा बाहर निकाल लेते हैं जो पकवान वगैरह बनाने के काम आता है। जब कद्दू अंदर से खोखला हो जाता है तो अँधेरा होते ही उसमें दिया या जलती मोमबती रख कर ऊपर से यह कटा हुआ गोलाकार टुकड़ा रख देते हैं जो तेज चलती हवा से मोमबती बुझ न जाए। कद्दू को घर के अंदर नहीं दरवाजे के बाहर रखते हैं। जो मनुष्य के मुखाकार के छेद उस पर किए होते हैं मोमबती की रोशनी उन में से छन कर बाहर निकलती है और देखने में वह कद्दू बड़ा भयानक लगता है। ऐसे जगमगाते हुए कद्दू हैलोविन के दिन करीब हर घर के बाहर मिलते हैं जिसका अभिप्राय होता है घर में सुख शांति होना और बुरी आत्माओं को बाहर निकालना।"
"तुम एक बात भूल गई निशा घर से बाहर तो बच्चे निकलते हैं उस दिन अँधेरा होते ही चेहरों पर मुखौटे लगा कर लोगों को डराने के लिए।"
"हाँ सायमन घर-घर में दस्तक दे कर बच्चे पूछते हैं "ट्रिक या ट्रीट"। यानी आप हमें कुछ देंगे या हम अपनी शैतानियों से आपको डराएँ या उल्लू बनाएँ। लोग प्रसन्नता पूर्वक बच्चों को चॉकलेट, बिस्कुट, पैसे आदि देते हैं। इस दिन आतिशबाजी भी खूब चलती है और पार्टी का दौर भी होता है। कभी-कभी कुछ शैतान बच्चे मस्ती के लिए बड़े बुजुर्गों को डरा कर मजा लेते हैं। इस प्रकार शीत ऋतु के आगमन का स्वागत किया जाता है...।"
सायमन बड़े ध्यान से निशा की बातें सुनते हुए बोला... "कमाल है निशा... हैलोवीन के विषय में इतने विस्तार से तो मुझे भी नहीं मालूम था जब कि यह हमारा ही त्यैहार है जिसे मैं बचपन से मनाता आ रहा हूँ। हम तो केवल यही जानते हैं कि इस दिन लोगों को डरा कर मजा किया जाता है।"
"जी हाँ... यह बताने के लिए कि हम भी इसी देश के नागरिक होने के नाते यहाँ की हर चीज में रुचि व उसका ज्ञान रखते हैं।"
"हूँ... मान गए देवी जी। अब आज्ञा हो तो युनिवर्सिटी की ओर प्रस्थान करें।"
"हैलोवीन तो बहुत कुछ हमारे पंजाब के त्यौहार लोहड़ी से मिलता है..." चलते हुए अलका बोली जो पंजाबी है।
"अच्छा लोड़ी में क्या करते हैं अलका...?"
"लोहड़ी भी सर्दियों का त्यौहार है। इस में भी बच्चे घर-घर जा लोहड़ी गा कर माँगते हैं। शाम को सारा घर परिवार पड़ोसी रिश्तेदार एक स्थान पर इकट्ठे होते हैं। लकड़ियाँ जला कर अग्नि पूजा होती है। क्यों कि यह भी शीत ऋतु का त्योहार है इस लिए तिल, रेवड़ी, मूँगफली आदि जो सर्दियों की चीजें हैं खाई जाती हैं। अग्नि के चारों ओर गाना-बजाना एवं खाना-पीना रात देर तक चलता है।"
"क्या बात है अलका... हैलोवीन दीवाली से भी तो मिलता है जो भारत का अहम त्यौहार है। दीवाली से पहले नर्क-चौदस आता है जिसमें घर की साज-सज्जा करके एक जलता दीपक घर के बाहर रखते हैं। जो कि अंधकार पर उजाले का प्रतीक है।"
"देखा जाए तो यह सब त्यौहार कितने मिलते जुलते हैं।" बातें करते हुए सब युनिवर्सिटी तक पहुँच गए।
यहाँ डीमॉटफर्ट युनिवर्सिटी के विद्यार्थियों में भी हैलोवीन का उत्साह देखने वाला है। शाम को एक फैंसीड्रेस पार्टी है जिसका सब को बहुत समय से इंतजार था। तरह तरह के कपड़ों और मुखौटों से पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ है। हर कोई एक दूसरे को पहचानने की कोशिश कर रहा है। सब लोगों ने मुखौटा ही नहीं लगाया हुआ बल्कि आवाज बदलने का भी प्रयत्न किया जा रहा है। यही आज की प्रतियोगिता है। अंत तक जो नहीं पहचाना जाएगा वह विजेता होगा।
नजरें मिलते ही सायमन निशा को पहचान कर अपनी खुशी ना रोक पाया और जोर से चिल्लाया, "निशा..."
"ऊँ... सायमन... सारा मजा किरकिरा कर दिया।" इस प्रकार निशा और सायमन दोनों प्रतियागिता से बाहर हो गए।
निशा जाकर दोस्तों का हाथ बँटाने लगी। मेज पर खाने-पीने के पकवानों से मेज सजी हुई है। चारों ओर बस मस्ती का माहौल है। निशा अपने दोस्तों के साथ मिल कर सबको खाने पीने का सामान परोसने लगी। सायमन दूसरे दोस्तों के साथ मिल कर खाने में जुट गया।
जैसे शीत ऋतु अपना रंग दिखा रही थी वैसे ही पढ़ाई भी जोर पकड़ रही थी। बहुत से विद्यार्थी दूसरे देशों से भी पढ़ने के लिए आए हुए हैं जिन्हें यहाँ की भाषा, तौर-तरीके समझने में थोड़ा समय लग रहा है। प्रत्येक देश का अपना रहन-सहन व भाषा होती है। चाहे अंग्रेजी भाषा सब पढ़ कर आते हैं किंतु जिस देश के लोग बोलते ही नहीं सोचते भी अंग्रेजी में हों तो उन का ऐक्संट समझने में थोड़ी मुश्किल तो होती है।
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आज डीमॉटफर्ट युनिवर्सिटी में छात्र ही नहीं प्रोफेसर और पूरा स्टाफ भी बहुत खुश है। आखिर सिद्ध करने का समय आ ही गया जिसके लिए लेस्टर शहर इतना प्रसिद्ध है। लेस्टर को हैरिटेज सिटी के नाम से भी जाना जाता है। कुछ समय पहले डीमॉटफर्ट युनिवर्सिटी और लेस्टर सिटी कॉंउंसल ने मिल कर एक प्रोजेक्ट की शुरुआत की थी। पैसे ना होने के कारण यह प्रोजेक्ट आगे नहीं बढ़ पाया था। दोनों के काफी प्रयत्नों के पश्चात ब्रिटेन के लॉटरी फंड ने इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर पैसे देने की मंजूरी दे दी है।
यह प्रोजेक्ट पूरा करने के लिए रिसर्चर्स बहुत समय से काम कर रहे हैं। जिसमें विशेषकर लेस्टर के शहरी और ग्रामीण इलाकों की पुरानी इमारतों को नष्ट होने से बचाना है। ब्रिटेन के कई ऐसे मशहूर फूल हैं जैसे बल्यु बैल्स, कॉरनेशन, जंगली पॉपी आदि जो अब समाप्ति की कगार पर हैं उन्हें बचाना व कैनाल्स के किनारे उन्हें लगाना जो लेस्टर निवासी कश्तियों में घूमने के साथ साथ इन फूलों व वाइल्ड लाइफ का भी भरपूर आनंद उठा सकें। जहाँ फूल होंगे वहाँ तितलियाँ भँवरे भी होंगे, चिड़ियाँ भी आएँगी। यह दिखाने के लिए कि पैसों का उपयुक्त प्रयोग किया जा रहा है साथ में इसके विडियो भी तैयार किए जा रहे हैं जो आने वाली पीढ़ी भी इस कार्य में थोड़ा भाग ले और इस प्रोजेक्ट को और आगे बढ़ाए।
लेस्टर की लायब्रेरीस में बहुत पुरानी लेस्टर हैरीटेज की पुस्तकें मिलती हैं। इतिहास के छात्र ही नहीं आम लोग भी इतिहास में रुचि रखने वाले इन पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इन पुस्तकों की सहायता से अपना फेमिली ट्री बना रहे होते हैं। लेस्टर की उपजाऊ जमीन भी यहाँ के हैरीटेज का एक भाग है। जगह-जगह अलॉटमैंट्स मिलती हैं जहाँ लोग प्रसन्नता से खेती बाड़ी करते मिलते हैं। अलॉटमैंट जमीन का एक टुकड़ा होता है। जिसे लोग या तो खरीद लेते हैं या खेती करने के लिए किराये पर ले लेते हैं। जहाँ फल और सब्जियाँ उगाई जाती हैं। यही फल और ताजा सब्जियाँ यहाँ की खुली मार्किट में बिकती हैं।
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तीन चार दिन की बारिश और हवाओं के पश्चात आज मौसम थोड़ा खुल गया है। जब सूरज देवता अपनी प्रसन्नता दिखाने लगें तो घरों में बैठना किसे अच्छा लगता है। शनिवार के दिन को निशा और उसके साथी कैसे चूक सकते हैं। सब घूमने के लिए निकल पड़े। बेलग्रेव रोड पर अचानक इतनी सारी बत्तियाँ देख कर सब दोस्त हैरान हो गए। "निशा यह तीन चार दिन में ही बेलग्रेव रोड पर इतनी बत्तियाँ कैसी। क्रिसमस में तो अभी करीब दो महीने बाकी हैं।"
"यह क्रिसमस से पहले हमारी दीवाली की तैयारियाँ हो रही हैं।"
"दीवाली?"
"हाँ, जैसे आप क्रिश्चियन लोगों के लिए क्रिसमस बहुत बड़ा त्योहार है वैसे ही हम भारतीयों के लिए दीवाली है। क्यों कि लेस्टर में बहुत भारतीय रहते हैं। वह भी इस देश के नागरिक हैं। यहाँ की इकोनोमी को बढ़ाने में उनका का भी पूरा सहयोग है तो अपना त्योहार भी तो वह यहीं मनाएँगे।"
"दीवाली भी क्या क्रिसमस की तरह मनाई जाती है निशा…?"
त्यौहार कोई भी हो खुशियाँ ले कर आता है। यहाँ लेस्टर में दीवाली से करीब दस दिन पहले से ही बेलग्रेव रोड को रंग-बिरंगी बत्तियों से सजाना प्रारंभ कर देते हैं।
दीवाली के ठीक आठ दिन पहले एशियन कम्युनिटी के सबसे बड़े बुजुर्ग को आमंत्रित करके उनके हाथों इन बत्तियों का बटन दबवाया जाता है। जिसके दबाते ही पूरा बेलग्रेव रोड जगमगा उठता है। उस दिन एक मेले का माहौल होता है। दुकानें देर रात तक खुली रहती हैं। आवागमन पर रोक लग जाती है। पूरे बेलग्रेव रोड पर किसी भी वाहन को आने की इजाजत नहीं होती।
सुबह से ही सड़क को बंद कर दिया जाता है। लेस्टर के लॉर्ड मेयर व अन्य कई जानी मानी बड़ी हस्तियाँ दिखाई देती हैं उस दिन। गाना-बजाना, आतिशबाजी और रौनक मेला देखने के लिए लोग पूरे ब्रिटेन से ही नहीं बल्कि योरोप से भी लोग आते हैं यहाँ की दीवाली देखने के लिए। आतिशबाजी का कार्यक्रम बेलग्रेव रोड के पीछे ही एक बड़े से पार्क कोसिंग्टन पार्क में रखा जाता है। यहाँ उस दिन पैर रखने की भी जगह नहीं मिलती। ऐसा ही माहौल सप्ताह बाद दीवाली वाले दिन भी देखने को मिलता है। उस दिन युवा लोग हाथ में लाल गुलाब ले कर अपनी महबूबा से प्यार का इजहार करते हैं। यह बेलग्रेव रोड की बत्तियाँ नव वर्ष तक यूँही रोशन रहती हैं।"
"क्यों किशन तैयार हो फिर दीवाली के दिन यहाँ आने के लिए..." सायमन ने किशन को कंधा मारते हुए पूछा... "यार हम भी लाल गुलाब लेकर आएँगे उस दिन।"
"हाँ तुम्हें तो कोई बहाना और मौका चाहिए अपने दिल की बात कहने के लिए... हम किस से कहेंगे?" किशन अलका की ओर देखते हुए बोला।
"वो भी ढूँढ़ लेंगे तुम इतने मायूस क्यों होते हो... क्यों अलका..."
"मुझे तुम लोगों की बातें समझ में नहीं आतीं..." कह कर अलका आगे निकल गई।
त्यौहार तो आते जाते रहेंगे परंतु यह समय यदि हाथ से निकल गया तो पलट कर वापिस नहीं आने वाला। निशा अपनी नानी की सीख को हमेशा पल्ले से बाँध कर रखती है। हमारे बड़े सोच समझ कर ही कुछ कहते हैं।
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दो दिन के बाद क्रिसमस की छुट्टियों के लिए युनिवर्सिटी बंद हो रही है।
युनिवर्सिटी का तो अपने समय पर बंद होना समझ में आता है क्योंकि कड़ी मेहनत करने वाले छात्रों के मस्तिष्क को भी थोड़ा विश्राम चाहिए। छुट्टियों के पश्चात छात्र ताजा दिमाग ले कर वापिस आते हैं जो आते ही उन्हें परीक्षा का सामना करना होता है।
परीक्षा की घड़ी बच्चों के सामने ही नहीं ब्रिटिश सरकार के सामने भी आकर खड़ी हो गई।
पिछले कई वर्षों से सरकार उतरी समुंदर से गैस निकालने के प्रयोगों में जुटी हुई है। वहाँ से कुछ अच्छे संकेत मिलते ही कर्मचारी अपनी सफलता पर खुश होकर एक दूसरे से हाथ मिला कर बात करने लगे...
"आज कई वर्षों के कठिन परिश्रम के पश्चात सफलता की किरण दिखाई दी है। वादे के अनुसार अब सरकार से हमें बड़ा बोनस भी मिलना चाहिए।"
"बोनस मिलने की खुशी में यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कितनी ही कोयले से भरी खदाने भी बंद हो जाएँगी। माइनर्स बेरोजगार होकर घर बैठ जाएँगे। हमारे बाप दादा जो इतने गर्व के साथ सुबह सबेरे झोला लटका कर काम पर जाते हैं उनका क्या होगा।"
"अरे भई कारखाने थोड़े ही बंद हो जाएँगे। वैसे भी यहाँ काम की कमी नहीं बस मेहनत करने का जज़्बा होना चाहिए।"
वही हुआ जिसका डर था। सरकार ने चलती हुई खदानों को बंद करना आरंभ कर दिया। वहाँ काम करने वाले मजदूर सकपका गए। जब उनकी नौकरी पर आन पड़ी तो वे दुहाई लेकर यूनियन के पास पहुँचे। यूनियन के आग्रह पर भी सरकार की ओर से ना तो खदानों के ताले खोले गए और ना ही वहाँ काम करने वाले मजदूरों की सुनवाई पर ध्यान दिया गया।
यूनियन कहाँ चुप बैठने वाली थी। उनके कहने पर अपने मजदूर भाइयों का साथ देने के लिए एक साथ पूरे ब्रिटेन के माइनर्स अपने औजार रख कर खदानों से बाहर आ गए। एक आध शहर के नहीं पूरे देश के माइनर्स हड़ताल पर चले गए। सरकार को अकस्मात बहुत बड़ा धक्का लगा। यह 80 के दशक की बात है।
ऐसी ही एक हड़ताल पहले भी 70 के दशक में भी हुई थी जो कि सात सप्ताह तक चली थी। उसने सरकार का तख्ता हिला दिया था। जब सारे कारखाने, बिजली घर, स्टील इंडस्ट्री आदि पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा था। ऊर्जा के लिए सारी इंडस्ट्रीस कोयले पर ही निर्भर करती थीं। कोयले की खानों में काम करना कोई आसान काम नहीं था। काली, अँधेरी धूल से भरी सुरंगों के द्वारा धरती के कई फुट नीचे जा कर कोयला कूट कर लाना जिस काम को लोग प्रसन्नता पूर्वक करते थे। जिस कार्य को मन लगा कर किया जाए वह कभी मुश्किल नहीं लगता। वैसे भी यहाँ काम करने वालों के पास कभी काम की कमी न थी। मेहनताना भी बहुत अच्छा मिलता था। सबसे बड़ी बात उनको घरों में जलाने के लिए कोयला मुफ्त में मिलता तो लोगों का प्रसन्न होकर कोयले की खदानों में काम करना स्वभाविक ही था।
यह हड़ताल महँगाई भत्ता बढ़ाने के लिए थी। काम मंदा पड़ गया। सारा प्रोडक्शन रुकने लगा। जब कोई और विकल्प समझ में नहीं आया तो सरकार ने माइनर्स यूनियन के सामने घुटने तो टेक दिए मगर कुछ सोचने पर भी मजबूर हो गई।
मजबूरी कहो या जरूरत... उत्तरी समुद्र से जो कच्ची गैस निकालने के प्रयोग हो रहे थे उसमें आशा की किरणें दिखाई देते ही काम ने तेजी पकड़ ली। अंदर ही अंदर राजनीति की बातें चलने लगीं। राजनीति में तो अंग्रेजों का वैसे ही कोई मुकाबला नहीं कर सकता। जगह जगह गैस के लिए पाइप लाइन बिछाने के लिए जमीन में खुदाई का काम आरंभ हो गया।
आखिर इतनी मेहनत और पैसा खर्चा करके ब्रिटिश सरकार ने समुद्र से गैस निकाल ही ली...। गैस निकलते ही धीरे-धीरे कोयले की खदानों को बंद करने की योजनाएँ बनाई जाने लगीं...।
"अरे यह हमारी खदान के बाहर इतनी भीड़ कैसी...। क्या हुआ भाई तुम लोग अंदर काम करने क्यों नहीं जा रहे।"
"ये दरवाजे के सामने बड़ा ताला देखते हो... और साथ में ही यह नोटिस... सरकार ने यह कह कर खदान को बंद कर दिया है कि इसमें अब कोयला नहीं है और नुकसान पर जाती खदान का खर्चा वह नहीं उठा सकते।"
"अच्छा... अभी कल तक तो खदान कोयले से भरी हुई थी... ये रातों रात कैसे खाली हो गई। यह सब सरकार की चाल है। समुद्र से गैस जो निकल आई है। हम सरकार को मनमानी नहीं करने देंगे। चलो यूनियन के पास। सरकार उन्हीं की भाषा समझती है।"
मजदूर बातें करते रह गए और सरकार ने कुछ और खदानों को नुकसान पर दिखा कर तुरंत बंद करने की आज्ञा दे दी जिसमें लेस्टर के पास के छोटे गाँवों की खदानें भी थीं। परिणाम स्वरूप वहाँ पर काम करने वालों को घर बैठना पड़ा। सरकार अब नई निकली गैस को पूरे प्रयोग में लाना चाहती थी।
एक के बाद एक खदान बंद होने से माइनर्स में अफरा-तफरी मचने लगी। इस बार देश के नेता यूनियन को दिखाना चाहते थे कि देश किसके दम से चल रहा है। जब सरकार ने यूनियन की किसी माँग पर भी ध्यान नहीं दिया तो मजदूरों को वापिस काम देने की माँग पर देश के 187-000 माइनर्स एक साथ हड़ताल पर चले गए।
हड़ताल भी ऐसी जो ब्रिटेन के इतिहास की सबसे बड़ी हड़ताल मानी जाती है।
कारखाने अभी भी उर्जा के लिए कोयले पर निर्भर कर रहे थे। गैस का कारखानों व घरों तक पहुँचने में अभी कुछ समय था। खदानों से कोयला आना बंद हो गया... कोयला कारखानों तक न पहुँचने से वहाँ काम करने वालों पर भी इसका अच्छा खासा दुष्प्रभाव दिखाई देने लगा। सरकार के लिए भी यह एक बहुत बड़ी परीक्षा की घड़ी थी। य़ूनियन की बात ना मान कर सरकार ने कारखानों में पाँच के स्थान पर तीन दिन का सप्ताह घोषित कर दिया। ऑर्डर समय पर भेजना असंभव हो गया। कई छोटे कारखाने दिवालिए हो गए। लोग सहायता के लिए सरकार का दरवाजा खटखटाने लगे। दिनों दिन बेरोजगारी बढ़ने से सारा बोझ वैलफेयर स्टेट को उठाना पड़ा।
कारखानों तक ही यह बात समाप्त नहीं हुई। घरों में भी बिजली व पानी पर राशन कर दिया गया। सरोज घबराई हुई काम से घर आई...
"सुनिए जी मैं काम पर से यह क्या सुन कर आ रही हूँ... घरों में भी बिजली पानी पर रोक लगाई जा रही है। पानी के बिना घर का काम कैसे होगा।"
"कुछ तो करना ही पड़ेगा ना सरोज। यह केवल हमारे लिए ही नहीं पूरे देशवासियों के लिए है। तीन चार घंटे को जब पानी आए तो भर कर रख लेंगे। बाथरूम में प्रयोग के लिए टब भर लेंगे और पीने व घर के अन्य कामों के लिए बालटियाँ भर कर रख लेना।"
"हाँ याद रहे बिजली पर भी राशन होने वाला है तो पहले से ही बहुत सी मोमबत्तियाँ खरीद लें तो अच्छा है जो बाद में कोई परेशानी ना हो। मैं भी दुकान पर अच्छा खासा स्टॉक इकट्ठा कर लूँगा क्या पता कब किसको आवश्यकता पड़ जाए। और देखो कोयले की भी अगली सप्लाई का कोई भरोसा नहीं है। जब बहुत आवश्यक हो तभी कमरे में अँगीठी जलाना।"
"देखिए ना बैठे बिठाए एक और मुसीबत आ गई। अब दोष यूनियन को दो या सरकार को पिसता तो बेचारा गरीब ही है।"
"इसमें पूरा देश शामिल है सरोज केवल हम ही नहीं। भलाई इसी में है कि चुपचाप जो मिल रहा है उसी में गुजारा करते जाओ।"
"हाँ... इसके अलावा और कोई चारा भी तो नहीं..."
माइनर्स यूनियन की शायद यह सबसे बड़ी भूल थी। यूनियन के कार्यकर्ताओं ने तो सोचा था कि कुछ ही समय में सरकार उनकी माँगें पूरी करके उनके सामने पहले के समान झुक जाएगी। इसी होड़ में हड़ताल बारह सप्ताह तक खिंची जिसका भरपूर नुकसान कोयला इंडस्ट्री को उठाना पड़ा। जब काम नहीं करेंगे तो वेतन भी नहीं मिलेगा। बेरोजगार लोग परिवार की मामूली आवश्यकताएँ भी पूरी करने में असमर्थ हो गए थे। मकान की किश्तें न भर पाने के कारण मकान भी बिकने लगे। हार कर माइनर्स को हड़ताल तोड़नी ही पड़ी।
हड़ताल समाप्त हो जाने से भी माइनर्स के पास काम नहीं था। कारखानों और घर-घर में गैस के आते ही सरकार ने कई कोयले की खदानों को बंद करने का ऐलान कर दिया। चाहे वो खदाने कोयले से भरी हुईं ही क्यों न थी। इस बार बाजी सरकार के हाथ में थी। यूनियन पर से लोगों का विश्वास उठ गया। जिस यूनियन पर कभी उन्हें नाज हुआ करता था उसी यूनियन को अब वह अपने बेरोजगार होने का दोषी ठहराने लगे।
जब बुरे दिन आते हैं तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता। काम करने वालों की छँटाई आरंभ हो गई। जहाँ पहले हाथ जोड़ कर लोगों को काम पर बुलाया जाता था वहीं अब मजदूरों को भी वह चुन चुन कर रखने लगे। कोई कुछ न कर पाया। ऐसे में नुकसान उद्योगपतियों का नहीं मजदूरों का होता है। सरकार खुश थी कि अब कारखानों में ही नहीं घर-घर में गैस पहुँचने लगी थी। कोयले के मुकाबले में गैस से काम करना साफ और सस्ता लगने लगा...
कुछ युवा आपस में बात कर रहे थे... "चलो एक काम तो हमारी सरकार ने अच्छा किया जो समुद्र से गैस निकाल ली। अब घर भी साफ सुथरे मिलेंगे और सुबह उठते ही कोयले से अँगीठी जलाने के लिए हाथ भी गंदे नहीं होंगे।"
"पर यार... यह भी तो सोचो हमारे बाप-दादाओं के पास काम नहीं है। जो सुबह सबेरे कितनी शान से काम पर जाते थे अब वही मायूस से सिर झुका कर घर बैठे रहते हैं। काम ना होने से बीमारियाँ भी जल्दी पकड़ती हैं।"
"हाँ यह बात तो तुमने सही कही... यह नहीं कि केवल माइनर्स ही घर में बैठे हों इन खदानों के साथ जुड़े कितने ही और काम भी बंद हो गए हैं। छोटे रेल स्टेशन जहाँ कोयला इधर से उधर ले जाने का काम मालगाड़ियों द्वारा किया जाता था खामोश खड़ी हैं। जब कोयला ही निकलना बंद हो गया तो स्टीम इंजन व मालगाड़ियों की आवश्यकता भी नहीं रही। लेस्टर की कैनालस जो आवागमन के लिए मशहूर हुआ करती थीं उनका प्रयोग भी अब नहीं के बराबर रह गया है। इस हड़ताल का प्रभाव पूरे देश में दिखाई दे रहा है।"
क्या करें सरकार के फैसले के आगे कोई कुछ बोल भी तो नहीं सकता। अब तो यूनियन भी असहाय दिखने लगी है। हम खुश हैं कि हमारे पास काम है। कोई जाकर उनसे पूछो जिनके छोटे बच्चे हैं। कैसे सरकार द्वारा दिए गए थोड़े से पैसों में वह गुजारा कर रहे हैं...।"
हड़ताल लंबी खिंच जाने की वजह से सारा काम ठप्प हो गया। आर्डर खत्म कर दिए गए। घाटे पर चलते कारखाने एक एक करके बंद होने लगे। चोरी-चकारी अपराध बढ़ने लगे। गोरे लोगों को एशियंस पर गुस्सा निकालने का कारण मिल गया। अपनी बेरोजगारी का सारा दोष वह इन पर डालने लगे। आए दिन कोई न कोई घटना होती रहती। एशियंस के पास अधिकतर अपना व्यापार था, दुकानें थीं, रेस्तराँ थे... वे कुछ भी काम करने को तैयार थे, उनके पास अपने घर थे। अंग्रेजों का सारा गुस्सा उन पर व उनके बच्चों पर उतरने लगा।
वैलफेयर स्टेट बेरोजगारों के बोझ तले दबती नजर आई। चाह कर भी सरकार एशियंस को उनके देश वापिस न भेज सकी। जब लोगों के पास काम नहीं, रहने को घर नहीं तो सरकार को सहायता देनी ही पड़ी। थोड़े पैसों में परिवार को पालना लोगों की मजबूरी हो गई। परिवार की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए लोगों ने खुली मार्केट का रुख किया और सस्ते से सस्ता सामान ढूँढ़ने लगे जो विदेशों से आ रहा था।
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आज बहुत दिन के पश्चात माँ बेटी मार्केट का चक्कर लगाने निकलीं कि अचानक शैली की नजर एक कारडिगन पर पड़ी...
"जेनेट रुको... ऐसा ही कारडिगन हमने लिटलवुड्स में देखा था ना। देखो जरा उसके और इसके दाम में कितना अंतर है।"
"पर मॉम वो कारडिगन ब्रिटिश मेक है... और लिटलवुड्स यहाँ की एक जानी मानी कंपनी भी है।"
"उससे क्या फर्क पड़ता है बेटा... चीज बिल्कुल वैसी और दाम आधे... अब पहले जैसा समय नहीं रहा। जेब में पैसे हों तो इनसान नखरे भी कर लेता है। भई मैं तो ले रही हूँ। जेनेट यह कमीज देखो कितनी अच्छी है जेसन के लिए।"
"मॉम आप तो जानती हैं जेसन को। वह मोहर पहले देखता है चीज बाद में पहनता है।"
"अब बच्चों को भी अनकी आदतें बदलनी होंगी। उनका डैड घर में बेरोजगार बैठा है। जेब में दमड़ी नहीं और बने साहूकार..."
वही लोग जो पहले ब्रिटेन की मोहर देख कर ही सामान खरीदते थे अब उनके सामने भी मरता क्या न करता वाली कहावत सिद्ध होने लगी। विदेशी सस्ते माल के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ने लगा। ये सामान अधिकतर भारत, चीन, श्रीलंका आदि देशों से आ रहा था। ब्रिटेन के बने माल की कीमत घटने लगी और बाहर से आए माल की माँग बढ़ने लगी। यह विदेशों से आया सामान सस्ता ही नहीं बल्कि हर प्रकार से ब्रिटेन में बनी चीजों के सामने भी खरा उतर रहा था।
चीजों के दाम के मामले में मुकाबले की कोई बात नहीं थी। एशिया से ही नहीं इटली से अच्छे और सस्ते चमड़े के जूते भी लोग बहुत पसंद कर रहे थे। इटली से आने वाले जूतों से लेस्टर की मशहूर चमड़े के जूतों की कंपनी "हश पप्पी" को भारी धक्का लगा। जब लोगों ने इतने महँगे जूते खरीदने बंद कर दिए तो हश पप्पी को अपना जन्म स्थान लेस्टर छोड़ना पड़ गया।
लेस्टर की मार्केट यहाँ की सबसे प्रसिद्ध और ब्रिटेन की सबसे पहली मार्केट है। इसकी प्रसिद्धि इस बात से भी साबित होती है कि ब्रिटेन की रानी जब भी लेस्टर आती हैं मार्केट का चक्कर जरूर लगाती हैं। लेस्टर और उसके आस-पास के गाँवों की जमीन बहुत अच्छी होने के कारण यहाँ खेती-बाड़ी भी काफी होती है। यहाँ पर उगाई गए ताजा फल, फूल, सब्जियाँ तो मार्केट में बिकने के लिए आती ही हैं साथ में दूसरे देशों से भी आए हुए विभिन्न प्रकार के फल और सब्जियाँ यहाँ पर मिलती हैं।
लेस्टर एक बहुजातीय और धर्मों का शहर है। यहाँ यदि एशिया से आए लोग मिलते हैं तो अफ्रीका और योरोप से आए चेहरे भी दिखाई देते हैं। यही कारण है कि यहाँ पर संसार के हर कोने से आया हुआ सामान मिलता है। दूसरे शहरों में खुली मार्केट सप्ताह में दो या तीन दिन लगती है परंतु लेस्टर में यह मार्केट सातों दिन खुली मिलती है।
सातों दिन तो यहाँ के पब और रेस्तराँ भी खुले मिलते हैं। एशियंस ने यहाँ के रेस्तराँ को एक नई डिश दी है "चिकन करी"। वैसे देखा जाए तो एशियंस के खाने में करी कोई नाम नहीं है। हाँ कढ़ी उन के रसोइघरों में जरूर बनती है जो दही और बेसन से बनाई जाती है। करी शब्द का आविष्कार ब्रिटेन में ही हुआ है जिसे मुर्गे और एशियन मसालों से बनाया जाता है। तभी से करी पाउडर भी आया। करी पाउडर भी सारे सूखे मसालों का मिश्रण है। चिकन करी चावल और नान ब्रिटेन का विशेष और सबसे अधिक मशहूर खाना है। चिकन करी अब केवल रेस्तराँ या पब तक ही सीमित नहीं रह गई। यह इतनी प्रसिद्ध हो गई है कि गोरों के रसोईघरों की भी शोभा बनने लगी है।
दूसरे देशों से अब आसानी से फल और सब्जियाँ आने के कारण ब्रिटेन में खाने पीने की प्रत्येक प्रकार की सुख सुविधाएँ उपलब्ध होने लगीं।
एक वह समय भी था जब कोई इक्का-दुक्का भारतीय ही ब्रिटेन में पढ़ने के लिए आता था। उसे यहाँ बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। सबसे प्रमुख रंग का भेद-भाव, फिर भाषा का, संस्कृति का, रहन सहन का, खाने पीने का आदि। विशेषकर शाकाहारी लोगों को सबसे अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। खाने में दाल जैसी चीज भी उपलब्ध नहीं थी। 70 के दशक के पश्चात सब कुछ बदल गया। अब भारतीयों से अधिक ब्रिटेन निवासी एशियन खाने को पसंद करते हैं। पहले लहसुन की महक मात्र से वह दूर भागते थे अब लहसुन की विशेषताएँ जानने के पश्चात घर-घर में उसी लहसुन का प्रयोग मिलने लगा है। घरों में प्रतिदिन प्रयोग होने वाला सामान सुपरमार्केट में ही नहीं खुले बाजारों में भी भरपूर और सस्ता मिलता है।
एक ओर खुले बाजारों का व्यापार बढ़ रहा था तो दूसरी और सुपर मार्केट में बढ़ोती होने के कारण छोटी दुकानों को भारी नुकसान हो रहा था। धीरे-धीरे छोटी दुकानें ही नहीं बड़ी कंपनियाँ भी बंद होने लगीं।
एक पूँजीपति कभी घाटे का सौदा नहीं करता। उन्हें केवल अपनी तिजोरियों से मतलब होता है। जब ब्रिटेन में कंपनियाँ घाटा दिखाने लगीं तो उन्होंने थर्ड वर्ड देशों का रुख किया जहाँ मजदूरी कम देकर अधिक से अधिक काम निकाला जा सकता था। बड़े उद्योगपतियों ने भारत चीन आदि देशों में अपने कारखाने खोल लिए। इसके परिणाम स्वरूप जहाँ ब्रिटेन में बेरोजगारी और बढ़ गई वहीं भारत और चीन आदि देशों में लोगों को काम मिलने लगा। अब उन्हीं कंपनियों का माल कम दामों में तैयार होकर वापिस ब्रिटेन और योरोप जैसे देशों में मुनाफे पर बेचने में उन्हें कोई झिझक महसूस न हुई।
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झिझक की तो बात ही छोड़ो... किसी चीज की नकल करने में भारत और चीन का जवाब नहीं। वहाँ ऐसे-ऐसे कारीगर बैठे हैं जो मात्र एक नजर किसी चीज को देख कर फौरन वैसी नहीं तो मिलती-जुलती बना कर सामने रख देंगे। इसका जीता-जागता उदाहरण नोटिंघम के काखाने में तैयार की गई नोटिंघम लेस है। लेस्टर से 20-25 मील की दूरी पर मिडलैंड्स का एक और प्रसिद्ध शहर नोटिंघम है जो अपनी दो चीजों से विशेषकर पहचाना जाता रहा है। यहाँ के कारखानों में बनी सुप्रसिद्ध "नोटिंघम लेस" और "रोबिन हुड का शेरवुड कॉसल"।
यहाँ की सूती और रेशम के धागों से बनी लेस और उसकी महीन कारीगरी देखते ही बनती थी। छोटे रूमाल से लेकर खिड़कियों के पर्दे तक इस लेस से बनते थे जिसे खरीदना आम आदमी के बस की बात नहीं थी। पूरे योरोप में इसकी कारीगरी की धाक थी। यहाँ काम करने वालों को वेतन भी बहुत अच्छा मिलता था। माइनर्स की हड़ताल के पश्चात नोटिंघम लेस के कारखाने पर भी इसका प्रभाव पड़ा।
जब काम नहीं होगा तो पैसे नहीं, जब पैसे नहीं होंगे तो लोग महँगी वस्तुएँ भी नहीं खरीद पाएँगे।
एशिया के लोगों ने इस मौके का भरपूर लाभ उठाया। चीन के पास ऐसे कारीगर हैं जिन्होंने इस लेस की नकल कर के वैसी ही महीन लेस की वस्तुएँ बनानी प्रारंभ कर दीं। यह वस्तुएँ देखने में खूबसूरत और दाम में बहुत कम थी। अब ऐसी लेस की वस्तुएँ घर-घर की शोभा बनने लगीं। नोटिंघम का लेस कारखाना चीन का मुकाबला न कर पाया क्योंकि यहाँ के अंग्रेज मजदूर कम वेतन पर काम करने को तैयार न हुए। परिणाम यह निकला कि नुकसान पर चलते कारखाने में सदा के लिए ताला लग गया।
ताला नहीं लगा तो नोटिंघम के प्रसिद्ध आकर्षण शेरवुड फॉरेस्ट व रोबिनहुड कॉसल में, जो आज भी प्रयटकों को आकर्षित करता है। विशेषकर बच्चों को। बच्चे वैसे ही कपड़े पहन कर स्वयं को किसी रोबिनहुड से कम नहीं समझते।
"अपने बेटे के साथ नोटिंघम कॉसल में घूमते हुए एनी ने पूछा... निकोलस बेटा आपने रोबिनहुड के कपड़े तो पहन लिए हैं क्या आप रोबिनहुड के विषय में जानते हैं कि वह कौन था और क्या करता था...।"
"जी मम्मा आज कल हम रोबिनहुड के विषय में ही पढ़ रहे हैं। हमारी टीचर ने रोबिनहुड की एक बहुत पुरानी कहानी संक्षेप में बताई है। टीचर ने कहा है कि पहले रोबिनहुड कॉसल देख कर आओ। वह कुछ प्रश्न पूछेंगी फिर विस्तार से कहानी सुनाएँगी।"
"अच्छा... रोबिनहुड के विषय में तो बहुत सी कहानियाँ प्रचलित हैं। आपकी टीचर ने आपको कौन सी कहानी सुनाई है।"
"वही जिसमें रोबिनहुड और उसके साथी शेरिफ को चकमा देकर शेरवुड जंगल की गुफाओं में जाकर छुप जाते हैं। मम्मा आपको आती होगी यह कहानी सुनाइव ना..."
"हूँ यह रोबिनहुड की सबसे प्रसिद्ध कहानी है। मुझे आती तो है किंतु आपको यह कहानी टीचर से ही सुननी चाहिए और बच्चों के साथ मिल कर।"
"नहीं मम्मा सुनाइए ना..." निकोलस ने मचलते हुए कहा तो माँ को कहानी सुनानी ही पड़ी...
"तो सुनो... पुरानी कहानियाँ बताती हैं कि नोटिंघम शहर का सबसे प्रसिद्ध बेटा रोबिनहुड, उस समय के हीरो का निवास स्थान शेरवुड के जंगल थे। वैसे तो रोबिनहुड और उसके साथियों का अपना संगीत का बैंड था। यह लोग नए गाने लिखते भी थे और धुनों का आविष्कार भी किया करते थे। शेरवुड के जंगलों में बहुत ही सुंदर व आकर्षित दृश्य मिलते हैं। घना जंगल जिसमें फैले हुए "ओक" यानी "बलूत" के बड़े घने पेड़ मिलते हैं। इन पेड़ों पर उन्हीं की डालियों से बने छोटे-छोटे घर हैं जहाँ पर शायद रोबिनहुड और उसके साथी रहा करते थे। सैंकड़ों वर्ष पुरानी गुफाएँ हैं जो कहीं घने पौधों से ढकी हुई हैं तो कहीं चट्टानों से।"
"मम्मा मुझे भी वो शेरवुड के जंगल देखने हैं। वो गुफाएँ देखनी हैं। हम कब चलेंगे... क्या मैं अपने कुछ दोस्तों को भी साथ ले जा सकता हूँ।"
"देखो निकोलस आप की कक्षा के सारे बच्चे यदि मिल कर टीचर से कहेंगे तो वह शायद आपकी कक्षा को शेरवड के जंगल दिखाने ले जाए।"
"ठीक है मम्मा मैं कल ही स्कूल जाकर अपने दोस्तों से बात करूँगा। अच्छा मम्मा आप कहानी सुना रहीं थी ना...।"
"हाँ तो... रोबिनहुड के विषय में कई कहानियाँ प्रचलित हैं। जिनमे सबसे पुरानी व प्रसिद्ध कहानी है कि रोबिनहुड एक बागी था। वह अपने साथियों के साथ अमीरों को लूट कर सारा धन गरीबों व जरूरतमंदों में बाँट देता था। उसको और उसके साथियों को पकड़ना कोई आसान काम नहीं था क्यों कि उनका निवास स्थान शेरवुड के जंगल थे। वहाँ के निवासी उनका ठीकाना जानते हुए भी कभी जुबान नहीं खोलते थे। वह जंगल का ही नहीं उनका भी राजा था। रोबिनहुड व उसके साथी अमीरों को लूटते जरूर थे किंतु कभी कोई मार पीट नहीं करते थे। जब लोगों की शिकायत पर उस समय के नोटिंघम के शेरिफ के आदमी रोबिनहुड और उसके साथियों को पकड़ने आते तो वह जंगल में बनी गुफाओं में छुप जाते।"
"उनको कितना मजा आता होगा ना मम्मा। मैं भी बड़ा हो कर रोबिनहुड बनूँगा और अपने साथियों के साथ जंगल में छुपन-छुपाई का खेल खेलूँगा।"
"जंगल कोई खेलने का स्थान नहीं होता बेटा उसमें गुम भी हो सकते हैं। हाँ तो फिर एक दिन रोबिनहुड और उसके साथी शेरिफ और उसके आदमियों से बचते हुए गाँव की ओर निकल आए। गाँव वासियों ने उन्हें इशारे से घरों के अंदर छुपने को कहा और सब अपने कामों में ऐसे व्यस्त हो गए जैसे कुछ जानते ही न हों।
"ऐ... रोबिनहुड और उसके साथी भागते हुए इसी तरफ आए हैं क्या तुममें से किसी ने उन्हें देखा है..." शेरिफ की कड़कती आवाज आई।
"कौन रोबिनहुड... जॉन तुमने देखा है किसी रोबिनहुड को..."
"नहीं..." और जॉन अपने अगले साथी से पूछने लगा... उसका साथी और अगले आदमी से पूछने लगा...।
"खामोश... बेवकूफ समझ रखा है तुम लोगों ने हमें... शेरिफ गुस्से से बोला... मैं जानता हूँ कि तुम सब मिले हुए हो। चाहूँ तो अभी तुम्हारे घरों की तलाशी ले सकता हूँ।"
"उसके लिए आपको हमें तलाशी के कागजात दिखाने होंगें..." इतने में एक बच्चा रोते हुए अंदर से आया... "मम्मा भूख लगी है..." यह भी एक इशारा था कि रोबिनहुड और उसके साथी जंगल में भाग गए हैं।
"अरे भूख तो हमें भी लगी है। सब ने एकदम काम रोक दिया। शेरिफ हमारे पास जो थोड़ा रूखा-सूखा है आप भी आइए खा लीजिए..."
"हूँ... आज तो तुम और तुम्हारा रोबिनहुड बच गया अगली बार देखूँगा..."
"अगली बार तलाशी के कागजात लाना नहीं भूलना शेरिफ..." पीछे से आवाज आई।
शेरिफ और उसके साथी पैर पटकते हुए हमेशा की तरह वहाँ से खाली हाथ लौट गए।
रोबिनहुड व उसके साथी सदा हरे रंग की ही पोशाक पहनते थे। इस हरे रंग के कारण वे शेरिफ और उसके आदमियों से बचने के लिए जंगल के घने पेड़ों पर बैठ कर ऐसे लगते जैसे पेड़ का ही एक हिस्सा हों। बहीं से वह तीर कमान के साथ शेरिफ व उसके आदमियों की धुनाई करते थे। पेड़ों पर छुपने के लिए उनकी हरे रंग की पोशाक बहुत सहायक सिद्ध होती थी। यह पोशाक जो उन्हें पूरी तरह से ढके होती। जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है कि सिर को माथे तक ढकने के लिए हुड यानी कि कमीज के साथ ही सिली हुई टोपी जो गर्दन से ले कर सिर को माथे के नीचे तक ढक दे।
"मम्मा मैं भी रोबिनहुड के जैसे कपड़े पहन कर उसके समान बहादुर बनूँगा।"
"बेटा कपड़े पहनने से ही कोई बड़ा आदमी नहीं बन जाता। उसके लिए खूब पढ़ना पड़ता है। चलो अब मैं आपको रोबिनहुड कॉसल दिखाती हूँ..."
रोबिनहुड के नाम से ही नोटिंघम शहर के बीचो बीच रोबिनहुड कॉसल है जिसमें रोबिनहुड का पूरा इतिहास छुपा है। उस समय के कपड़े, हथियार, बर्तन, तसवीरें, गहने आदि देखने को मिलते हैं। पर्यटकों को आकर्शित करने के लिए कॉसल के बाहर ही रोबिनहुड का तीर कमान पकड़े हुए बड़ा सा स्टेचू हैं जिसने हरे रंग के कपड़े पहने हुए हैं। इस रोबिनहुड के स्टेचु के साथ खड़े हो कर बच्चे ही नहीं बड़े भी तसवीर खिंचवा कर गर्व महसूस करते हैं।
"मम्मा रोबिनहुड के साथ मेरी फोटो भी खींचिए ना मैं अपनी टीचर और दोस्तों को दिखाऊँगा।"
निकोलस ने रोबिनहुड के साथ खूब तसवीरें खिंचवाईं। तीर कमान पकड़ कर वह स्वयं को किसी रोबिनहुड से कम नहीं समझ रहा था। बाहर तसवीरें लेने के पश्चात वो नोटिंघम कॉसल देखने गए।
कॉसल के दरवाजे के अंदर पाँव रखते ही आकाश को छूने के लिए सिर उठाए बड़े घने पेड़ चारों ओर अपनी बाँहें फैलाए सब आने वालों का स्वागत करते मिलते हैं। रंग-बिरंगे बगीचों में खिलते हुए फूल अपनी महक से लाखों तितलियों, भौंरों और पक्षियों को अपनी ओर आकर्षित करते हुए पर्यटकों का मन भी रिझाते हैं। यहाँ पर भी जंगल का माहौल बनाने का प्रयत्न किया गया है जिसका अनुभव करने के लिए दूर दूर से बच्चे आते हैं। कॉसल के अंदर ही दुकानें हैं। रोबिनहुड के समय की स्मारिकाएँ और बच्चों के लिए तीर कमान व और भी खेलने का सामान मिलता है। यादगार के लिए लोग एक दूसरे की तसवीरें उतारते दिखाई देते हैं।
तसवीरें तो नोटिंघम की ट्रॉम गाड़ियों की भी लोग खींचते हैं। यह ट्रॉम गाड़ियाँ भी नोटिंघम के आकर्षणों में से एक है। कैसे शहर के बीचो-बीच यह ट्रॉम चल रही होती हैं।
जब से नोटिंघम के आस पास की कोयले की खदानें बंद हुई हैं काफी मात्रा में काम की तलाश में नोटिंघम के लोग अपने पास के गाँवों व लेस्टर की ओर आने लगे। लेस्टर से नोटिंघम का फासला अधिक न होने के कारण आवागमन के लिए लोगों को किसी प्रकार की दिक्कत का सामना भी नहीं करना पड़ता।
दिक्कतें तो छोटे दुकानदारों की बढ़ गईं यह सुन कर कि सरकार ने चौबीसों घंटे ही नहीं बल्कि रविवार को भी सारी सुपर मार्किट खोलने का कानून पास कर दिया है। इन सुपर मार्किट में केवल खाने पीने का ही नहीं बल्कि घर का हर छोटा बड़ा सामान बड़े अच्छे दामों पर बिकता है। कुछ सुपर मार्किट में तो सिले सिलाए हर प्रकार के प्रत्येक ऋतु के कपड़े और सस्ते जूते भी बिकते हैं। अच्छा साफ सुथरा रेस्तराँ जहाँ गर्मा-गर्म मनपसंद खाना खा सकते है। जब सब कुछ एक ही छत के नीचे मिल जाए तो कोई दूसरी दुकानों में क्यों जाएगा।
छोटी दुकानें इन बड़ी सुपर मार्किट का मुकाबला करने में अस्मर्थ दिखाई देने लगीं। धीरे धीरे यह कोने की दुकानें ही नहीं बल्कि और भी छोटे व्यापार बंद होने लगे। विरोध में लोगो ने अपनी आवाज भी उठाई और काफी तर्क भी सामने रखे परंतु किसी की एक न चली। सरकार की ओर से प्रत्येक तर्क का एक ही जवाब था कि इससे बहुत से लोगों को नौकरियाँ मिलेंगी और वेलफेयर पर भी बोझ थोड़ा कम होगा।
चर्च के पादरियों ने भी सरकार के इस फैसले के विरुद्ध अपना सुझाव रखा कि एक रविवार का दिन ही तो है जब लोग परिवार के साथ चर्च में आते हैं। यदि रविवार को भी लोग काम पर जाएँगे तो चर्च भी बंद हो जाएँगे। बच्चों के धार्मिक शिक्षा से वंचित हो जाने से अच्छे बुरे का ज्ञान भी कम हो जाएगा। परंतु जब सरकार किसी बात को ठान लेती है तब असके सम्मुख प्रत्येक तर्क व्यर्थ साबित होता है। बस फिर क्या था बड़े मगर छोटी मछलियों को निगल गए। सब से अधिक कठिनाइयों का सामना पचास से ऊपर की आयु के लोगों को करना पड़ा। काम करने के लिए युवा जनसंख्या जो बढ़ रही थी।
कारखाने में पीस वर्क करके सरोज थक गई थी। घाटे पर जाती दुकान को देख कर वह चाह कर भी अपनी नौकरी ना छोड़ सकी।
ये चाहना न चाहना यदि आदमी के बस में हो तो वह इनसान कहलाना बंद कर देगा। सब कुछ अपने ही हाथ में होता तो लोग अच्छे जीवन की तलाश में दर-दर क्यों भटकते। माता पिता तो यही सोच कर संतुष्टि कर लेते हैं कि जो कष्ट उन्होंने सहे उस से बच्चे दूर हैं। तभी तो वह बिना कोई शिकायत किए आगे बढ़ते जाते हैं। बस यही पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आता है। शायद इसी को विधि का विधान कहते हैं।
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समय की रफ्तार तो एक ही रहती हैं परंतु मनुष्य कभी धीमे और कभी तेज गति से उसके साथ कदम मिलाने के प्रयास में जुटा रहता है। जिसमें कभी वह अपनी सफलता पर इतराता है और कभी असफल हो कर मायूस हो जाता है।
निशा का युनिवर्सिटी में यह अंतिम वर्ष है। सब छात्र छात्राएँ अच्छे अंकों में पास होने के लिए जी-जान से परिश्रम कर रहे हैं। अंतिम वर्ष में ही विद्यार्थी नौकरियों के लिए अर्जी डालना आरंभ कर देते हैं। बस सब का यहाँ इतना ही साथ होता है। अलग होते ही कुछ दोस्त सदा के लिए अलग हो जाएँगे और कुछ दूर हो कर भी दोस्ती निभाते रहते हैं। जहाँ एक ओर डिग्री मिलने की खुशी है तो वहीं बिछुड़ने का दुख भी कम नहीं होता।
"निशा अब तो हमारे बिछुड़ने का समय भी करीब आ रहा है। भई मुझे तो सोच कर ही कुछ होने लगता है..." अलका ने अंदर आते हुए कहा।
"अरे यार हम युनिवर्सिटी छोड़ कर जाएँगे दुनिया तो नहीं। छुट्टियाँ तो काम करते हुए भी सब को मिलेंगी।"
"छुट्टियाँ तो मिलेंगी परंतु दूरियों में वो बात नहीं रहती..."
"वैसे निशा तुमने और सायमन ने क्या सोचा है।" सारे दोस्त जानते हैं कि आज कल निशा और सायमन की नजदीकियाँ काफी बढ़ रही हैं। बढ़ती भी क्यों न। जब निशा को जर्मन मीजल्स निकले थे उस समय सायमन और अलका ने उसका कितना ख्याल रखा था।
जर्मन मीजल्स जिसे भारतीय भाषा में खसरा बोलते हैं इसमें शरीर पर छोटे-छोटे दाने निकल आते हैं जैसे किसी को खुजली हो गई हो। इसके निकलने से शरीर के कुछ विशेष जोड़ों में जैसे हाथ की कलाइयाँ, घुटने व पैरों के जोड़ों में दर्द होने लगता है। दोस्तों ने कालेज में किसी को भी कानों-कान खबर न होने दी नहीं तो शायद निशा को उसके घर या हस्पताल भेज दिया जाता। दिन रात साथ होने के कारण निशा और सायमन की दोस्ती बढ़ने लगी जो दोस्तों की निगाहों से छुपी नहीं थी।
***
पतझड़ का मौसम शुरू हो गया था। पतझड़ का मतलब तेज ठंडी हवाएँ। अभी से सर्दी ने अपना रंग दिखाना आरंभ कर दिया था। जहाँ गर्मी के दिनों में रात के दस बजे तक दिन रहता है वहीं सर्द मौसम में तीन बजे से ही आकाश पर कालिमा छाने लगती है...। ब्रिटेन में वर्ष में दो बार यहाँ की घड़ियों का समय एक घंटा आगे पीछे होता रहता है। मार्च के अंतिम सप्ताह में बसंत ऋतु आने से पहले घड़ियों को एक घंटा आगे कर दिया जाता है और दूसरा शीत ऋतु के शुरू होने से पहले यानी अकतूबर के अंतिम सप्ताह में घड़ियाँ एक घंटा पीछे कर दी जाती हैं। ऐसा सारे विश्व की घड़ियों के साथ चलने के लिए ही किया जाता है। तभी ब्रिटेन में शीत ऋतु में अँधेरा बहुत लंबा लगता है।
युनिवर्सिटी पाँच दिनों के लिए बंद होने वाली थी। इन्हीं छुट्टियों के बीच ही गाय फोक्स नाइट भी पड़ रही थी जो पाँच नवंबर को आती है। गाय फोक्स नाइट या बोन फायर नाइट ब्रिटेन का एक ऐतिहासिक त्यौहार है जो पटाखों के शोर में मनाया जाता है। पाँच दिनों की छुट्टियाँ हों और निशा घर न जाए यह तो हो ही नहीं सकता। निशा के सब दोस्तों ने यह छुट्टियाँ साथ मिल कर बिताने की सोची।
"सुना है निशा कि लॉफ़्बरो युनिवर्सिटी में बोन फायर नाइट के दिन पटाखों के साथ और भी बहुत कुछ होता है। क्यों न हम सब मिल कर ये छुट्टियाँ तुम्हारे शहर लॉफ़्बरो में मनाएँ। इन आखिरी छुट्टियों की कुछ यादें भी साथ रहेंगी।"
"क्यों नहीं निशा चहक कर बोली... मम्मा के हाथ का बना हुआ गर्मा गर्म खाना भी खाएँगे और लॉफ़्बरो और आस पास के गाँवों में भी घूमेंगे।"
"मैं शर्त लगा कर कह सकता हूँ कि तुम में से ठीक तरह कोई भी नहीं जानता होगा कि गाय फोक्स नाइट क्यों मनाई जाती है..." पीछे से सायमन की आवाज आई।
"हाँ क्योंकि हम में से किसी ने भी ब्रिटेन का इतिहास नहीं पढ़ा..." निशा तुनक कर बोली।
"तो भई फिर यह जीनियस कब काम आएगा। हम केवल सुंदर शक्ल ही नहीं रखते अकल भी रखते हैं..." सायमन भी उसी अंदाज से बोला।
"अब तुम दोनों एक दूसरे की टाँग ही खींचते रहोगे या आगे भी बढ़ोगे।" किशन की आवाज आई।
"देखो मैंने थोड़े दिन पहले ही इस के विषय में पढ़ा है। दिमाग में सब कुछ ताजा तरीन है। यदि कोई थोड़े प्यार से पूछेगा तो शायद माबदौलत तुम सब के साथ इतिहास की कुछ बातें साझा कर लें...।" सायमन निशा की ओर देखते हुए बोला।
"अब तुम ज्यादा भाव मत खाओ वैसे मैं भी बहुत कुछ जानती हूँ इस विषय में। वह तो हम सब यूँ ही तुम्हें झाड़ पर चढ़ा देते हैं यह सोच कर कि तुम इतिहास के विद्यार्थी हो।"
"चलिए अगर आप सब इतना कह रहे हो तो बता देता हूँ..." उसने निशा की ओर देख कर आँख मारी।
देखो यह एक बहुत पुरानी 16वीं सदि की बात है... सायमन अपनी कमीज के कॉलर को सीधा करते हुए कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया और अध्यापकों के अंदाज में बताते हुआ बोला..."
यदि मेरी याददाश्त ठीक से काम कर रही है तो यह शायद सन् 1603 की बात है जब प्रशासन के जुल्मों से तंग आ कर 13 युवा लोगों ने हॉउस ऑफ पारलियामेंट को उड़ाने की साजिश रची। यह वो समय था जब पहली रानी एलिजबेथ की मृत्यु हुई थी। पहली रानी एलिजबेथ की मृत्यु के पश्चात कुँवर "जेम्स" को राजा धोषित कर दिया गया। उस समय इंग्लैंड की गद्दी को रोमन केथोलिक से बचाने का यही एक रास्ता सब को दिखाई दिया।
"वैसे कितनी अजीब सी बात है कि स्वयं को इतना सभ्य समझने वाले देश में भी धर्म के नाम पर झगड़े होते रहते हैं।"
"धर्म तो सदा से ही झगड़े का कारण रहा है अलका। ब्रिटेन में हमेशा से ही दो धर्म मानने वाले पाए जाते हैं केथोलिक और प्रोटेस्टियन। प्रोटेस्टियन की संख्या अधिक होने के कारण इनका दबदबा केथोलिक्स पर रहा है। नए राजा जेम्स की माँ केथोलिक परिवार से थी इस लिए केथोलिक धर्म के लोगों ने सोचा कि शायद यह राजा उनके साथ थोड़ी नर्मी से पेश आए। परंतु उनकी सोच से भिन्न यह राजा और अधिक जालिम सिद्ध हुआ। केथोलिक्स पर अत्याचार और भी बढ़ गए।
हमारे बड़े बुजुर्ग सही कह गए हैं कि जब जुल्मों की इंतहा होती है तब बागी उत्पन्न होते हैं। इन जुलमों से सदा के लिए छुटकारा पाने के लिए एक रॉबर्ट कैटस्वी नामक युवक ने सिर उठाया। वह एक योजना बनाने लगा जिसमें 13 और युवक भी शामिल हो गए। इन सब ने मिल कर योजना बनाई कि क्यों न पूरे हाउस ऑफ पार्लियामेंट को राजा जेम्स, प्रिंस ऑफ वेल्स के साथ साथ मुख्य नेताओं को भी उड़ा दिया जाए। बस फिर क्या था योजनानुसार गोला बारूद के ड्रम इकट्ठे करने शुरू कर दिए गए। यह सारा गोला बारूद वहीं पार्लियामेंट के सैलर में ही छुपाने की सोची।"
"मगर वहाँ के सैलर में ही क्यों। सैलर में आते जाते उन्हें कोई देख लेता तो पकड़े जाने का भी डर था..." किशन के मन में सवाल उठा।
"देखो किशन चोर चोरी का सामान यदि थानेदार के घर में छुपा दे तो सामान वहाँ सुरक्षित रहेगा। ऐसे ही सैलर की ओर किसी का ध्यान भी न जाता और बारूद भी सुरक्षित रहता।"
"इसका मतलब ये खुराफाती दिमाग हर जमाने में पाए गए हैं।"
"हाँ..." अब आगे बढ़ें, सायमन हाथ के इशारे से किशन को चुप करा कर बोला... "जहाँ कुछ लोग इस पार्लियामेंट को उड़ाने वाली बात से बहुत उत्सुक दिखाई दे रहे थे, वहीं उनका एक सदस्य मासूमों का खून बहाने के पक्ष में नहीं था। जब उसने दबी आवाज में अपना पक्ष सबके सामने रखा तो उसकी बात को कायरता बता कर बाकी के सदस्य उसका मजाक उड़ाने लगे। उसके दिल ने मासूमों के खून खराबे की गवाही न दी। उसने चुपचाप से राजा और उसके साथियों को सावधान करने के लिए एक पत्र लिख डाला। वह पत्र सीधा राजा जेम्स के हाथों लगा। इस प्रकार इतना बड़ा अनर्थ होने से पहले ही रॉबर्ट कैटस्वी व उसके साथियों को पकड़ कर उन्हें मृत्यु दंड देकर सारा गोला बारूद भी सैलर से बरामद कर लिया गया।
उस भले इनसान का क्या हुआ जिसने देश को इतने बड़े कांड से बचाया था सायमन...
गेहूँ के साथ तो घुन भी पिस जाता है ना किशन। मृत्यु दंड तो उस भले इनसान को भी सहना पड़ा जिसने इतने बड़े अनर्थ से देश को बचाया था। कभी बुराइयों का नाश करने के लिए अच्छाइयों को भी कुर्बानी देनी पड़ती है।
वह पाँच नवंबर का दिन था। पूरे देश ने उस दिन जश्न मनाया। तब से प्रत्येक वर्ष पाँच नवंबर को पटाखों के शोर में इस दिन को मनाया जाता है। जिसका नाम रखा गया "गाय फोक्स नाइट"। "गाय" यानी एक इनसान "फोक्स" का मतलब उसके साथी। पाँच नवंबर से दो-तीन दिन पहले ही बच्चे रॉबर्ट कैटस्वी का एक पुतला बना कर लोगों से चंदा इकट्ठा करते हैं। फिर शाम को इस पुतले को जला कर पटाखों द्वारा खुशी प्रकट की जाती है। जगह जगह आतिशबाजी के तमाशे होते हैं जिस की खुशी में हर आयु के लोग शामिल होते हैं।"
"मैं यह भी बता दूँ कि गाय फोक्स नाइट हमारे भारतीय त्यौहार दशहरे से बहुत मिलता जुलता है।"
"दशहरे में क्या होता है निशा?"
"दशहरा भारतीय त्यौहार दीवाली के करीब बीस दिन पहले आता है। जब पुरुषोतम राम और रावण के महायुद्ध में श्री राम द्वारा रावण का वध किया गया था। ऐसे ही प्रत्येक वर्ष भारतवासी भी रावण का पुतला बना कर जलाते हैं और खुशियाँ मनाते हैं। उस दिन भी जगह जगह आतिशबाजी के करतब दिखाए जाते हैं। त्यौहार किसी भी देश का क्यों न हो मतलब सब का एक ही है, बुराई पर अच्छाई की विजय। बुराई कितना भी सिर क्यों ना उठा ले, अंत में विजय हमेशा अच्छाई की ही होती है। हिंदी में मनाएँ या अंग्रेजी में त्यौहार कोई न कोई संदेश दे कर ही जाता है।"
"निशा ये अपने अहं त्यौहार दीवाली के विषय में भी कुछ बताओ कि यह क्यों मनाई जाती है।"
"यह एक लंबी कहानी है वापिसी में लेस्टर जाते हुए रास्ते में बताऊँगी।"
"चलो भई यह नाटक समाप्त हुआ। अब सब मुँह खोले देखते ही रहोगे या आगे का भी कुछ प्रोग्राम करें" सायमन हँसते हुए बोला।
"देखा, पढ़ाई का ये फायदा होता है..." निशा सायमन को चुटकी काट कर बोली।
"तभी तो कहता हूँ बच्चों समय बर्बाद मत करो। मेरी तरह कुछ बनना है तो... हाँ हाँ बोलो..." सब लोग अपनी बाँहें चढ़ा कर आगे बढ़े तो सायमन डरने का ढोंग करते हुए वहीं कुर्सी पर बैठ गया। एक ठहाका कमरे में गूँज उठा।
इस प्रकार लड़कों के साथ हँसी ठट्ठा करते व खुले आम घूमते देख कर निशा की माँ कुछ सोचने पर मजबूर हो गई। जमाने के साथ चलते हुए माता पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा तो देते हैं परंतु साथ ही उन्हें अपने पुराने ख्याल और संस्कारों में भी बाँध कर रखना चाहते हैं। जिस प्रकार हालात के अनुसार नई पीढ़ी बदलती है माता पिता नहीं बदल पाते। तभी यह जनरेशन गैप भी बढ़ता जाता हैं।
सरोज यह अच्छी तरह से जानती है कि बेटी आधुनिक ख्यालों की है। युवा खून है। घर से बाहर रहती है। माना कि उसके संस्कार उसे कोई गलत कदम नहीं उठाने देंगे
परंतु इस बदलते समय का कुछ तो प्रभाव उस पर भी होगा। सरोज यही सोच कर अपने दिल को तसल्ली देने लगी कि बस कुछ महीनों की ही तो बात है। जैसे ही डिग्री ले कर निशा घर आएगी अपनी ही बिरादरी में कोई अच्छा सा लड़का देख कर वह बेटी की शादी कर देगी।
यह एशियंस की हर सोच लड़की की शादी तक ही सीमित क्यों रह जाती है। क्या शादी ही हर मसले का हल होता है। आज के जमाने में लड़कियाँ इतनी सक्षम हो गई हैं कि कई बार शादी शब्द उनके शब्दकोश में ही नहीं मिलता।
माँ को किन्हीं ख्यालों में खोए देख कर निशा जल्दी से बोली... "मॉम आपको याद है न आज गाय फोक्स नाइट है। मेरे सारे दोस्त खास उसी को देखने तो लेस्टर से लॉफ़्बरो आए हैं। आज मैं इनको दिखा ही दूँ कि हमारा लाफ़्बरो नक्शे पर जरूर छोटा है किंतु कारनामें बहुत बड़े करता है।"
"हाँ, हाँ ठीक है ज्यादा इतराओ मत" पीछे से सायमन की आवाज आई।
"देखो बच्चों तुम फिर शुरू मत हो जाना," माँ ने मजा लेते हुए कहा, "हाँ तो निशा तुम क्या कह रही थी।"
"मॉम हम लोग रात को खाना नहीं खाएँगे बस चाय के साथ नाश्ते में थोड़े पोहे और थेपले बना देना इन सब को भी बहुत पसंद है। आप जब भी मेरे लिए कुछ भेजती हैं तो ये लोग सब खा जाते हैं।"
"अच्छा ठीक है मैं ज्यादा भेज दिया करूँगी..." माँ ने रसोई में जाते हुए कहा।
"आंटी थोड़े सी वो राउंड थिंग भी...।" सरोज जाते हुए फिर रुक गई और पलट कर निशा की ओर देख इशारे से पूछने लगी कि सायमन क्या बोल रहा है।
"माँ वो पकोड़े इन लोगों को बहुत पसंद हैं..." निशा थोड़ा झेंपते हुए बोली।
सब ने डट कर सरोज के हाथ का बना हुआ नाश्ता खाया।
"मॉम हमें रात को काफी देर हो सकती है आप हमारा इंतजार मत करिएगा मेरे पास घर की चाबी है। वैसे मॉम नानी कहीं दिखाई नहीं दे रहीं। वह अपने कमरे में भी नहीं हैं। उनकी तबियत तो ठीक है न।"
"हाँ बेटा तुम्हारी नानी अपनी एक सहेली के पास दो तीन दिन के लिए गई हुई हैं। सहेली की तबियत कुछ ठीक नहीं है उसी की सहायता करने गई हैं। वैसे बा के लिए भी अच्छा है। आज कल वे काफी उदास दिखती हैं।"
"आप फिकर मत करिए मॉम बस चार-पाँच महीने की और बात है। परीक्षा समाप्त होते ही मैं नानी को भारत ले जाऊँगी। उनसे वादा है यह मेरा। अच्छा मॉम अब चलती हूँ। सब इंतजार कर रहे हैं।"
जहाँ आतिशबाजी होने वाली है वह मैदान अभी से खचाखच भरा हुआ मिला। हर कोई आगे खड़ा हो कर इस तमाशे का मजा लेना चाहता है। हालाँकि सुबह से ही मिन्न-
मिन्न बारिश हो रही है। मैदान में भी लोगों के चलने से काफी कीचड़ और छोटे छोटे गड्ढे बन गए हैं फिर भी लोग लंबे बूट पहने बच्चों को साथ लिए वहाँ पहुँचे हुए हैं। कुछ ने बच्चों को अपने कंधों पर उठाया हुआ है और कुछ मनचले नौजवानों ने अपनी गर्लफ्रेंड्स को। चारों ओर हँसी खुशी का माहौल है। इतनी सर्दी में भी लोग बड़े धैर्य से आतिशबाजी शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं। आस पास के गाँवों से भी लोग बड़ी संख्या में बच्चों को लेकर यहाँ एकत्रित हैं।
आखिर वह घड़ी आ गई जब लॉफ़्बरो के लार्ड मेयर ने आकर सजे हुए आतिशबाजी के ढेर को चिनगारी दिखाई। चारों ओर शोर से भरी हुई तालियाँ गूँज उठीं। करीब एक घंटे तक आतिशबाजी का तमाशा चलता रहा। सावधानी के लिए मैदान के चारों ओर तारें लगाई गई थी जिससे कोई भी बच्चा उत्सुक हो सबकी नजरें बचा कर पटाखों के पास तक न पहुँच जाए। ब्रिटेन की यही बात तो सबसे अच्छी है कि किसी भी उत्सव का आयोजन शुरू करने से पहले सावधानी का पूरा ख्याल रखा जाता है।
आतिशबाजी का तमाशा समाप्त होते ही सारी भीड़ तितर-बितर होने लगी। बच्चों वालों ने घरों का रुख किया। कुछ लोग पब की ओर चल पड़े। पब ही एक ऐसा स्थान है जहाँ हर उत्सव के पश्चात लोग पहुँच जाते हैं या फिर नाइट क्लब हैं जहाँ निशा के साथी जाना चाहते हैं।
"निशा यहाँ का नाइट क्लब कैसा है?"
"बहुत अच्छा जैसे नाइट क्लब होते हैं..."
"तुम युनिवर्सिटी जाने से पहले कभी नाइट क्लब गई हो?" अलका की आवाज आई।
"हाँ वह मेरा 18वाँ जन्म दिन था। सब हम उम्र दोस्त नाइटक्लब जाने की जिद करने लगे। इससे पहले सभी ने नाइटक्लब के बारे में केवल सुना ही था अंदर से किसी ने भी नहीं देखा था। तब हम सब लोग पहली बार गए थे।"
"तुम्हारी मॉम ने तुम्हें जाने दिया।"
"हाँ यार... जाने तो दिया पर बड़ी मिन्नतों के बाद और वो भी केवल दो घंटे के लिए।"
नाइटक्लब बाहर से जितना शांत लग रहा रहा था अंदर पहुँचते ही चकाचौंध से सब की आँखें चौंधिया गईं। अंदर की दुनिया तो बिल्कुल ही भिन्न थी। सबसे पहली चीज जो उनके नथुनों से टकराई वो था सिगरेट का धुआँ और शराब की गंध। रंग बिरंगी बत्तियाँ जल बुझ रहीं थी। बहुत से युवा जोड़े बाहों में बाँहें डाले नाच रहे थे।
उन नाचते हुए लोगों में अचानक किसी पर नजर पड़ते ही निशा चौंक गई। यह विक्टोरिया स्ट्रीट के सबसे अधिक धार्मिक परिवार की बड़ी बेटी वीणा थी। इतने धार्मिक विचारों वाली वीणा यहाँ, और वो भी इस हाल में। इसके घर में तो बिना आरती किए कोई खाना नहीं खाता। आज पहली बार निशा ने वीणा को इस तरह की पोशाक में देखा था। पोशाक इतनी छोटी थी कि समझना मुश्किल हो रहा था कि पोशाक तन को ढकने की कोशिश कर रही है या तन पोशाक के सामने...
वीणा एक अंग्रेज युवक के बदन से चिपकी नाच रही थी। अब वह नाच रही थी या घर वालों को नचा रही यह तो वही जाने। उस अंग्रेज युवक ने वीणा को जोर से अपने बदन से कस कर उसके होठों का एक भरपूर चुंबन लिया जिसमें वीणा ने उसका पूरा साथ दिया। निशा यह सब देख कर शर्म से गढ़ी जा रही थी। उसकी मॉम तो सदैव वीणा और उसकी छोटी बहन जयश्री का उदाहरण दिया करती हैं कि कितनी संस्कारी और सभ्य लड़कियाँ हैं। काश इस समय मेरी मॉम और वीणा के घर वाले यहाँ होते इस संस्कारी लड़की के तमाशे देखने के लिए।
एकदम डांस के फ्लोर से नीचे उतरते हुए वीणा की निगाह सामने खड़ी निशा पर पड़ी तो वह गिरते हुए बची।
"निशा तुम यहाँ कैसे..." उसने लड़खड़ाई आवाज में पूछा। वीणा की साँसों से शराब की गंध आ रही थी।
"यही तो मैं तुम से पूछने वाली थी कि तुम और यहाँ। वह भी ऐसी हालत में। और हाँ... मिलवाओगी नहीं अपने दोस्त से...।"
"कौन ये... यह मेरा दोस्त नहीं केवल आज के लिए डांस पार्टनर है। मैं तो इसका नाम तक नहीं जानती...। अब तुम भी इस स्थान पर आ गई हो तो धीरे धीरे सब सीख जाओगी।" निशा को स्वयं से घृणा होने लगी कि वह ऐसी जगह आई क्यों। माता पिता इतने शरीफ और बेटियाँ... छीः...
यह सच है कि माता-पिता अपने बच्चों को हर सुख सुविधा दे सकते हैं। अच्छे संस्कार देने की कोशिश करते हैं परंतु आँखों की शर्म और लिहाज एक ऐसी वस्तु है जिसे स्वयं कमाना पड़ता है।
निशा को सोच में देख कर वीणा बड़े प्यार से उसके कंधे पर हाथ रख कर बोली... "निशा अब तुम सब कुछ जान ही गई हो तो प्लीज मेरे घर में किसी से कुछ मत कहना नहीं तो मेरे पापा मुझे मारने से पहले खुद ही मर जाएँगे... और हाँ निशा इस बारे में तुम अपनी मॉम से भी कोई बात नहीं करना।"
"चलो मैं तो अपनी जुबान बंद रखूँगी वीणा लेकिन इतना समझ लो कि लॉफ़्बरो छोटी सी जगह है। आज मैंने तुम्हें इस हालत में देखा है कल किसी और की भी निगाह पड़ सकती है तब क्या होगा। अभी भी समय है कि तुम भी सँभल जाओ और अपनी बहन को भी सँभालो...।"
"मेरी बहन... क्या हुआ जयश्री को।"
"यह तुम उसी से पूछना मेरा काम नहीं है इधर की बात उधर करना।"
"निशा तुम कितनी तकदीर वाली हो जो तुम्हें इतनी अच्छी और समझदार मॉम मिली हैं हमारी माँ तो..."
"यहीं रुक जाओ वीणा... निशा ने उसको बीच में ही टोक दिया...। माता पिता किसी के भी खराब नहीं होते यदि बच्चों के ही कदम बहक जाएँ तो वे बेचारे क्या करें..."
"ऐसी बात नहीं है निशा... तुम्हें क्या मालूम कि हमारे ऊपर दुनिया भर की बंदिशें हैं... ऐसे कपड़े मत पहनों, लड़कों से बात ना करो, लड़कियों के लिए मांसाहारी भोजन खाना पाप है... यहाँ तक कि हमें कच्चा प्याज खाने तक की मनाही है कि कहीं हमारी प्रवृति तामसी ना हो जाए। तुम क्या सोचती हो कि मुझे छुप कर यह सब करना अच्छा लगता है।"
"अच्छा नहीं लगता तो क्यों करती है... उधर तुम्हारी बहन भी... घर से कुछ कपड़े पहन के आती है और स्कूल में कुछ और ही दिख रही होती है। पता नहीं अपनी सिगरेट वाली साँसें वह घर वालों से कैसे छुपाती होगी। वह तुम्हारे से भी दो कदम आगे बढ़ रही है वीणा सँभालो उसे।"
"जानती हो निशा कभी-कभी तो हम दोनों बहनों को तुम्हें और तुम्हारी मॉम को देख कर बहुत जलन होती है। आंटी तुम्हें कितना समझती हैं। तुम्हें भी गोरी लड़कियों के समान ही आजादी है। अभी तुम मात्र 18 वर्ष की ही हुई हो और तुम्हारी मॉम ने तुम्हें नाइट क्लब आने की अनुमति दे दी। मैं 23 वर्ष की हो चुकी हूँ निशा... कहाँ तक अपनी इच्छाओं का दमन करती रहूँ।"
निशा सोचने लगी... आवश्यकता से अधिक बंदिशें भी अपने ही बच्चों को बागी बना देती हैं। डोर उतनी ही खींचनी चाहिए जो टूटे नहीं। इस बदलते माहौल के साथ यदि माता पिता की सोच भी थोड़ी बदल जाए तो उनके साथ बच्चों की जिंदगी भी कितनी सरल हो जाए।
"मैडम यहाँ हम सपनों में खोने नहीं एंजोय करने आए हैं..." सायमन ने निशा की कमर में हाथ डाला और उसका शरीर हवा में लहराते हुए उसे डांस फ्लोर पर ले गया। बस फिर क्या था सबने खूब मस्ती मारी।
रात सब काफी देर से घर आए तो सुबह सोएँगे भी देर तक...।
सरोज की आँख जरा जल्दी खुल गई। उसे मालूम है कि बच्चों ने आज ब्रेडगेट पार्क पिकनिक के लिए जाना है। वह जैसे ही नीचे आई चौंक गई...
अरे यह क्या... ये बच्चे भी न... सब बेडरूम में न जाकर यहीं कालीन पर सो गए। कमरे के एक कोने में दोनों लड़के सायमन और किशन एक कंबल ओढ़े सो रहे हैं और दूसरे कोने में तीनों लड़कियाँ निशा जैकी और अलका दुनिया से बेखबर सोई हुई हैं। सरोज कुछ देर वहीं खड़ी उन बच्चों को देख कर सोचने लगी कैसे गोरे काले सभी बच्चे एक साथ सो रहे हैं। इनके मन में जरा सा भी रंग भेद नहीं है। देखते ही देखते जमाना कैसे बदल रहा है। यह सब बदलने वाली भी हमारी अपनी ही अगली पीढ़ी है। कुछ सोच कर सरोज अंदर तक काँप गई। वह जल्दी से रसोईघर की ओर मुड़ गई। बच्चों के उठने से पहले पिकनिक के लिए आलू पूरी बन जानी चाहिए तब नाश्ते का जुगाड़ करूँगी।
सरोज ने जल्दी से प्रेशर कुकर में आलू डाल कर धोए और उबलने के लिए रख दिए। वह परात में आटा डाल कर गूँधने लगी। आलू अभी उबल ही रहे थे कि उसने नाश्ते के लिए फ्रिज में से अंडे निकाल कर एक कटोरे में उन्हें बारी बारी से तोड़ा और उसमें थोड़ा सा दूध डाल कर हल्का सा फैंट दिया। प्याज हरी मिर्च हरा धनिया काट कर सब चीजों को एक तरफ कर दिया।
आलू उबल चुके थे। सरोज ने एक कढ़ाई में तेल डाल कर गर्म होने के लिए रख दिया। ठंडे पानी का नल खोल कर आलू के कुकर को उसके नीचे रख दिया जो आलू छीलने में आसानी हो। इस समय सरोज के हाथ ऐसे चल रहे थे जैसे वह घर पर नहीं कारखाने में काम कर रही हो। एक बार जो आदत पड़ जाए वह बड़ी मुश्किल से छूटती है। जब तक तेल गर्म होता आलू छिल चुके थे। सरोज ने गर्म तेल में पहले राई डाली। राई आवाज करने लगी तब करी पता कटी हरी मिर्च व कटी अदरक डाल कर सारे सूखे मसाले डाल दिए। मसालों को थोड़ा सा चला कर आई कटे आलुओं की बारी। आलुओं को मसालों में थोड़ा ऊपर नीचे करके एक छींटा पानी का दे उनको हल्की आँच पर पकने के लिए रख दिया जो सारे मसाले आलुओं से लिपट जाएँ।
दूसरे चूल्हे पर एक और कढ़ाई में तेल दाल कर उसे गर्म होने के लिए रख दिया और जल्दी से पूरियाँ बेलने लगी। वह बच्चों के उठने से पहले पिकनिक का सारा सामान तैयार कर देना चाहती थी। दरवाजा बंद होते हुए भी बच्चों के नथुनों में खाने की खुशबू पहुँचने लगी। इस खुशबू ने उनकी नींद में हलचल मचा दी। बारी बारी से सभी उठने लगे। सायमन आँखें खोलते ही बोला...
"वाह क्या खुशबू है। यार कहाँ से आ रही है?"
"लग गई इस बिल्ली को उठते ही भूख..." निशा दबी आवाज बोली।
"क्या कहा तुमने जरा जोर से कहो" सायमन ने झटके से बैठते हुए कहा।
"हजूर मैं यह कह रही थी कि हमारा भारतीय खाना ही ऐसा है कि एक बार जिसकी जुबान से लग जाए वो फिर उसे छोड़ नहीं सकता। फिर खुशबू ऐसी कि जिसे भूख न लगी हो वह भी खिंचा चला आए।"
"जी फिलोसफर साहब मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता... सब लोग फ्रेश हो जाओ तब देखें कि आंटी क्या बना रहीं हैं।"
सरोज ने जल्दी से एक तरफ अंडे की भुर्जी बनाई और दूसरी ओर पराठे सेंकने लगी। सरोज को भी आवाजों से पता चल गया था कि बच्चे जग गए हैं।
मेज तक पहुँचते हुए निशा ने आवाज लगाई... "मॉम आज गुजराती चाय बनाना मसाले वाली एक अरसा हो गया है पिये हुए।" सब लोग आकर नाश्ते पर टूट पड़े साथ में मसाले वाली चाय हो तो खाने का मजा दुगना हो जाता है...
"अब तुम लोग खाते ही रहोगे या चलोगे भी। पहले ही काफी देर हो गई है फिर यह नहीं कहना कि निशा ने अपने शहर में नहीं घुमाया।"
"देख लिया न आंटी अपनी बेटी को ठीक से खाने भी नहीं देती कह कर सायमन ने एक पराठे में आलू भर कर उसे लपेट लिया। इस से पहले कि निशा कुछ और कहती वह खाते हुए कार की ओर भागा।"
पिकनिक का सामान कार में रख कर सभी ब्रेडगेट पार्क की ओर चल पड़े।
"निशा लॉफ़्बरो युनिवर्सिटी नहीं दिखाओगी..." सायमन ने कार को मोड़ते हुए कहा... "मैने अपनी पहली पसंद लॉफ़्बरो युनिवर्सिटी ही भरी थी किंतु जब जगह नहीं मिली तो फिर मुझे अपनी दूसरी पसंद लेस्टर आना पड़ा।"
"भई हमारी लॉफ़्बरो युनिवर्सिटी में इतनी आसानी से जगह नहीं मिलती जीनियस साहब।"
"चलो मेरी तो छोड़ो तुम्हें क्या सूझा जो लॉफ़्बरो छोड़ कर लेस्टर आ गई?"
"मेरे लेस्टर आने के कुछ कारण हैं। शायद तुम लोग सहमत ना भी होवो। यदि मैं लॉफ़्बरो युनिवर्सिटी जाती तो मुझे घर पर ही रहना पड़ता। मैं अपनी मॉम के आँचल से बाहर निकल कर अपने पर फड़फड़ाना चाहती थी। कुछ जिंदगी के नए अनुभव स्वयं करना चाहती थी। घर के आराम से दूर जा कर कुछ सीखना चाहती थी। जो पेरेंट्स के साथ रह कर आप नहीं कर सकते।"
सामने एक बड़ा गेट दिखाई दिया जिस पर लिखा था - लॉफ़्बरो युनिवर्सिटी।
"वाव..." सायमन के मुँह से निकला। गेट के साथ ही एक हल्के नीले रंग का बहुत बड़ा गुंबज सा था जिस पर लिखा था - मलेनियम स्विमिंग पूल...।
"निशा क्या यह वही स्विमिंग पूल है जहाँ ऑलंपिक के तैराक भी अभ्यास करने आते हैं।"
"बिल्कुल ठीक पहचाना। यह ब्रिटेन का सबसे महँगा स्विमिंग पूल है। जहाँ दूर दूर से तैराक अभ्यास करने आते हैं और देखो सामने खुले खेल के मैदान जहाँ हर प्रकार की दौड़ें और खेल होते हैं।"
"हमारी युनिवर्सिटी के मुकाबले में यह काफी बड़ी है।"
"माना हमारा लॉफ़्बरो टाऊन ब्रिटेन के नक्शे पर जरूर छोटा है किंतु इसके कारनामे बहुत बड़े हैं। यह सामने जो इतनी बड़ी बिल्डिंग देख रहे हो ना यह यहाँ का आर्ट कॉलेज है जहाँ देश से ही नहीं विदेश से भी छात्र पढ़ने आते हैं।"
"चलो बहुत हो गया। यहीं घूमते रहे तो बाकी चीजें देखनी रह जाएँगी। फिर मौसम का भी कुछ भरोसा नहीं।"
निशा सायमन को ब्रेडगेट पार्क का रास्ता बताने लगी। दूर से ही उन्हें एक पार्क दिखाई दिया जिसके बीचोंबीच एक महिला का स्टेचू खड़ा है। यह स्टेचू लॉफ़्बरो की शान लेडी जेन ग्रे का है। चाहे वह नौ दिन ही रानी रही थी लेकिन लॉफ़्बरो निवासी आज तक उसे बड़े मान से याद करते हैं कि हमारी रानी और वह भी लाफ़्बरो में जन्मीं...
"इतिहास के जीनियस तुम्हें तो लेडी जेन के विषय में सब कुछ मालूम होगा कुछ बताओ न।"
"नहीं निशा मुझे कहते हुए शरम आ रही है कि मैंने इनके विषय में अभी नहीं पढ़ा... देखते हैं ऊपर शायद कोई गाइड मिल जाए जो इस विषय पर थोड़ी रोशनी डाल सके।"
आगे का रास्ता पैदल ही तय करना था। कार एक तरफ पार्क करके सब बातें करते हुए स्टेचू के सामने पहुँच गए। ब्रेडगेट पार्क एक बहुत बड़ा पार्क हैं जहाँ अच्छे मौसम में लोग सुबह शाम घूमने आते हैं। थोड़ी ऊँचाई पर एक कॉसल दिखाई दे रहा है। इस कॉसल में एक पुराना म्यूजियम है। जिसमें लेडी जेन के समय के कपड़े, आभूषण, खाने पकाने के बर्तन, लड़ाई का सामान, खेती बाड़ी का सामान आदि रखे हैं जिन्हें देख कर उस समय के रहन-सहन का पता चलता है।
म्यूजियम में पहुँच कर निशा ने एक कर्मचारी को बताया कि हम लेस्टर की डीमॉटफर्ट यूनिवर्सिटी के छात्र हैं और लेडी जेन ग्रे के विषय में जानने की इच्छा हमें यहाँ खींच लाई है।
"क्या आपमें से कोई इतिहास का छात्र भी है?" एक व्यक्ति ने आगे बढ़ कर पूछा जिसने अपना परिचय डेविड के नाम से दिया।
"जी हाँ डेविड मेरा नाम सायमन है। मैं इतिहास में डिग्री कर रहा हूँ। वैसे तो यहाँ विश्व का इतिहास पढ़ना पढ़ता है परंतु मेरी रुचि विशेषकर ब्रिटेन के इतिहास में है। यह मेरी इगनोरेंस कहिए कि मैंने पहले कभी लेडी जेन ग्रे का नाम भी नहीं सुना था।"
"अब तुम ऐसा कभी नहीं कहोगे यंग मैन। तुम बिल्कुल सही जगह पर पहुँचे हो। यह जो आप पार्क के बीचोंबीच स्टेचु देख कर आ रहे हैं यह लेडी जेन ग्रे का है। इनका छोटी आयु में ही बहुत दुखद अंत हुआ था। वह इस स्टेचु से भी कहीं अधिक सुंदर थी। लेडी जेन ग्रे तो उस समय के प्रोटेस्टियन राजनीतिज्ञों के हाथों की कठपुतली बन के रह गई थी और नौ दिन की रानी के नाम से मशहूर हो गई।"
"क्या उस समय भी राजनीति चला करती थी.."
"राजनीति तो सदैव हमारे साथ रही है और अपने गंदे खेल खेलती रही है। इसके बिना न कोई राज्य चला है और न ही सरकार।"
डेविड आगे बताने लगा... "यह 15वीं सदि की बात है। लेडी जेन ग्रे का जन्म यहीं ब्रेडगेट में ही हुआ था। उस समय यह ब्रेडगेट पार्क केवल राजा और अमीर लोगों का ही पार्क हुआ करता था। गरीब तो उसके आस-पास फटक भी नहीं सकता था। उस समय के आठवें राजा हैनरी की 6 पत्नियाँ थीं। राजगदी पर केवल बेटे को ही बैठने का अधिकार था। जब पहली रानी से कोई बेटा पैदा नहीं हुआ तो हैनरी ने एक के बाद एक छह शदियाँ कीं।
एक पत्नी से बेटा पैदा हुआ जिसका नाम कुँवर एडवर्ड था। कुँवर एडवर्ड की भी बीमारी से छोटी आयु में ही मृत्यु हो गई थी। अब बची तो केवल एक लड़की... पहली रानी एलिजबेथ। यह समय रोमन केथोलिकस का समय था। एलिजबेथ एक प्रोटेस्टियन की बेटी थी। प्रोटेस्टियनस जानते थे कि राजकुमारी एलिजबेथ को यदि गदी पर बैठाया तो केथोलिक खामोश नहीं रहेंगे और आपस में मार काट शुरू हो जाएगी।
प्रोटेस्टियनस ने एक साजिश रची जिस साजिश में लेडी जेन ग्रे फँस गई। लेडी जेन ग्रे के पिता हैनरी ग्रे डयूक थे। उनकी माता 8वें राजा हैनरी की बहन थीं। क्योंकि उस समय रोमन केथोलिक्स का काफी जोर था तो प्रोटेस्टियनस ने राजनीति चलाई। छटे राजा एडवर्ड का कोई बेटा न होने के कारण जॉन इडली जो उस समय के बहुत ही प्रभावशाली गवर्नर थे उन्होंने राजा एडवर्ड पर दबाव डाल कर मजबूर किया कि लेडी जेन ग्रे को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दें।
इतनी देर तक बात करते हुए डेविड का गला सूख गया था। वह थोड़ी देर पानी पीने के लिए रुके तो निशा और उसके साथी जल्दी से बोले, "प्लीज डेविड रुकिए मत आगे फिर लेडी जेन का क्या हुआ।"
डेविड बच्चों की उत्सुकता देख कर मुस्कुराते हुए बोले...। "बड़ा अच्छा लगा यह देख कर कि आज कल के युवा भी हमारे पुराने इतिहास में इतनी रुचि लेते हैं। हाँ तो मैं कहाँ था डेविड सोचने का अभिनय करने लगे। वह देखना चाहते थे कि इनको कुछ याद भी है या नहीं।"
सायमन एक ही साँस में बोला... "हाँ हाँ उस गवर्नर जॉन इडली ने किंग एडवर्ड पर दबाव डाला था कि वह लेडी जेन ग्रे को अपना उत्तराधिकारी बना ले क्या राजा ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।"
"बहुत अच्छे यंगमैन... डेविड ने सायमन की पीठ थपथपाते हुए बात आगे शुरू की। हाँ तो इसमें जॉन इडली को अपना बहुत लाभ दिखाई दे रहा था। क्योंकि किंग एडवर्ड बीमार रहते थे तो जॉन इडली ने सोचा कि राजा की मृत्यु के पश्चात लेडी जेन ग्रे को कठपुतली बना कर सारी पावर वह अपने हाथ में रखेंगे। जॉन इडली राजनीति के एक बड़े मँझे हुए खिलाड़ी थे। वह उस समय के बहुत ही प्रभावशाली प्रोटेस्टियन गवर्नर थे जिन्होंने कुछ सोच कर अपने पुत्र डयूक गिलबर्ड इडली का विवाह लेडी जेन ग्रे से करवा दिया।
लेडी जेन ग्रे किंग एडवर्ड की उत्तराधिकारी घोषित कर दी गई और साथ में यह भी तय हुआ कि उनका होने वाला पुत्र ही अगली गद्दी सँभालेगा।
राजनीति ने फिर अपना दाँव खेला...।
यह राजनीतिज्ञ ऊपर से तो हँसते दिखाई देते हैं, किंतु जब शांत हो जाएँ तो समझ लीजिए कि कोई बहुत बड़ा कांड होने वाला है। 10 जुलाई 1533 को लेडी जेन ग्रे रानी घोषित कर दी गई। क्यों कि लेडी जेन ग्रे की नसों में रोमन केथोलिक खून दौड़ रहा था जिसे प्रोटेस्टियन कैसे बर्दाश्त कर सकते थे। चक्कर चला कर 19 जुलाई 1533 को टावर ऑफ लंदन में लेडी जेन ग्रे व उनके पति गिलबर्ड इडली दोनों की हत्या कर दी गई। ऐसे रोमन केथोलिकस को फिर से पावर में आने से रोका गया।
इस प्रकार लेडी जेन ग्रे नौ दिन की रानी के नाम से मशहूर हो गई। इनके स्टेचु को देखने आज भी लाखों की संख्या में लोग आते हैं।
उसके वर्षों पश्चात क्वीन एलिजबेथ द वन पहली प्रोटेस्टियन रानी घोषित हुईं। उनके रानी घोषित होने के साथ ही इंग्लैंड में पहला प्रोटेस्टियन चर्च, "चर्च ऑफ इंग्लैंड" के नाम से बना।"
लेडी जेन ग्रे के इतना दर्दनाक अंत की कहानी सुन कर सब उदास हो गए। लड़कियों की तो पलकें भी भीग उठीं जिसे देख कर डेविड हँसते हुए बोले... "भई यह तो बहुत पुरानी बात है। अब न तो वैसे राजा रहे न उनकी बातें। हाँ राजनीति वहीं की वहीं है। समय के अनुसार उसमें उतार चढ़ाव जरूर आते रहते हैं। राज्यों के समाप्त होने से किसान भी बहुत खुश हुए जिन्हें खेती बाढ़ी की कमाई का 10 प्रतिशत कर के रूप में राजा को देना पड़ता था।"
लेस्टर और उसके आस पास के गाँवों की धरती उपजाऊ होने के कारण खेती-बाड़ी अधिकतर लेस्टर में ही होती थी। खेती के साथ धीरे धीरे किसानों ने बकरियाँ रखना आरंभ कर दिया था। पहले खेत और सड़क को अलग करने के लिए इसके बीचों बीच एक छोटी सी घास की स्ट्रिप होती थी। बकरियों के आ जाने के पश्चात सड़कों के किनारों पर झाड़ियों की हैज बनने लगी जो बकरियाँ खुली सड़कों पर न निकल जाएँ।
किसानों ने खेती-बाड़ी में भी खूब वृद्धि की। जब खेती-बाड़ी से अच्छा पैसा आने लगा तो लोगों ने कुछ और करने के लिए सोचा। तब उस समय का सबसे पहला कारखाना डारबी में बना जिसमें स्टीम पावर बिजली के लिए स्टीम इंजन बनते थे। इस प्रकार कारखानों की भी शुरुआत हुई।
"वो तो सब ठीक है लेकिन यहाँ लॉफ़्बरो में कुछ और भी देखने को है..." किशन ने सामने आते हुए पूछा।
"है न बहुत कुछ है..." डेविड खुश हो कर बोले। आपने यहाँ की मशहूर बैल फाउंडरी देखी है, क्वीन्स पार्क देखा है जिसमें लड़ाई के समय के शहीदों के नाम गुदे हुए हैं। डेविड ने निशा की ओर देख कर कहा इन्हें अपना पूरा लॉफ़्बरो दिखाओ भई अब शायद ये दोबारा यहाँ न आएँ। और हाँ इन्हें लॉफ़्बरो और लेस्टर की केनाल्स के विषय में कुछ बताया कि नहीं। आप लोगों ने इधर उधर आते जाते लॉफ़्बरो की केनाल्स तो देखी ही होंगी। मैं आपको इन केनाल्स की एक छोटी सी कहानी बताता हूँ जो शायद आपके काम आए।"
डेविड थोड़ा रुक कर बोले... "कभी इन केनाल्स के द्वारा ब्रिटेन का सारा व्यापार होता था। लोगों को कोई शिकायत नहीं थी। सबके पास रोजगार था। केनाल के व्यापार को गहरा धक्का तब लगा जब सरकार ने सागर से गैस निकाली। सागर से गैस निकालना ब्रिटिश सरकार के लिए बहुत बड़ी कामयाबी की बात थी परंतु उससे बहुत से लोगों की नौकरियाँ चली गईं। जब काम रुका तो पानी भी रुक गया। केनाल्स बन तो गईं लेकिन इनकी सफाई की ओर किसी का ध्यान नहीं गया।
जो नीचे की सतह पर केनाल्स थीं उनके पानी में सूएज का गंदा पानी आ कर मिलने लगा और उससे गंध आने लगी। जहाँ गंदगी हो वहाँ चूहे भी आएँगे। यह चूहे योरोप से पानी के जहाज द्वारा ब्रिटेन में आए थे। यह घरेलू चूहों के समान नहीं होते। यह चूहे गंदगी पसंद करते हैं। इनकी पीठ पर खून पीने के लिए फ़्लीस यानी कीड़े चिपके होते हैं। यह कीड़े चूहे, इनसान, जानवर किसी का भी खून चूसते हुए अपने प्लेग के किटाणु वहाँ छोड़ देते हैं। यही कुछ चूहों की पीठ से गिरे हुए कीड़े वहाँ काम करने वाले लोगों की टाँगों से चिपक कर खून पीते हुए अपने मुँह से प्लेग के किटाणु वहाँ छोड़ते चले गए।
किसी को पता भी नहीं चला और इन चूहों के द्वारा प्लेग की बीमारी लोगों को होने लगी। बस देखते ही देखते पूरे लॉफ़्बरो में प्लेग फैलने लगा। लॉफ़्बरो का कोई ऐसा घर नहीं था जहाँ मातम न छाया हो। कहीं तो परिवार के परिवार साफ हो गए। यह देख कर सरकार का माथा ठनका।
इससे पहले भी एक बार प्लेग इंग्लैंड में फैल चुका था। वह 13वीं सदि की बात थी। जब इंग्लैंड की 2/3 जनसंख्या इस जानलेवा बीमारी की शिकार हो गई थी। सरकार इतिहास को दोहराना नहीं चाहती थी।
डर था कि प्लेग कहीं पास के दूसरे गाँवों में और फिर शहरों में न फैल जाए। शीघ्र ही केनाल्स की सफाई करवाई गई। जगह जगह विष डाल कर चूहों का खात्मा किया गया। इस प्रकार प्लेग को फैलने से रोका गया।
उम्मीद करता हूँ बच्चो कि मेरी बातों से आपके ज्ञान में थोड़ी वृद्धि हुई होगी डेविड उनको इतने ध्यान से बातें सुनते देख मुस्कुरा कर बोले। अब आप लोग निशा के साथ जाकर लॉफ़्बरो की कुछ और ऐतिहासिक चीजें देखिए और मैं इन स्कूल से आए बच्चों को कुछ जानकारी दे दूँ।"
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लॉफ़्बरो की मशहूर बैल फाउंडरी... जहाँ कभी सारे ब्रिटेन के चर्च के लिए घंटियाँ बनाई जाती थीं अपनी तरह की बस एक ही फाउंडरी थी। जिन घंटियों की आवाज सुबह शाम आज भी पूरे ब्रिटेन के चर्च में सुनाई देती है। यह बहुत ही भारी लोहे की बनी घंटियाँ होती हैं जिनका वजन कभी एक टन से ऊपर भी हो जाता है। इनको बनाने वाले कारखाने तो कब के बंद हो चुके हैं बस याद के लिए एक छोटा सा म्यूजियम जरूर रह गया है। जहाँ इतिहास में रुचि रखने वाले या कभी स्कूल के बच्चे अपनी अध्यापिकाओं के साथ जानकारी लेने के लिए आते हैं।
कार में सबको इतना खामोश देख कर किशन से रहा ना गया।
"यारों हम सब लोग इतना खामोश क्यों हैं उसने अलका को कंधा मारा जो उसके साथ ही बैठी थी... हम यहाँ मस्ती मारने आए हैं या लेडी जेन का शौक मनाने। जो बात सदियों पहले हो चुकी उसका आज क्या अफसोस करना। कम ऑन एवरीबॉडी चियरअप और साथ में ही किशन गाना गाने लगा।"
"जीसस क्राइस्ट किशन... तुम अपनी यह बेसुरी आवाज बंद करोगो या मैं तुम्हें कार के बाहर धक्का दे दूँ।"
"धक्का बाद में देना सायमन पहले यह जो सामने स्ट्रीट दिखाई दे रही हैं न इसी में कार पार्क कर दो। बस दो कदम पर ही बैल फाउंडरी है..." निशा ने दोनों को चुप करा दिया"
बैल फाउंडरी में पहुँचते ही उन्हें जल्दी ही कोई कर्मचारी मिल गया जो पूरा म्यूजियम घुमा सके और इस विषय में उनको कुछ बता सके। जो कर्मचारी सामने आया उस का नाम चार्ली था। चार्ली बहुत ही हँसमुख व्यक्ति निकला। उसके चेहरे पर छोटी सी सफेद दाढ़ी बड़ी जच रही थी।
चार्ली ने जब देखा कि सब का ध्यान उसकी दाढ़ी की ओर है तो बड़े प्यार से वह अपनी दाढ़ी पर हाथ फेर कर बताने लगा।
इस म्युजियम में आपको अधिकतर घंटियाँ उनका इतिहास और कुछ तोहफों के रूप में छोटी घंटियाँ मिलेंगी। यह कोई आम घंटियाँ नहीं होती थीं। यह जो सुबह शाम हम चर्च की घंटियाँ सुनते हैं इन्हें बजाना भी कोई आसान काम नहीं है। यदि आपको बजाना नहीं आता तो डोरी खींचते ही इसके साथ लहराते हुए ऊपर चले जाओगे। यह जो घंटी के साथ नीचे की ओर सात लड़ियाँ लटकते हुए देख रहे हैं सारा इन्हीं का कमाल है।
उस समय इन लड़ियों को खींच कर घंटियों को बजाने के लिए सात व्यक्ति होते थे। प्रत्येक व्यक्ति को मालूम था कि उसने किस समय अपनी रस्सी को खींचना है।
असल में यही संगीत के सात स्वर हैं। यह इन्हीं सात स्वरों का संगम है। जैसे हिंदी शास्त्रीय संगीत सात स्वरों स रे ग म प ध नी पर अधारित है वैसे ही अंग्रेजी संगीत में भी सात स्वर डो रे मी फा सोल ला सी पाए जाते हैं। संगीत किसी भाषा में भी क्यों न हो स्वर यही सात लगते हैं। इन घंटियों को बजाने के लिए भी शास्त्रीय संगीत की पूरी शिक्षा लेनी पड़ती है तभी तो इनका स्वर कानों को कितना मधुर लगता है। चार्ली ने सबको उपहार के रूप में छोटी-छोटी घंटियाँ दीं।
"बहुत धन्यवाद चार्ली आपने हमें केवल म्यूजियम ही नहीं दिखाया बल्कि संगीत के विषय में भी बहुत कुछ बता दिया है।" चार्ली का शुक्रिया अदा करके के सब लोग बाहर आए।
"भई अब तो पेट में चूहे उछल कूद मचा रहे हैं कार में बैठ के पहले खाना खा लेते हैं।"
"कार में क्यों। जब पिकनिक का सामान है तो पिकनिक मनाएँगे। पास में ही क्वीन्स पार्क है। पहले वहाँ बैठ कर खाना खाते हैं फिर मैं तुमको लॉफ़्बरो की एक और शान दिखाऊँगी।"
"मान गए निशा तुम्हारा शहर तो इतिहास का भंडार है। मैं अपने खजाने में बहुत कुछ लेकर जा रहा हूँ इसके लिए तो तुम धन्यवाद की हकदार हो..." सायमन ने प्यार से निशा के कंधे पर हाथ रख कर उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा।
"तुम अकेले ही नहीं हो सायमन यह जो हमारी लेखिका साहिबा चुपचाप साथ चल रही हैं इन्होंने न जाने कितना कुछ दिमाग में इकट्ठा कर लिया होगा।"
सब की निगाह अलका की ओर घूम गई। "अरे हाँ तभी यह इतनी खामोश है," पार्क में घुसते हुए जैकी बोली।
"इसकी यही तो विशेषता है कि यह बोलती कम और सुनती ज्यादा है।"
"पार्क बड़ा सुंदर है पर बहुत ठंड है निशा। यदि यहाँ कहीं नीचे बिछा कर या ठंडे बैंच पर बैठ कर खाना खाया तो सभी कुकड़ु हो जाएँगे। ऐसा करते हैं पहले पार्क देख लेते हैं फिर किसी कैफे में बैठ कर गर्म कॉफी के साथ खाना भी खा लेंगे।"
"विचार तो बुरा नहीं है...। वो देखो इतनी सर्दी में भी फूल खिले हुए हैं।"
"हाँ जैकी इसका असली मजा लेना हो तो गर्मियों में आकर देखो जब सारा पार्क फूलों से और बच्चों के शोर से भरा होता है। ये जो छोटी सी नहर दिखाइ दे रही है न यह पार्क के चारों ओर है। इस नहर में एक पंप लगा हुआ है जिससे नहर में यही पानी चारों ओर घूमता रहता है। साल में एक बार इस की अच्छी तरह से सफाई करके इसमें नया पानी भर दिया जाता है जो बतखों की गंदगी के कारण कोइ बदबू न आए और बीमारी न फैले।
अभी तो ठंड के मारे काफी सारी बतखें झाड़ियों के बीच छुपी हुई हैं। असली नजारा तो गर्मियों में मिलता है जब इनका मेटिंग सीजन होता है। उस समय यह बतखें अपने छोटे-छोटे पीले पंखों वाले बच्चों को लेकर इस नहर में आती हैं। कोई बच्चा अपनी माँ की पीठ पर बैठा होता है... कोई पंखों में से झाँक रहा होता है... तो कोई साथ तैर रहा होता है। इस को बच्चे ही नहीं बड़े भी बड़ा आनंद लेकर देखते हैं और घंटों इस पार्क में धूप का मजा लेते हैं।"
"ये जो पार्क के बीचो बीच टावर खड़ा है इसकी ऊँचाई कितनी होगी निशा।
"यही कोई 40-45 मीटर होगी... ठीक से याद नहीं है। अंदर कोई ना कोई गाइड जरूर मिल जाएगा... चलो देखते हैं। अंदर जाने से पहले मैं कुछ और तुम्हें दिखाना चाहती हूँ...।
पहले बाहर से टावर की दीवार देखो। यहाँ नीचे से ऊपर तक पहले महायुद्ध में शहीद हुए 480 सैनिकों के नाम गुदे हुए हैं जो मौसम की इतनी मार खाने के पश्चात भी पढ़े जा सकते हैं।"
सब लोग खड़े हो कर उन शहीदों के नाम पढ़ने लगे।
टावर के अंदर जाकर थोड़ी सी प्रतीक्षा के पश्चात उन्हें वहाँ काम करने वाला एक कर्मचारी मिल गया जो प्रसन्नता पूर्वक इनके प्रश्नों के उत्तर देने को तैयार हो गया।
"पहले तो हमें यह बताइए कि यह टावर जिसे क्रिलियन के नाम से जाना जाता है कितनी ऊँची है और इसे बनाने का कारण क्या था..." सायमन ने पूछा।
"बड़ा अच्छा प्रश्न पूछा बेटा आपने... यह जो आप क्वींस पार्क के बीचो-बीच टावर देख रहे हैं इसकी ऊँचाई 46 मीटर है। यह प्रथम महायुद्ध के इतिहास को अपने अंदर समेटे हुए है...।
इसको बनाने का बस एक ही मकसद था कि हम अपने देश पर शहीद हुए सैनिकों को सदैव याद रखें जिन्होंने लड़ते हुए छोटी आयु में अपनी जान गँवा दी।
इस स्मारक का पहला पत्थर 1923 में रखा गया था। वैसे तो पूरे ब्रिटेन में ऐसे 15 क्रिलियन हैं। लाफ़्बरो का क्रिलियन सबसे पहला और एक ही इस प्रकार का महान क्रिलियन कहलाता है जिस पर आज भी शहीद हुए सैनिकों के नाम देखे जा सकते हैं। सबसे विशेष बात तो यह है कि इस यादगार स्मारक चिह्न को बनाने का प्रत्येक सामान लॉफ़्बरो के कारखानों में ही तैयार हुआ है।"
"यह टावर कितनी मंजिलों में विभाजित है अलका ऊपर देखते हुए बोली..."
"यह क्रिलियन टावर तीन मंजिलों में है। सबसे नीचे प्रथम महायुद्ध के सैनिकों का लड़ने का सामान, उनके मैडल व और भी लड़ाई में प्रयोग होने वाला सामान मिलेगा।
दूसरी व तीसरी मंजिल पर अनेक घटनाओं को बताती हुई कुछ उस समय की तसवीरें, कुछ फाइलें हैं जिनमें शहीदों के बहादुरी के कारनामें हैं। दीवार पर टँगी हुई हर तसवीर की अपनी ही एक कहानी हैं। एक कहानी ने सबका ध्यान अपनी और आकर्शित किया... कैसे एक सिपाही की जेब में रेजर ब्लेड रह गया था और उसी के कारण उसकी जान बच गई। जो गोली उसकी जान लेने के लिए आ रही थी वह रेजर ब्लेड को लग कर नीचे गिर गई। इसको कहते हैं जाको राखे साइंयाँ मार सके ना कोय।"
थोड़ा रुक कर उस कर्मचारी ने आगे बताया कि सैनिकों को जी-जान से देश के लिए लड़ते देख 1914 के पाँचवें राजा किंग जार्ज व रानी मेरी की 17 वर्ष की बेटी राज कुमारी मेरी ने यह तय कर लिया कि जो भी सैनिक देश से बाहर लड़ रहे हैं उन्हें क्रिसमस पर उपहार जरूर भेजा जाए। इससे सैनिक और भी उत्साह से लड़ते थे यह सोच कर कि उन्हें देश के लोग ही नहीं बल्कि राज घराने के लोगों ने भी याद रखा।
सारी चीजों को बड़ी सुरक्षा से म्यूजियम में रखा गया है जो आने वाली पीढ़ी इस सब की सराहना करें और अपने स्थानीय सैनिकों के बलिदान को जानें और उनका आदर कर सकें। गर्मियों में तो यहाँ बहुत लोग आते हैं।
"ऐसी पुरानी वस्तुओं को एक स्थान पर सँभाल कर रखना भी देश भक्ति से कम नहीं है," निशा ने दोस्तों को संबोधित करते हुए कहा।
"सही कहा आपने..."
"आप बता सकते हैं कि ये ऊपर जाने के लिए करीब कितनी सीढ़ियाँ होंगी," किशन ने सवाल किया...।
"तीसरी मंजिल पर जाने के लिए 138 सीढ़ियाँ हैं जो टावर के अंदर से ही होकर जाती हैं। आप ऊपर जाएँगे तो 47 घंटियाँ टँगी हुई मिलेंगी जो लॉफ़्बरो बैल फाउंडरी में ही बनी हैं और यहीं के 47 बड़े लोगों द्वारा दान में दी गई हैं। इन घंटियों पर उस दान देने वाले का नाम और साथ में उस शहीद का नाम भी गुदा हुआ है जिसके परिवार को यह दान दिया गया था। इनके बीचो-बीच एक साढ़े चार टन की घंटी लटक रही है जो टेलर परिवार की ओर से दी गई है जिन के तीन बेटे इस युद्ध में शहीद हुए थे। रोज सबेरे-शाम इन घंटियों की आवाज पूरे लॉफ़्बरो में गूँजती है।"
"चलो अलका आओ देखते हैं एक साँस में यह 138 सीढ़ियाँ चढ़ कर कौन सबसे पहले ऊपर पहुँचता है..."
"अरे रहने दो किशन एक तो वैसे ही भूख के मारे मस्त हाथी पेट में घूम रहा है ऊपर से भाग कर सीढ़ियाँ चढ़ना अपने बस की तो बात नहीं," अलका बोली।
"अजी लड़कियाँ तो होती ही कमजोर और बुजदिल हैं उनका हमसे क्या मुकाबला। चलो सायमन जब यहाँ तक आए हैं तो ऊपर देख कर ही जाएँगे।"
"अच्छा हम दिखाते हैं कि कमजोर कौन है और तीनों लड़कियाँ भाग कर सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं। मगर कहाँ जी, 138 सीढ़ियाँ एक साँस में चढ़ना कोई मजाक की बात तो थी नहीं। थोड़ा ऊपर जाते ही तीनों लड़कियाँ हाँफने लगीं जिसे देख सायमन और किशन उनको चिढ़ाते हुए आगे निकल गए। थोड़ी दूर जाकर उनकी टाँगों ने भी जवाब दे दिया।
जब निशा की टोली टावर से बाहर निकली तो क्या देखा कि बारिश हो रही है। यही तो है ब्रिटेन का मौसम जो पल में बदल जाता है। फिर बादलों का तो यहाँ घर है। जब जी चाहे घुमड़ के आ जाते हैं। खुश होते हैं तो बरसने लगते हैं, खफा होते हैं तो गरजने लगते हैं। बस ब्रिटिश वासियों को इनके मूड के साथ चलना पड़ता है।
किसी के पास भी छाता नहीं था। वैसे भी आज कल के युवा लोग छाता पकड़ने से अधिक भीगना पसंद करते हैं। सब लोग भीगते हुए कार की ओर भागे।
बारिश थोड़ी कम हुई तो वे कैफे की ओर चल दिए। कैफे में और कोई नहीं था। सबने खूब शोर के साथ कॉफी की चुस्कियाँ लेते हुए खाना खाया।
"निशा और भी कुछ देखने को बाकी है।"
"हाँ सायमन, है तो बहुत कुछ लेकिन बारिश हो रही है और सब लोग थक भी गए हैं। फिर कभी सही। घर चल कर आराम करते हैं। कल वापिस कॉलेज भी जाना है...।"
"अरे हाँ वो तो है..." इतनी मस्ती भरे मौसम में कॉलेज का नाम सुनते ही जो अभी खाना खाने से मुँह का स्वाद इतना अच्छा लग रहा था अचानक फीका पड़ गया।
कार में बैठ कर सबको थकावट महसूस हुई। वैसे भी ठंड में इधर से उधर घूमने से थकावट तो हो ही जाती है।
"माँ..." घर पहुँचते ही निशा ने आवाज लगाई। "माँ जरा गर्मागर्म अदरक तुलसी की चाय बना दीजिए इन नाजुक लोगों के लिए मैं नहीं चाहती कल कॉलेज जाकर कोई बीमार पड़ कर सब को तंग करे।"
"आंटी यह तीनों लड़कियों की बात हो रही है हमारी नहीं..." सायमन कहाँ पीछे रहने वाला था।"
"अच्छा तो तुम दोनों चाय नहीं पियोगे।"
"आने तो दो हम तुम्हारी भी पी जाएँगे..."
ऐसे ही एक दूसरे के साथ छेड़खानी करते हुए सब लोग कंबल लपेट कर बैठ गए। चाय के साथ सब ने ढोकला ऐसे खाया जैसे सुबह से भूखे हों।
"निशा अपने दोस्तों को लॉफ़्बरो का मशहूर फनफेयर नहीं दिखाओगी," माँ ने उन सबके साथ बैठते हुए कहा।
"अरे हाँ मॉम मैं तो उसे भूल ही गई थी। फनफेयर भी तो नवंबर में ही लगता है। इस बार कब है।"
"इसी गुरुवार को है। जब दोस्तों को लॉफ़्बरो दिखा ही रही तो तो लगे हाथ फनफेयर भी हो जाए।"
"नहीं मॉम पूरे सप्ताह कॉलेज छोड़ना पड़ेगा। पढ़ाई का बहुत नुकसान होगा।"
"आंटी आप ही कुछ बताइए इस फनफेयर के विषय में..."
"इस फनफेयर की लॉफ़्बरो के बच्चे पूरा वर्ष प्रतीक्षा करते हैं। लॉफ़्बरो में यह साल में एक बार तीन दिन के लिए आता है वह भी नवंबर के महीने में। यह एक चलता फिरता फनफेयर है जो शहर शहर में लगता है। इसे सर्दियों में पैक करने से पहले सब से अंतिम फेयर लॉफ़्बरो में लगता है। बच्चे ही नहीं युवा भी इसका इंतजार करते रहते हैं।"
"यह ऐसा ही फनफेयर है आंटी जो सी-साइड पर लगा मिलता है," अलका ने पूछा।
"हाँ बेटा वैसा ही समझ लो। सी-साइड पर तो यह पूरी गर्मियों के लिए होता है परंतु जगह जगह शहरों में ये दो या तीन दिन के लिए ही आता है।
यहाँ चार दिन के लिए लॉफ़्बरो मार्किट के रास्ते आवागमन के लिए बंद हो जाते हैं। केवल पैदल चलने वालों के लिए ही यह रास्ते खुले होते हैं। बुधवार की दोपहर को बडे ट्रकों में झूले आने आरंभ हो जाते हैं। रातों रात सड़कों को साफ कर बहाँ झूले लग जाते हैं। इसमें छोटे बच्चों से लेकर बड़ों तक का ख्याल रखा जाता है।"
"हाँ सायमन लॉफ़्बरो के लार्ड मेयर भी इसमें अपना पूरा सहयोग देते हैं," निशा कंबल के बीच से मुँह निकाल कर बोली।
"जब आंटी बता रहीं हैं तो आप बीच में क्यों टपक पड़ीं," सायमन तुनक के बोला।
"ये लो भलाई का तो कोई जमाना ही नहीं रहा," निशा नाराज होते हुए बोली।
"आंटी इसे छोड़िए आप आगे बताइए..."
"बस बेटा आगे यही कि गुरुवार दोपहर बारह बजे से पहले सब कुछ सैट हो जाता है। लॉफ़्बरो के लार्ड मेयर स्कूल के कुछ चुने हुए बच्चों और उनकी आध्यापिकाओं के साथ वहाँ आते हैं। लार्ड मेयर ने रिबिन काटा। रिबिन के कटते ही सारे जनरेटर्स चालू हो गए और उनके साथ ही झूले। इतने जनरेटर्स होने के पश्चात भी सड़क पर एक भी बिजली का तार दिखाई नहीं देता। तारों का जाल सड़क पर बिछा कर उन पर इस प्रकार टारमैक डाल दिया जाता है कि कोई भी बड़ा हादसा न हो। लार्ड मेयर बच्चों के साथ कुछ झूलों पर जाते हैं और फेयर पब्लिक के लिए चालू कर दिया जाता है।
यह फेयर तीन दिन तक रहता है। तीन दिन लॉफ़्बरो में खूब रौनक मेला होता है। नवंबर का महीना है तो मौसम तो सर्द होगा ही तब भी लोग हुम-हुमा कर आते हैं। लॉफ़्बरो के आस पास के गाँव में से यहाँ तक कि लेस्टर तक से लोग आते हैं इस मेले में।"
"फिर तो खाने पीने के स्टॉल भी खूब होते होंगे," सायमन ने उत्सुक हो कर पूछा।
"पूछी ना इसने अपने मतलब की बात...," निशा से फिर बोले बिना ना रहा गया।
सरोज ने मुस्कुरा कर बेटी की ओर देखा "हाँ... चारों ओर खाने पीने के स्टालों से उड़ती हुइ खुशबुएँ, खुशनुमा माहौल, शोर शराबा बस तीन दिन यही सब तो देखने को मिलता है। खाने की चीजें ऐसी जो इन्हीं स्थानों पर मिलती हैं। ठंडे मौसम में छोटे-छोटे गर्मा-गर्म डोनट्स जो आपके सामने ही तैयार किए जाते हैं। जिन्हें खाकर मजा आ जाता है। पाउंड के पाँच एक लिफाफे में मिलते हैं जो एक के बाद एक ऐसे मुँह में जाते हैं कि जब तक आप किसी दूसरे को देने की सोचो सब नदारद हो चुके होते हैं। ऐसे ही अँगीठियों पर सिकते हुए हेजल नट्स जो केवल ऐसे मेलों में ही दिखाई देते हैं।"
"कुछ शाकाहारी लोगों के लिए भी होता है आंटी।"
हाँ बेटा... आज कल तो शाकाहारी खाना भी ऐसी जगहों में खूब मिलने लगा है। हॉट डॉग और बर्गर्ज की खुशबू यूँ नथुनों में घुसती है कि स्वयं ही दुकान के पास खींच लाती है। उधर कैंडी फ्लोस और टॉफी ऐपल के स्टाल के बाहर माता पिता की उँगली थामें बच्चे भी एक कतार में खड़े मिलते हैं।
शनिवार की शाम को वहाँ पैर रखने की भी जगह नहीं होती। सब जगह युवा जोड़े और झूलों पर बैठी लड़कियों की चीखें ही सुनाई देती हैं। शनिवार को झूलों के दाम व खाने पीने की चीजों के दाम भी दुगने हो जाते है। यह उस साल का आखिरी फेयर होता है। इसके पश्चात इसे अच्छे मौसम तक के लिए बंद कर दिया जाता है।"
***
बंद तो लेस्टर के कारखाने हो रहे थे। एक ओर जहाँ ये कारखाने बंद हो रहे थे वहीं दूसरी ओर रोज नई सुपर मार्किट खुल रहीं थी। सुपर मार्किटस में भी आपस में होड़ चल रही थी ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए। कहीं कोई चीज सस्ती तो कहीं कोई चीज सेल पर। नौकरियाँ छूटने के कारण लोग भी काफी सतर्क हो गए थे। जहाँ जो वस्तु सस्ती मिलती वहाँ से लेकर वह दूसरी सुपर मार्किट में जा पहुँचते। नित नई सुपर मार्किट खुलने से युवा लोग बहुत खुश थे। उनके पास भरपूर काम था। यहाँ तक कि यूनिवर्सिटी के छात्रों के पास भी शनिवार या शाम की नौकरियाँ मौजूद थीं जो छात्र बड़ी खुशी से करते थे।
अपने और साथियों के समान निशा भी एक सुपर मार्किट में हर शनिवार काम करती है। घर की हालत उससे छुपी नहीं है। चाहे माँ पापा उसे कुछ न बताएँ। आगे जितेन की भी पूरी पढ़ाई बाकी है। वह पढ़ाई समाप्त करके तुरंत नौकरी करना चाहती है जो माँ पापा का थोड़ा बोझ कम कर सके।
निशा को सिर पर पड़े नानी के वादे का बोझ भी शीघ्र ही उतारना है। उन्हें नवसारी जल्दी ही ले जाना होगा नहीं तो मन में अरमान रह जाएगा। यही सब सोचते हुए निशा का हाथ टिल पर तेजी से चल रहा है। उसमें एक बहुत अच्छी बात है कि जो काम करती है लगन से करती है तभी तो सब उसे प्यार करते हैं।
काम तो युनिवर्सिटी की और लड़कियाँ भी करती हैं किंतु उनके और निशा के काम में जमीन आसमान का अंतर है।
"देखो तो अलका यह मायरा इतनी सज-धज कर कहाँ जा रही है और वो भी इतनी शाम को अकेले।"
"बना लिया होगा कोई नया बॉयफ्रैंड। तुम तो जानती हो कि आज कल आए दिन इसके दोस्त बदलते रहते हैं हमें क्या जाने दो।"
"अरे नहीं यार हमारे साथ पढ़ती है... चलो सायमन और किशन से पूछते हैं। लड़कों को तो लड़कियों की हर बात की खबर होती है," दोनों उत्सुकतावश पहुँच गईं लड़कों से पूछने...।
"सायमन तुम लोग जानते ही होगे कि यह मायरा, जिलियन वगैरह हर शुक्रवार को ऐसे सज-धज कर कहाँ जाती हैं।"
"तुम लोगों क्या करना है इन सब बातों से... अपने काम से मतलब रखो..."
"ओह तो इसका मतलब जो हम नहीं जानते वो तुम जानते हो। हमें भी तो पता चलना चाहिए बताओ ना सायमन..."
"सायमन निशा की बात को टाल ना सका। निशा यह लोग कॉलगर्ल का काम करती हैं। आज कल के महँगाई के जमाने में अपनी निजी आवश्यकताएँ कभी ऐसे काम करने पर भी मजबूर कर देती हैं जिन्हें हमें करना ही पड़ जाता है। कुछ छात्रों के माता-पिता की इतनी सामर्थ्य नहीं कि वह उन्हें और पैसा भेज सकें। कुछ मजबूरी में ऐसा काम करती हैं जिसे कॉल गर्ल कह लो या वैश्यावृति कह लो मतलब एक ही है और कुछ मन बहलाने के लिए करती हैं। बस सोच लो कि यह काम चोरी छुपे होता है।"
"यह सब करना जरूरी है क्या... लेस्टर में और भी तो कितने काम हैं छात्रों के लिए...," अलका ने बुरा सा मुँह बना कर कहा।
हमें अपने काम से मतलब रखना चाहिए अलका। इस काम में उन्हें पैसा दिखाई देता है, तो करने दो। बस थोड़े दिन की ही तो बात है। डिग्री मिलते ही सब अपने रास्ते चल पड़ेंगे।
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युवा लोगों के पास तो काम की कमी नहीं थी परंतु पचास वर्ष से ऊपर के लोगों के पास कोई काम नहीं था। जब काम करने के लिए युवा लोग मिल रहे हों तो यह ढलती आयु वालों को कौन काम देगा। अब तो लोग अपनी छोटी दुकानें भी नहीं खोल सकते थे। सारे ग्राहक खुलती हुई सुपर मार्किट्स ने जो खींच लिए थे। अधेड़ आयु के लोगों में बेरोजगारी बढ़ती जा रही थी।
मरता क्या न करता। लोगों ने खुले बाजार में स्टाल लगाने प्रारंभ कर दिए। इधर से सरकार का भी जोर था कि नौकरी ढूँढ़ो नहीं तो सरकार की ओर से जो हर सप्ताह भत्ता मिल रहा है वो बंद कर दिया जाएगा।
पास ही सुपर मार्किट खुल जाने पर भी घबरा कर निशा के पापा सुरेश भाई ने अपनी कोने की दुकान बंद नहीं की। अब इस आयु में नौकरी के लिए दर दर भटकने से तो अच्छा है कि थोड़े में गुजारा कर लें। किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाने पड़ेंगे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि घर में ही दुकान होने के कारण दुकान का भाड़ा भी नहीं देना पड़ता था।
सुरेश भाई और सरोज को बड़ा धक्का उस समय लगा जब सर रिचर्ड टाऊल्स के आखिरी कारखाने के बंद होने का समाचार मिला...।
सरोज कारखाने से घर आई। चेहरा लटका हुआ, साफ उदासी झलक रही थी। पति को देखते ही मुस्कुराने के प्रयत्न में आँखों में ठहरे हुए आँसू बह निकले।
"सरोज... क्या बात है...सब ठीक तो है ना।"
"कुछ भी ठीक नहीं है जी। एक महीने में हमारा कारखाना भी बंद हो जाएगा। माइनर्स की हड़ताल के कारण समय पर आर्डर्स पूरे ना होने से वह लोग कारखाना कब तक नुकसान पर चालू रख सकते थे। आज सर रिचर्ड टाउल्स स्वयं वहाँ आए और बड़े अफसोस से सब से माफी माँग कर यह ऐलान किया कि एक महीने के पश्चात यह टाउल्स टैक्स्टाइल का आखिरी कारखाना भी हमेशा के लिए बंद हो रहा है। वैसे भी उनका कोई बेटा नहीं है जो इस काम को आगे बढ़ाएगा। ले देकर एक बेटी है जिसे सुना है इस काम में कोई दिलचस्पी नहीं है।"
"कोई बात नहीं सरोज आप चिंता क्यों करती हैं। हम कुछ ना कुछ कर लेंगे।"
"क्या कर लेंगे जी। अभी जितेन की पूरी पढ़ाई पड़ी है। हाथ पर हाथ धर कर तो बैठ नहीं सकते। दुकान का काम तो आप जानते ही हैं। वैसे मैं काम पर किसी महिंदर सिंह के धागा बनाने वाले कारखाने के विषय में सुन कर आ रही हूँ। इस कारखाने में पगार कम है फिर भी लोग खुश हैं कि उनके पास काम तो है।"
"धागा फैक्टरी... अरे मेरा दोस्त गिरीश वहीं तो काम करता है। आप चिंता मत करो। मैं अभी गिरीश भाई से मिल कर आता हूँ। वह नजर रखेगा आपको जरूर वहाँ कोई काम मिल जाएगा।"
एक अंग्रेज सरकार से भत्ते के लिए हाथ फैला लेगा लेकिन कम वेतन पर कभी काम नहीं करेगा वह भी एक ऐशियन के लिए। जहाँ दूसरे कारखाने बंद हो रहे थे वहाँ इस धागा बनाने वाले कारखाने के पास भरपूर काम था। यह अपने में ही एक ऐसा कारखाना है जिसमें बना धागा पूरी दुनिया में आज भी जाता है। सरोज के काम के इतने लंबे अनुभव को देख कर उन्हें वहाँ काम मिल गया।
***
अरे लॉफ़्बरो टाउन के शॉपिग सेंटर के बीचो बीच यह स्टेचु कहाँ से आ गया कुछ लोग हैरानी से स्टेचु को देखते हुए बातें कर रहे थे...
यह पत्थर का बना हुआ एक लड़के का स्टेचु है जिसने एक पैर में जुराब पहनी हुई है और दूसरे में पहनने का प्रयत्न कर रहा है। स्टेचु के नीचे लिखा हुआ है... यह जुराबें लॉफ़्बरो के सुप्रसिद्ध कारखाने मेरेथन की बनी हुई हैं। मेरेथन जहाँ हर मौसम, हर नाप, बच्चे बूढ़े सब की पसंद को ध्यान में रख कर जुराबें तैयार होती थीं। सर्दियों की विभिन्न प्रकार की ऊन जैसे अक्रलिक, असली ऊन, लैम्स वूल आदि से बनी जुराबें व गर्मी के लिए सूती धागे की जुराबें यहाँ बनाई जाती थीं जो ब्रिटेन ही नहीं पूरे योरोप में भी प्रसिद्ध थीं। माइनर्स की हड़ताल ने इस कारखाने को भी मजबूरन ताला लगाने पर बाध्य कर दिया।
कारखाने को ताला जरूर लगा परंतु उसकी याद सबके दिलों में आज भी ताजा हैं। जब भी कोई जुराबें खरीदता तो मेरेथन की जुराबों को जरूर याद कर लेता है। लोग बड़े गर्व से इस स्टेचु के साथ खड़े हो कर तसवीरें उतरवाते हैं।
ये तसवीरें ही तो हैं जो नई पुरानी यादों को ताजा रखती हैं। दीवार पे टँगी पुराने घर की तसवीर को देखते हुए सरला बेन किन्हीं खोई हुई यादों में गुम हो गईं। सरला बेन आज तक अपना युगांडा का घर नहीं भूलीं। वो भी क्या समय था। सोचा भी नहीं था कि कभी ऐसा समय भी आएगा जब अपना बसा बसाया घर छोड़ना पड़ेगा।
घर तो छूटा सो छूटा लेकिन अब यह दर्द क्यों नहीं छोड़ रहा। सरला बेन जब से अपनी सहेली के घर से आई हैं कुछ बुझी-बुझी सी रहती हैं। अक्सर वह पेट में दर्द होने की शिकायत करती हैं...।
"सरोज बेटा... पेट में हल्का सा दर्द है... जरा एक गिलास पानी में एक चाय का चम्मच सोंफ, एक चम्मच अजवाइन और एक टुकड़ा अदरक का डाल कर गैस पर चढ़ा दो। जब पानी आधा रह जाए तो एक कप में डाल कर मुझे दे देना।"
"बा... इन सब से कुछ नहीं होगा मैं कल ही आपको डाक्टर के पास ले कर चलती हूँ। वैसे भी देखिए न आपका चेहरा कितना उतरा हुआ है।"
"डाक्टर के पास जाने से कुछ नहीं होगा दिकरा। थोड़ी गैस पेट में कहीं अटक गई होगी या बादी हो गई होगी सोंफ अजवाइन सब ठीक कर देगी।"
"आप की तो हर बीमारी का ईलाज घरेलू नुस्खे हैं जो सदैव काम नहीं आते बा," कहते हुए सरोज किचन की ओर चल दी।"
अभी दो दिन भी नहीं बीते थे कि आधी रात को सरलाबेन को पेट में असहनीय दर्द हुआ। वह बिस्तर पर छटपटा रहीं थीं। सरोज को बा के कमरे से कुछ आवाज आई।
वह जल्दी से उन के कमरे की ओर भागी। उन को ऐसी अवस्था में देख कर वह घबरा गई और पति को बुलाने लगी...।
"सुनिए जी... देखिए बा को क्या हो रहा है। जल्दी से उठिए और एंबुलेंस को बुलाइए।"
एंबुलेंस आई पता चला कि बा के गॉलब्लेडर में पथरी है जिसका शीघ्र ही ऑपरेशन करना पड़ेगा। बा को इंजेक्शन दिए गए जिसके कारण वह आधी बेहोशी की हालत में थीं। दूसरे दिन कुछ टेस्ट करने के पश्चात बा का ऑपरेशन करके उनका पूरा गॉलब्लैडर ही बाहर निकाल दिया गया। जिस में तीन बड़े पत्थर थे। यही पत्थर उन्हें परेशान कर रहे थे जो बा के घरेलू नुस्खों से कभी ठीक न होते।
बा हस्पताल से घर आ गईं। सुरेश भाई कुछ सोचते हुए पत्नी से बोले... "सरोज देखो कहीं निशा को बा के ऑपरेशन के विषय में मत बता देना। उसकी परीक्षा सिर पर हैं। तुम तो जानती हो वह नानी के लिए सब कुछ छोड़ छाड़ कर भागी आएगी।"
"नहीं जी मैंने भी यही सोचा है। अभी क्रिसमस की छुट्टियों में वह घर तो आएगी ही। तब तक बा भी काफी ठीक हो जाएँगी मिल लेगी उस समय वह नानी से।"
उनकी बात वहीं रुक गई जब फोन की घंटी बज उठी। इस समय कौन हो सकता है।
"हैलो... जी मैं हरभजन सिंह बोल रहा हूँ उधर से आवाज आई। नाम सुनते ही सुरेश भाई ने बुरा सा मुँह बनाया। उधर से फिर आवाज आई... सुरेश भाई मुझे पता चला है कि माँ जी का ऑपरेशन हुआ है। अब वह कैसी हैं। मैं उनसे मिलने आना चाहता हूँ।"
"शुक्रिया हरभजन जी। माता जी अब काफी ठीक हैं। इस समय कुछ दोस्त आए हुए हैं बा से मिलने। मै थोड़ा बिजी हूँ बाद में बात करेंगे कह कर सुरेश भाई ने मुँह में ही एक गाली दे कर फोन पटक दिया।"
सुरेश भाई को कभी गुस्सा नहीं आता मगर इस आदमी की आवाज सुनते ही इनका खून खौल उठता है। वह पत्नी की ओर देखकर बोले... "माँ ने इसका नाम कितना अच्छा रखा है हरभजन। हरी का भजन करने वाला। देखो न बुजुर्ग आदमी हैं। अच्छी खासी पेंशन मिलती है। दो बेडरूम का काउंसल का मकान मिला हुआ है। और क्या चाहिए जीने के लिए। इसकी ऐसी हरकतें देख कर तो बीबी ने भी घर से बाहर निकाल दिया है। भई वह अच्छे घर की औरत है। आखिर कब तक इसके कारनामों की शिकायतें सुनती रहेगी। इसकी एक बेटी भी है जिसके लिए यह दावा करता है कि उसे बहुत प्यार करता है परंतु वह बेटी भी कभी इसके साथ नहीं देखी गई।"
"बेचारे को कुछ चाहिए होगा। दे दीजिए दुकान से आपका क्या जाता है।"
"पहले मैं भी यही सोचता था लेकिन कब तक। हर चीज की एक सीमा होती है न। मैं सबका पेट भरता रहूँगा तो हम सबका पेट कौन भरेगा सरोज। अगर घोड़ा घास से ही यारी करने लगेगा तो खाएगा क्या।
एक शराबी जुआरी का घर कौन भर सका है। कहने को यह इनसान बहुत ही सुशिक्षित और बुद्धिमान है। चार भाषाओं का मालिक है। हिंदी, उर्दु, पंजाबी और अंग्रेजी। पर जिसको एक बार शराब और जुए की लत लग जाए वह हमेशा भूखा ही रहता है। उसकी मुट्ठी कभी बंद दिखाई नहीं देती हाथ सदैव फैले हुए ही मिलते हैं।
एक ऐसा इनसान जिससे सभी कतरा कर चलते हैं। दो पल भी पास खड़ा हो जाए तो नाक सड़ जाए। हाथ में लंबा छाता। कंधे से लटकता हुआ एक मटमैला थैला। पेंट से पेशाब की बू। सिर पर ढीली ढाली पगड़ी जो सिर घुमाने से पहले ही घूम जाए। आँखों और नाक से बहता पानी... यह है हरभजन सिंह की पहचान जो रोज नए मुर्गे फाँसने की ताक में रहता है।"
"यह सब करने के पीछे उसकी कोई मजबूरी भी तो हो सकती है," सरोज दबी आवाज में बोली।"
"मजबूरी बस एक ही है उसके पास कि शाम की शराब कहाँ से आएगी... कुछ सीधे साधे लेखकों को बड़े सब्जबाग दिखा कर उनसे सैंकड़ों पाउंड ऐंठ चुका है यह आदमी...। एक लेखक या कवि तो वैसे ही भावुक होता है। हरभजन को किसी की कमजोरी पता चल जाए फिर तो यह उसे ऐसे बातों में उलझाएगा कि वह लेखक बेचारा अपनी कहानियाँ या कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद करवाने को तैयार हो ही जाता है।
इसकी चालाकी भी तो देखो हर किसी के सामने उसकी बस एक ही शर्त रहती है कि वह कभी भी चेक नहीं लेता और पैसे हमेशा पेशगी ही लेता है। शुरू में चारा डालने के लिए कुछ काम भी कर के देता है। जिस नए लेखक से पैसे लिए उसकी आधी कहानी
उसे अंग्रेजी में अनुवाद करके देदी जिससे वह देख कर खुश हो जाए कि अनुवाद तो अच्छा करता है। बस फिर उसे भूल कर हरभजन दूसरे मुर्गे की ताक में चल पड़ता है।
ऐसा अधिक देर तक नहीं चलता सरोज। हर काम की एक अति होती है। इसने तो बेइमानी की सब हदों को पार कर दिया है। लॉफ़्बरो में कोई ऐसा इनसान नहीं जिसके आगे यह हाथ न फैला चुका हो। मेरी ही दुकान से इसने कितना सामान उधार लिया हुआ है जिसका भुगतान आज तक नहीं हुआ। एक दुकनदार कब तक किसी को उधार देता जाएगा। यह लोगों के अच्छे स्वभाव का खूब फायदा उठाता है।"
"बात चीत में तो यह आदमी बड़ा भला लगता है।"
"यह भला आदमी लायब्रेरी किसी काम से नहीं बल्कि घर की बिजली गैस बचाने के चक्कर में जाता है। आप तो जानती ही हैं कि ब्रिटेन में बिजली से अधिक गैस की खपत होती है क्योंकि घरों की सैंट्रल हीटिंग अधिकतर गैस से ही है। फिर सर्दियों के बिल तो आसमान को छू रहे होते हैं। कई बार तो लायब्रेरी वाले ही तंग आ कर इसे जाने के लिए बोल देते हैं।"
"बेचारा हरभजन..." अचानक सरोज के मुँह से निकला।
"कोई बेचारा वेचारा नहीं। इसका दिमाग बहुत ही शातिर है। कभी जाने माने लोग यदि हरभजन सिंह को सड़क पर सामने से आता देख लें तो वह अपना रास्ता ही बदल लेते हैं कि कहीं यह हमसे कुछ माँग ना ले। कभी दया भी आती है इस इनसान पर जो इतना पढ़ा लिखा हो कर भी भटक रहा है। यदि यह ठीक से काम करे तो इसका समाज में कितना नाम हो। इसकी हाथ की मुट्ठी सदैव बंद रहे। इज्जत हो, मान हो लेकिन नहीं... इस शराब और जुए की लत ने तो कितनों के घर बरबाद कर डाले हैं तो फिर हरभजन सिंह क्या है।"
सुरेश भाई अभी बैठे ही थे कि फिर फोन की घंटी बज उठी। वह बुरा सा मुँह बना कर उठे कि कहीं हरभजन न हो।
"पापा मैं निशा..."
"ओह हैलो बेटा। कैसा है मेरा बच्चा। पढ़ाई कैसी चल रही है?"
"पापा आज कल पढ़ाई के सिवा और कुछ सूझता ही कहाँ है। घर में सब लोग कैसे हैं। नानी ठीक हैं न। आज कल उनकी बहुत याद आती है।"
"वो भी तुम्हें बहुत याद करती हैं बेटा। अभी कुछ दिन पहले उनका एक छोटा सा ऑपरेशन हुआ है।"
"ऑपरेशन कैसा ऑपरेशन पापा। मुझे किसी ने क्यों नहीं बताया।"
"बस जल्दी में सब हो गया। नानी के गॉलब्लैडर में पथरी थी जिसके कारण उनके पेट में दर्द रहता था। अब सब ठीक है। दो सप्ताह हस्पताल में रह कर वापिस घर आ गई हैं। हमने सोचा तुम क्रिसमस पर तो घर आने वाली हो, कर लेना नानी से खूब लाड़ और बातें।"
"पापा मैंने यही बताने के लिए फोन किया है कि शायद इस क्रिसमस पर मैं घर ना आ पाऊँ।"
"नहीं बेटा चाहे दो दिन के लिए ही सही घर जरूर आना। सब लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। लो अपनी माँ से बात करो वह कब से फोन लेने के लिए कुलबुला रही हैं।"
"हैलो निशा बेटे मैं क्या सुन रही हूँ कि तुम क्रिसमस की छुट्टियों में घर नहीं आ रही।"
"मॉम आप तो जानती हैं कि बस अब यूनिवर्सिटी में हमारे कुछ ही महीने बाकी हैं। घर आकर पढ़ाई कहाँ होती है। या तो मैं जितेन से पंगे लेती रहती हूँ या आपसे और नानी से बातें करती रहती हूँ। घर आकर पढ़ने का किसका मन करता है माँ। अब नानी को देखने तो आना ही पड़ेगा।"
"इस बार तुम आराम से पढ़ना तुम्हें कोई तंग नही करेगा।"
"लेकिन मैं तो सब को तंग करूँगी न मॉम। जितेन घर पर हो और मैं पढ़ने बैठ जाऊँ ऐसा तो हो ही नहीं सकता यह आप भी जानती हैं। हाँ ऐसा कर सकती हूँ कि हमारी लायब्रेरी 25-26 दो दिन बंद है तब घर आ सकती हूँ लेकिन उन दो दिन तो न बसें चलती हैं न रेलगाड़ी। फिर कुछ सोचते हुए निशा बोली...
"ठीक है माँ मैं 24 रात को आती हूँ और फिर 27 सबेरे लेस्टर पहुँच जाऊँगी। प्लीज मॉम रोकने की कोशिश मत करिएगा।"
"ठीक है बेटा जैसे तुम ठीक समझो।"
"ठीक तो कल रात से किशन की तबियत ठीक नहीं है। निशा ने कमरे में आते ही जैकी से किशन के विषय में पूछा..." जैकी आज सुबह से किशन दिखाई नहीं दिया। किसी से कुछ बोल के गया है कि कहाँ जा रहा है और कब आएगा। निशा के पाँचों साथी एक दूसरे का बहुत ख्याल रखते हैं।
"वो तो घर पर ही है। फ़्लू के कारण बिस्तर से नहीं निकला। कल मिस्टर शॉपिंग करने गए और वापिसी में तेज बारिश में भीग कर आए हैं," जैकी ने बताया।
"हाँ लेकिन किसी ने उसे देखा, चाय वगैरह दी है। यह बहुत बुरी बात है। एक ही घर में रहते हुए एक दोस्त सुबह से बीमार है और किसी ने उसे पूछा तक नहीं...," कहते हुए निशा किशन के कमरे की ओर चल पड़ी।
युनिवर्सिटी का एक नियम है कि पहले वर्ष वह अपने छात्रों को युनिवर्सिटी होस्टल में रखते हैं। सब 18 वर्ष के बच्चे पहली बार घर से दूर हुए होते हैं। इस प्रकार उनके नए मित्र बनते हैं और दिल में बैठा हुआ डर भी थोड़ा दूर होता है। दूसरे वर्ष से सबको अपना रहने का स्थान स्वयं तलाश करना पड़ता है।
निशा और उसके मित्र एक तीन बेडरूम का घर किराए पर लेकर उसी में रहने लगे। एक कमरा सायमन और किशन का है, दूसरा कमरा थोड़ा बड़ा है। उसमें तीन पलंग लगे हुए हैं जिसमें लड़कियों ने अपना डेरा डाल लिया। तीसरे कमरे को इन्होंने पढ़ने का कमरा बना लिया। यदि देर सवेर किसी का पढ़ने का मन करे तो दूसरों की नींद खराब किए बिना वह उस कमरे में जा कर पढ़ सकता है।
निशा किशन के कमरे गई तो वह सो रहा था। निशा ने धीरे से हाथ किशन के माथे पर रखा बुखार देखने के लिए।
"मॉम..." किशन ने अपना गर्म हाथ निशा के हाथ पर रख दिया।
"मम्मा की याद आ रही है किशन...। फिकर मत करो मैं तुम्हें बिल्कुल ठीक कर दूँगी। पहले यह बताओ कोई दवा ली। कुछ खाया पिया या नहीं।"
"हाँ... पेरासिटामोल ली है और कुछ खाने का बिल्कुल मन नहीं है निशा।"
"मन कैसे नहीं है। मैं अभी तुम्हारे लिए बढ़िया सी अदरक की चाय के साथ कुछ खाने को लाती हूँ।"
रसोई में जाकर निशा जोर से बोली... "मैं अदरक की चाय बनाने जा रही हूँ किसी को चाहिए।"
" प्लीज एक कप इधर भी तीन आवाजें इकट्ठी आईं।"
निशा ने एक गैस के चूल्हे पर दो अंडे उबलने को रखे। दूसरे चूल्हे पर चाय के लिए पानी चढ़ा कर अदरक कद्दूकस करने लगी। अदरक के साथ उसने तीन चार पत्ते तुलसी के भी चाय के पानी में डाल दिए। निशा की यह आदत है कि जब भी लॉफ़्बरो जाती है वहाँ से थोड़े तुलसी के पत्ते लाकर फ्रीजर में रख देती है। जुकाम, खाँसी, बुखार के लिए तुलसी अदरक की चाय बहुत उपयोगी सिद्ध होती है।
"चाय बन गई है आकर रसोई से लेलो..." आवाज लगा कर निशा ने एक ट्रे में दो कप चाय, प्लेट में उबले अंडे व एक टोस्ट रख कर किशन को खिलाने उसके कमरे की ओर जाने लगी।
निशा ने सबको बताया कि उसे लॉफ़्बरो जाना है नानी को देखने।
"मत जाओ ना निशा... क्या तुम्हारा लॉफ़्बरो जाना जरूरी है," सायमन ने उसे सामान पैक करते देख कर कहा, "देखो बाहर कितनी जोरों से बर्फबारी हो रही है।"
"जाना जरूरी है। ना होता तो मैं रुक जाती सायमन। आज क्रिसमस ईव है। दिसंबर का महीना हो तो बर्फ गिरना कोई आश्चर्य की बात नहीं। खुशी तो इस बात की है कि बहुत वर्षों के पश्चात इस बार व्हाइट क्रिसमस होगी। और फिर मैं केवल दो दिन के लिए तो जा रही हूँ।"
"लेकिन तुम्हारे बगैर क्रिसमस..."
"छोड़ो यार हम 27 को क्रिसमस मना लेंगे," निशा सायमन की बात को बीच में ही काट कर उसकी गाल पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली।
क्रिसमस क्रिशचियन्स का सबसे अहं त्यौहार है जिसकी पूरे साल प्रतीक्षा की जाती है। सैंकड़ों पाउंड घर को सजाने मे, रंग बिरंगी बत्तियाँ लगाने में और तोहफे खरीदने में खर्च किए जाते हैं। लेकिन किसी का भी ध्यान उन अकेले रह रहे बुजुर्गों की ओर नहीं जाता जिनके कान अपनों का एक प्यार भरा बोल सुनने को तरस रहे होते हैं। कुछ के तो परिवार होते हुए भी वह अकेले हैं। कैसे अपने ही बच्चे एक कार्ड भेज कर अपना फर्ज पूरा कर लेते हैं। कुछ बदकिस्मत ऐसे हैं जिन्हें कार्ड भी नसीब नहीं होता। मिलता है तो एक लंबा इंतजार। यह इंतजार अपनों का है या मौत का कोई नहीं जानता।
क्रिसमस हो या ईस्टर उनके लिए सब एक समान है। बस हल्की सी एक आग की लौ के सामने बैठ कर बाहर गिरती बर्फ को देख कर वे ठिठुरते रहते हैं। घर को अधिक गर्म भी तो नहीं कर सकते कि बिल कहाँ से भरेंगे। कुछ खिड़की के सामने खड़े होकर बाहर झाँकते रहते हैं कि शायद भूले भटके कोई इधर का रुख कर ले। आज के दिन इनसान तो क्या कोई कुत्ता भी बाहर दिखाई नहीं देता। भई वो भी तो अपने मालिकों के संग क्रिसमस मना रहे होते हैं। इन बेचारे बुजुर्गों को मिलता है तो एक लंबा इंतजार... जब सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम और शाम से रात हो जाती है। आज के दिन भी कोई उनकी सुध लेने वाला नहीं। उनका जीवन प्रकृति के नियमों के साथ गुजरता चला जा रहा है।
उनके पास तो कोई नहीं आया परंतु निशा जरूर नानी के पास पहुँच गई। वह आते ही नानी से लिपट गई...
"देखो बेटा तुम्हारे आने से कितना अच्छा लग रहा है। घर में एक बार फिर से रौनक आ गई है नानी प्यार से निशा को गले लगा कर बोलीं।"
"क्यों नानी जितेन भी तो घर पर है। वह भी आपसे उतना ही प्यार करता है।"
"जितेन लड़का है। दोस्तों के साथ बाहर चला जाता है। घर आया एक दो औपचारिक बातें करके ऊपर अपने कमरे में जा कर गुम हो जाता है। अब तुम आई हो तो जितेन भी नीचे दिखाई देगा।"
"नानी सुना है हस्पताल में आप बड़ी मस्ती मार कर आई हैं। बड़े-बड़े वहाँ के अनुभव लेकर आ रही हैं। कुछ मजेदार बातें बताइए न।"
"हाँ बेटा कुछ बातें बाद में मजेदार लगती हैं मगर उस समय पूरे वार्ड की महिलाएँ बुरी तरह से डरी हुईं थी।"
"बताइए ना नानी क्या हुआ था निशा ने और पास आते हुए पूछा...।"
नानी चुस्कियाँ ले कर बताने लगीं... .
"हुआ यह कि रात का करीब दस बजे का समय था। सब मरीज दवा लेकर सोने की तैयारी में थे कि अचानक दो अफरीकन नर्स भागती हुई कॉरीडोर में से आईं। पीछे की तरफ ही पुरुषों का वार्ड था। हमारे वार्ड की सारी मरीज महिलाएँ कुछ सो गईं थी कुछ सोने की तैयारी में थीं। भागते हुए पैरों की आवाज सुन कर सब जल्दी से कंबल को ऊपर तक खींच कर बिस्तर पर बैठ गईं। वह अफरीकन नर्सें भी डरी हुई थी। उन के पीछे एक 6 फुट से ऊँचा गोरा आदमी जो अधेड़ उम्र का था हाथ में लोहे का लंबा स्टैंड लिए गुस्से से बड़बड़ाता चला आ रहा था।
महिलाओं के वार्ड में आते ही वह स्टैंड को डंडे के समान हिलाते हुए बोला कोई बात नहीं लड़कियों डरो मत मैं आ रहा हूँ तुम्हें इन एलियंस से बचाने के लिए...। जो उसके सबसे पास पलंग था उसके एक दम करीब जाकर वह खड़ा हो गया। उस पर बैठी एक तीस पैंतीस साल की महिला डर कर जहाँ तक हो सका पलंग के कोने पर चली गई। वह बुरी तरह से काँप रही थी।
एक नर्स हिम्मत करके आगे बढ़ के बोली... देखो यह सब मरीजों के सोने का समय है आप भी अपने वार्ड में जाइए। दूसरी नर्स ने जल्दी से सिक्यूरिटी गार्डस को फोन कर के बुला लिया।
उस नर्स को देख कर वह डंडा उठा कर दो कदम आगे बढ़ा।
वहीं रुके रहो आगे मत बढ़ना नहीं तो अच्छा नहीं होगा। नर्स को डर था कि कहीं यह मरीजों को क्षति न पहुँचाए। वह उसी पहले पलंग के पास जाकर उस डरी हुई महिला को आँख से और हाथ से इशारा करके बोला...
कम ऑन गर्ल, डरो मत। मैं अब आ गया हूँ। यह एलियंस तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। तुम चलो मेरे साथ। उसने उस महिला की ओर हाथ बढ़ाया तो वह डर कर चीख पड़ी। इतने में दो सिक्यूरिटी गार्डस वहाँ आ गए और बड़े प्यार से उस आदमी के हाथ से डंडा लिया और हाथ पकड़ कर उसे उसके वार्ड में ले गए।"
"उस बेचारी महिला का क्या हुआ नानी। उसकी तो डर के मारे जान निकल गई होगी।"
"उसकी क्या हम सबकी जान निकली हुई थी। ऐसे सिर फिरे का क्या भरोसा कब क्या कर डाले।"
"क्या फिल्मी ड्रामा था नानी। मुझे नहीं मालूम था कि हस्पताल में ऐसे भी कारनामे होते हैं। कुछ और बताइए न नानी," निशा मजे लेते हुए बोली।
"क्या बताऊँ बेटे दिल दुखता है ऐसी बातें बताते और सुनते हुए। ऑपरेशन के बाद जब मैं थोड़ा चलने फिरने के काबिल हुई तो मुझे दूसरी जगह भेज दिया गया। इस वार्ड में कमरे थे। एक कमरे में चार पलंग और सारे पलंग मरीज महिलाओं से भरे हुए थे। हमारे साथ वाले कमरे से किसी महिला की जोर से आवाजें आने लगी।
मुझे छूना मत, दूर रहो मुझ से। अपने गंदे काले हाथ मुझसे दूर रखो। आवाज सुन कर स्टाफ नर्स भागी हुई उस कमरे में गई।
क्या बात है यह कैसा शोर हो रहा है इस कमरे में वह गुस्से से बोली। इस वार्ड में और भी मरीज हैं। यह सब क्या तमाशा है नर्स।
तमाशा तो यह कर रही हैं सिस्टर। आपके कहने से मैं इन्हें टीका लगाने आई और यह चिल्लाने लगीं।
सिस्टर, मुझे इसके गंदे हाथों से टीका नहीं लगवाना। आप किसी गोरी नर्स को भेजिए। पता नहीं लोगों को क्या होता जा रहा है। जहाँ देखो तरह तरह की शक्लें दिखाई देती जिन्हें देखते ही लोग और बीमार पड़ जाएँ।
बस बहुत हो गया... सिस्टर दबी आवाज में बोली...। यह एन.एच.एस. है जहाँ आप लोगों का मुफ्त इलाज होता है। यहाँ काले गोरे का कोई भेद भाव नहीं है। यह नर्सें जी जान लगा कर कितनी मेहनत से आप लोगों की सेवा कर रही हैं और उसके परिणाम में आप उन्हें यह दे रही हैं। यदि इतनी ही मनमानी का शौक है तो पैसा खर्चा करके प्राइवेट हस्पताल में चली जाओ। वहाँ भी आपको मनपसंद नर्सें नहीं मिलेंगी।
नर्स लगाओ टीका... सिस्टर ने आदेश दिया।
देखो नजदीक मत आना मेरे, मैं तुम सब की शिकायत कर दूँगी। वह चिल्लाती रही। दो और नर्सों ने उसका हाथ पकड़ा और उसे टीका लगाया गया जो उसके लिए बहुत जरूरी था।"
"उफ नानी अभी भी रंग को ले कर इतनी घृणा लोगों के मन में है"
"यही नहीं बेटा एक और बात सुनाऊँगी तो तुम हैरान हो जाओगी। मुझे स्कैन के लिए ले जाया गया। वहाँ पहले से ही कुछ लोग बैठे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। वहाँ एक काफी बुजुर्ग करीब 90-92 वर्ष के मरीज भी थे जो पलंग पर लेटे हुए थे। उनके साथ नर्स भी थी सहायता के लिए। वह बुजुर्ग स्वयं करवट भी नहीं बदल सकते थे। पोर्टर आया और उस पलंग और दूसरी व्हील चेयर के बीच में जगह खाली देख कर उसने एक व्हील चेयर वहाँ लगा दी। उस व्हील चेयर पर एक गोरे रंग का लड़का बैठा हुआ था जो स्कैन करवाने आया था। उसके साथ उसकी माँ भी थी। दोनों माँ बेटा धीरे धीरे बात कर रहे थे।
पहले तो वह बुजुर्ग उस गोरे लड़के और उसकी माँ को देख कर खुश दिखाई दिए। जैसे ही उनकी बातें उनके कानों में पड़ीं तो वह बुरी सी शक्ल बना कर मुँह में कुछ बड़बड़ाए। फिर मुँह में दो उँगलियाँ ऐसे डालीं जैसे कुछ इकट्ठा कर रहे हों। उन्होंने अपनी उँगलियाँ उस लड़के की दिशा में झटक दीं। उन्होंने यह एक बार नहीं कई बार किया।
अपनी ओर से वह उस लड़के पर थूक रहे थे परंतु हाथों में इतनी ताकत तो थी नहीं यदि कुछ उँगलियों पर कुछ लगता भी था तो वो उनके बिस्तर पर ही गिर जाता था।"
"तौबा नानी... किसी ने उनसे कुछ कहा नहीं...।"
"कहने की बात यह है बेटा कि अपनी जान का पता नहीं कि कब ऊपर से बुलावा आ जाए। दुख होता है यह सोच कर इतनी नफरत लेकर लोग जाएँगे कहाँ। कहीं चमड़ी के रंग से नफरत तो कहीं भाषा को लेकर। यह आज कल की नई पौध ही रंग रूप के भेद-भाव को मिटाने के लिए कुछ कर सकती है।"
"करेगी क्या नानी कर रही है। आज कल के पढ़े लिखे युवा लोगों के पास इन सब फजूल की बातों के लिए कोई समय नहीं है। सब इकट्ठे मिल कर रहते हैं, खाते पीते हैं, मस्ती मारते हैं। हमारी डीमॉटफर्ट यूनिवर्सिटी में ही देखो हर देश, हर शहर से छात्र आए हुए हैं। सबमें एक भाईचारा है। एक दूसरे की सहायता करते हैं। यदि हम भी यह ऊँच नीच, रंग रूप, भेद भाव करने लगें तो पढ़ेगा कौन। आप ऐसी बातों पर ध्यान ही मत दिया करिए। यह कुछ ही दकियानूसी लोग हैं जिन्हें उनके बच्चे ठीक करेंगे।
आप देखिएगा नानी हमारी आने वाली पीढ़ियाँ इन्हें कैसा सबक सिखाती हैं। यह बहुत इतराते हैं ना कि सारी दुनिया में राज्य करके आए हैं अब हम इन पर राज्य कर के दिखाएँगे।"
"क्या ऐसा कभी होगा।"
"यदि हमारे समय में नहीं तो आने वाले समय में तो जरूर होगा। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जैसे एक ही ऋतु हर समय नहीं रहती वैसे ही एक ही समय हर वक्त नहीं रहता। अब बदलाव आने का समय आ गया है।
ठीक है नानी आप आराम करिए मैं जरा देख कर आऊँ कि माँ क्या कर रही हैं।"
***
"मॉम ऑपरेशन के बाद नानी काफी कमजोर हो गई हैं। अब उनकी आयु भी दिखाई देने लगी है। मेरा नानी से वादा है कि मैं उन्हें नवसारी ले कर जाऊँगी। मेरी परीक्षा मई के दूसरे सप्ताह में समाप्त हो जाएगी। फिर एक डेढ़ महीना काम वगैरह ढूँढ़ने में लग जाएँगे। पापा से कहिए जुलाई के पहले सप्ताह की भारत की तीन टिकटें बुक करवा देंगे।"
"यह तीसरा कौन जा रहा है बेटा... तेरे पापा..."
"नहीं माँ पापा से बात हुई थी वह दो तीन हफ्ते के लिए दुकान छोड़ कर नहीं जा पाएँगे। तीसरा मैं सायमन को साथ ले जा रही हूँ।"
"यह सायमन कुछ ज्यादा ही अंदर घुसने की कोशिश नहीं कर रहा। मुझे तेरा उसके साथ बहुत मिलना जुलना अच्छा नहीं लगता। यह दोस्ती बढ़ते-बढ़ते कोई और ही रूप ना लेले बस इसी बात का डर है...।"
"मम्मा... यह सब बेकार की बातें करना छोड़िए। वह तो मेरे साथ आकर हम सब पर एहसान कर रहा है। सोचिए दो अकेली औरतें, एक अजनबी शहर ही नहीं अजनबी देश में जा रही हैं। नानी को भी भारत या नवसारी के विषय में कुछ नहीं मालूम। एक आदमी के साथ होने से हौसला कितना बढ़ जाता है।"
"पर बेटा लोग क्या कहेंगे। कोई पूछेगा यह छोकरा कौन है तो क्या जवाब दोगी।"
"कौन पूछेंगे मुझसे माँ... जिन्हें मैं जानती भी नहीं...। किस हक से कोई पूछेगा मुझसे... ऐसे लोगों को मुझे जवाब देना आता है। रही बात सायमन की तो वह हमारे साथ जरूर जाएगा। आप जानती भी हैं मॉम कि मेरे लिए सायमन अपनी नौकरी एक महीना देर से शुरू कर रहा है केवल इसलिए कि अजनबी देश में मैं अकेली न जाऊँ। वो भी नानी के साथ।"
"कुछ भी हो मुझे तेरा सायमन के साथ इतना लगाव अच्छा नहीं लगता," सरोज कहते हुए दूसरे कमरे में चली गईं।
अब किसी को अच्छा लगे या न लगे सुरेश भाई ने भारत के लिए तीन टिकटें बुक करवाने की सोच ली। सुरेश भाई खुश थे कि निशा अकेली नहीं होगी सायमन भी साथ होगा।
***
परीक्षा समाप्त हो गई। कुछ छात्रों की पढ़ाई डिग्री तक ही सीमित थी और कुछ ने आगे और पढ़ने की सोची। मगर यह आखिरी छुट्टियों का कुछ समय सभी साथ बिताना चाहते थे। यूनिवर्सिटी की यादें, वो दोस्तों के साथ खट्टे-मीट्ठे नोंक-झोंक हर कोई सँजो कर साथ ले जाना चाहता था।
मौसम खुलने लगा था...। दिन में गर्मी महसूस होने लगी थी...। ऐसा मौसम हो तो सारे पार्क भी भरे हुए दिखाई देते हैं फूलों से भी और बंदों से भी। लोगों के कपड़े भी उतरने लगते हैं। बाजारों में भी चहल पहल बढ़ जाती है।
अकेले होते ही सायमन ने पूछा
"निशा काम के लिए कोई पत्र आया।"
"नहीं सायमन शेफील्ड या डारबी से आने वाले पत्रों का ही इंतजार कर रही हूँ। मुझे यकीन है कि एक दो दिन में कोई जवाब जरूर आ जाएगा।"
"मैं तभी शेफील्ड का काम लूँगा अगर तुम्हें भी वहाँ मिल जाएगा तो..."
"पागल मत बनो सायमन... तुम तो किस्मत वाले हो कि तुम्हे तुम्हारी मर्जी का काम मिल रहा है। ऐसे मौके बार-बार नहीं आते। मुझे यदि शेफील्ड में नहीं तो आस पास भी कहीं मिल गया तो भी काम चल जाएगा।"
"अच्छा चलो तुम्हारा मूड ठीक करने के लिए कल बोट-ट्रिप पर चलते हैं," निशा सायमन का हाथ थामते हुए बोली।
"इसका मतलब हम फिर लॉफ़्बरो जाएँगे..."
"नहीं बुद्धू... देखा नहीं केनाल्स लेस्टर में भी हैं। यहाँ लॉफ्बरो रोड पर ही छोटी बड़ी कश्तियों का स्टेशन है जहाँ जाकर हम कश्ती बुक कर सकते हैं। चलो यूनी चल कर औरों से भी पूछ लेते हैं। जितने अधिक लोग होंगे उतना मजा आएगा साथ में पिकनिक भी हो जाएगी।"
पिकनिक का नाम हो और घूमने को मिले तो कौन मना करेगा। पाँच निशा और उसके साथी और सात और लोगों को लिया गया जो 12 लोगों की कश्ती किराए पर ली जाए। पिकनिक के लिए सबको लिस्ट दे दी गई कि कौन क्या सामान ले कर आएगा। सब बहुत उत्सुक दिखाई दे रहे थे।
कश्ती किराए पर लेते हुए पहले ही बता दिया था कि उन्हें कश्ती के साथ बंधी छोटी डिंगी भी चाहिए। सब लोग अपनी इस ट्रिप का भरपूर मजा उठाना चाहते थे जो अच्छी यादों को साथ ले जा सकें।
कश्ती में घुसते ही सब भाग कर ऊपर डैक पर चले गए। तय होने लगा कि पहले डिंगी में कौन बैठेगा। हर किसी के लिए यह नया अनुभव था। सब के नाम की परचियाँ डाली गईं और उसी क्रम से सबको जाना था।
कश्ती को रोका गया जो चार लोग डिंगी में बैठ जाएँ।
"आप सब लोग डिंगी को कस के पकड़ लेना। चलते ही झटका लग सकता है सीधे पानी में गिरोगे," चालक ने सब को सावधान किया।"
जैसे ही कश्ती चली डिंगी में लोगों को देख कर खाने के लालच में बतखों ने उनकी डिंगी को चारों ओर से घेर लिया। नीचे बतखें और ऊपर पक्षी सब खाने की तलाश में उनके साथ चलने लगे। एक दो बतखें तो डिंगी के ऊपर भी आ गईं।
बतखों को भगाने के चक्कर में नाविक ने कश्ती की रफ्तार थोड़ी बढ़ा दी। ऐसा करते ही डिंगी उछल उछल कर कश्ती के साथ भागने लगी और चारों बैठे हुए लोग बुरी तरह से भीग गए। चारों दोस्त एक दूसरे को थामे हुए थे। जब ठंडे पानी और हवा से काँपने लगे तो बारी बारी से डिंगी छोड़ कर कश्ती में बैठे दोस्तों में शामिल हो गए।
केनाल के लॉक सिस्टम से सब बहुत प्रभावित हुए कि कैसे लॉक खुलते ही आगे की केनाल से पानी उनकी केनाल में भरने लगा जिससे धीरे धीरे कश्ती उस पानी के साथ उठते हुए उसकी सतह तक पहुँच गई। ऐसा लॉक सिस्टम केवल ब्रिटेन की केनाल्स में ही देखने को मिलता है।
एक पब के पास आकर नाविक ने कश्ती रोक दी..., "इस पब का खाना बहुत अच्छा होता है। आप चाहें तो यहाँ खाने और ड्रिंक का आनंद ले सकते हैं।" सब ने हँसी मजाक के साथ पब के खाने का भी तुत्फ उठाया। शाम को यह लोग थक टूट कर अपने कमरों में वापिस पहुँचे। पेट भरे हुए थे ही। आते ही सब बिस्तर पर गिर गए...।
***
गर्मी के मौसम में बेलग्रेव रोड पर टूरिस्ट बसें चलने लगती हैं। यह टूरिस्ट बसें हर समय यात्रियों से खचाखच भरी हुई मिलती है। गर्मी की छुट्टियों में दूर-दूर से लोग बच्चों के साथ यहाँ घूमने आते हैं। ये बसें खुली छत वाली होती हैं। हर बस के साथ एक गाइड होता है जो रास्ते भर उस स्थान के विषय में बताता रहता है।
इन वसों को हॉप ऑन, हॉप ऑफ बसें कहते हैं। एक ही रास्ते पर तीन चार बसें यात्रियों की सुविधाओं के लिए चलाई जाती हैं। जहाँ चाहो एक बस से उतरो... जो भी देखना है देखो... खरीदना है खरीदो... और पीछे आती दूसरी बस में बैठ जाओ। इसका असली कारण लोगों को लेस्टर की ओर आकर्षित करना है।
कुछ लोग ऊपर खुली छत पर बैठे हैं और कुछ नीचे।
बच्चे हाथ पे हाथ धरे एक स्थान पर कहाँ बैठ सकते हैं। एक नटखट बालक चीजों से खेल रहा है...
"मॉम मैं यह खिड़की का शीशा गिरा दूँ बाहर से ठंडी हवा आ रही है।"
"नहीं खिड़की से दूर रहना कहीं चोट न लग जाए। कितनी अच्छी धूप है जाओ तुम भी ऊपर जाकर अपनी बहन के साथ बैठो।"
गाइड बता रहा था... "यह है बेलग्रेव रोड... जिसे सोने के आभूषणों की खान कहते हैं। हर दूसरी दुकान यहाँ आभूषणों की दुकान है तभी तो इसे गोल्डन माइल बोलते हैं। बाकी की कुछ दुकानों पर साड़ियों ने अपना अधिकार जमाया हुआ है। महिलाएँ ऐसी जगह पर आएँ और बिना आभूषण या साड़ी खरीदे चली तो यह तो संसार का सबसे बड़ा अजूबा होगा। कई बार तो बेलग्रेव की दुकानों पर साड़ियों के दाम भारत से भी कम मिलते हैं। यहाँ की दुकानों पर कंपिटीशन बहुत है जिससे दुकानदार कम मुनाफे पर अपना सामान बेचते नजर आते हैं और खरीदार उसका लाभ उठाते हैं।
जो एक बार लेस्टर आता है वह बार-बार आता है और अकसर यहीं का होकर रह जाता है। ऐसा है हमारा लेस्टर जहाँ के टैक्सी ड्राइवर भी आपको सहायता करने वाले और बहुत मिलनसार मिलेंगे। यहाँ के पुराने टैक्सी वाले लेस्टर का पूरा इतिहास जानते हैं। टैक्सी में, दुकानों पर, रेस्तराँ में यहाँ के स्थानीय हिंदी प्रसारण के रेडियो पर बजते हुए हिंदी के गाने अपने भारतवर्ष की याद दिलाते हैं। यहाँ के तरह तरह के स्वादिष्ट खानों का मजा ही कुछ और है। रेस्तराँ से उठती हुई खाने की खुशबुएँ ऐसी कि लोग स्वयं ही आने पर मजबूर हो जाएँ। विभिन्न पकवान। गुजराती, पंजाबी, बंगाली, पाकिस्तानी, मद्रासी के साथ साथ इटेलियन, स्पेनिश और अंग्रेजी खाने आदि भी मिलते हैं। कहते हैं कि जिसने ब्रिटेन में आकर यहाँ की मशहूर फिश एंड चिप्स नहीं खाया उसने कुछ नहीं खाया।
हालाँकि बेलग्रेव रोड हिंदू प्रधान है फिर भी आपको पाकिस्तानियों की भी कुछ दुकानें मिलेंगी। ब्रिटेन में लेस्टर एक ऐसा शहर है जहाँ धर्म को लेकर, राजनीति को लेकर कभी भी हिंदू मुसलमानों में कोई दंगा फसाद या झगड़ा नहीं हुआ जैसा कि ब्रिटेन के अन्य शहरों ब्रेडफर्ड, प्रेस्टन आदि मुसलमान प्रधान शहरों में कभी कभी दिखाई दे जाता है। इनके विचारों में कितनी भी असमानता क्यों ना हो लेकिन एक भाईचारा भी है। इसमें लेस्टर काउंसिल का भी पूरा योगदान है।
यदि दीवाली पर बेलग्रेव रोड को बत्तियों से सजाया जाता है तो ईद पर हाईफील्ड रोड भी जगमगाती है। यदि इनमें दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी नहीं दिखाई देती। सब मिल जुल कर त्यौहार मनाते हैं।
बच्चों के लिए सब से बड़ा आकर्षण यहाँ का स्पेस सेंटर है। बाहर से ही इसका बड़ा अच्छा आकार बनाया गया है बिल्कुल स्पेस शटल की तरह। अंदर जा कर तो ऐसा लगता है जैसे आप अंतरिक्ष में पहुँच गए हों।
आज यहाँ पर बच्चों का कुछ खास ही जमघट लगा हुआ है। ब्रिटेन की एक बहुत बड़ी अंतरिक्ष यात्री हेलन शार्मन यहाँ आई हुई हैं। जो बच्चों के साथ अंतरिक्ष में भी जाएँगी और उनके सवालों का जवाब भी देंगी। स्पेस सेंटर वाले यहाँ बच्चों को आकर्षित करने के लिए किसी न किसी स्पेस से संबंध रखने वाले लोगों को बुलाते रहते हैं जो बच्चों की इसमें रुचि बढ़े और अंतरिक्ष के विषय में जानने को मिले।
जिज्ञासु बच्चे हेलन शार्मन से सवाल पूछ रहे हैं और उनके साथ स्पेस सेंटर की अंतरिक्ष यात्रा पर जाने के लिए भी उत्सुक हैं। वहीं पर एक कमरे को स्पेस शटल का नाम दिया गया है। यहाँ कमरे में चारों ओर बड़ी बड़ी टी.वी. स्क्रीन लगाई गई हैं। पूरा स्पेस का माहौल बनाने का प्रयास किया गया है। जैसे ही हेलन ने बच्चों के साथ कमरे में प्रवेश किया बत्तियाँ बुझा कर टी.वी. स्क्रीन चालू कर दी गईं। स्क्रीन पर हेलन अपने साथियों के साथ अंतरिक्ष में उड़ रहीं थी। पीछे से कमेंट्री आ रही थी। थोड़े समय के पश्चात बच्चों को ऐसा अनुभव होने लगा जैसे वो भी उन सब के साथ अंतरिक्ष में उड़ रहे हों। यह अपने में ही बच्चों के लिए एक बहुत अच्छा अनुभव था।
यहीं पर अंतरिक्ष से लाई गई रॉक (पत्थर का टुकड़ा) भी प्रयटकों को दिखाने के लिए रखी गई है। सब बच्चों ने हेलन शार्मन से प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासा मिटाई और जाते जाते हेलन शार्मन की ऑटोग्राफ ली, उनके साथ तसवीरें उतरवाईं।
लेस्टर में बच्चे ही नहीं हर आयु के लोगों के लिए कुछ न कुछ है। जैसे बुजुर्ग महिलाओं के लिए मंदिर हैं, बेलग्रेव रोड पर ही नेबरहुड सेंटर है जहाँ लोगों को सेहत के विषय में, बेनिफिट्स वगैरह के विषय में सलाह दी जाती है। यहाँ हर धर्म के मंदिर खुल गए हैं। स्वामी नारायण मंदिर, साईं बाबा, जला राम मंदिर, गीता भवन... जो बेलग्रेव रोड के आस पास ही हैं। जब बच्चे स्पेस सेंटर देखने गए थे उस समय बुजुर्ग इन मंदिरों के दर्शन कर रहे थे।
***
दूर से निशा को आते देख सायमन वहीं रुक गया। निशा का चेहरा उदास व पलकें झुकी हुई थीं। वह धीरे से कदम उठाती सायमन की ओर बढ़ने लगी।
"क्या बात है निशा। आज सुबह डाकिए से चिट्ठी लेते हुए मैंनें तुम्हें देखा है। कोई बुरी खबर।"
"हाँ शेफील्ड से चिट्ठी आई है।"
"अरे यदि उन्होंने तुम्हारी अर्जी को नामंजूर कर दिया है तो इसमें इतना उदास होने की क्या जरूरत है। हम दूसरे शहरों में इंटरव्यू के लिए और अर्जियाँ भेजेंगे।"
"अरे बुद्धू मुझे इंटरव्यू का पत्र आ गया है और दो दिन के बाद ही बुलाया है निशा सायमन के हाथ पकड़ कर उसे घुमाते हुए बोली।"
"तुमने तो मेरी जान ही निकाल दी थी निशा।"
"चलो इसी बात पर कहीं घूमने चलते हैं। खाना भी मेकडोनल्ड में खाएँगे।"
निशा और सायमन हाथों में हाथ डाले मेकडोनल्ड से बाहर निकल ही रहे थे कि सामने किसी पर नजर पड़ते ही निशा चौंक गई। मिसेस फिश... वह भाग कर जा उस महिला के गले लग गई।
"अरे निशा... .. कितनी बड़ी हो गई हो। क्या कर रही हो आज कल।"
"मैंने अभी युनिवर्सिटी का अंतिम वर्ष पूरा किया है। मिसेस फिश यह है मेरा दोस्त सायमन...। सायमन यह मेरी सैकंडरी स्कूल की अध्यापिका मिसेस हेजल फिश हैं जो मेरी ही नहीं सब छात्रों की चहेती हैं।"
"और सायमन मैं यह भी बता दूँ कि यह हमारे स्कूल की सबसे होनहार लड़की निशा है" मिसेस फिश बोलीं... "अभी मैं जरा जल्दी में हूँ निशा। स्कूल के छात्रों को एक छोटे से ट्रिप पर लेकर जा रही हूँ। यह मेरा कार्ड है तुम फोन करना। फिर हम आराम से बैठ कर बातें करेंगे। तुम से मिल कर बहुत खुशी हुई सायमन। फिर मिलते हैं।"
निशा काफी देर तक मिसेस फिश को जाते हुए देख कर बोली..., "जानते हो सायमन यह हमारे सैकंडरी स्कूल की सबसे अच्छी और चहेती अध्यापिका हैं। लड़कियाँ तो बस इनके आगे पीछे घूमती रहती हैं।"
"वह तो मैंने देख ही लिया है जिस प्रकार तुम उनके गले मिली हो।"
"तुम्हें एक बार का बड़ा मनोरंजक किस्सा सुनाती हूँ। मैं सैंकंडरी स्कूल में मिसेस फिश की कक्षा में थी। बंगलादेश से आई हुई कुछ लड़कियाँ भी मेरी कक्षा में थीं। यह लड़कियाँ किसी से मिल जुल कर नहीं रहती थीं। बस अपना ही इनका एक गुट होता था। हमेशा की तरह मिसेस फिश ने छात्रों का एक छोटा सा ग्रुप बाहर वुड्स में ले जाना चाहा जहाँ बच्चे फूल और पौधों को देख कर उनका नाम पहचानें। मिसेस फिश कक्षा में लैक्चर देने के स्थान पर बच्चों को खुले में ले जाना अधिक पसंद करती हैं जहाँ बच्चे एक बंदिश नहीं खुश होकर अपने अनुभव द्वारा सीखें।
कुछ सोच कर 16 बच्चों का एक ग्रुप तैयार किया गया। छात्र अधिक होने के कारण एक और अध्यापक मिस्टर विक्टर जेम्स साथ चलने को तैयार हो गए। अपने निर्धारित स्थान पर आकर बस रुक गई। सब बच्चों में उत्साह था।
उस छोटे से जंगलनुमा स्थान में प्रवेश करने से पहले थोड़ी लंबी घास थी जिसको पार कर के ही अंदर प्रवेश करना था। बाकी बच्चे तो कुछ परवाह किए बगैर घास को रौंदते हुए अंदर चले गए लेकिन कुछ बंगाली लड़कियाँ एक दूसरे का हाथ थामे डरती हुई वहीं रुक गईं।
"साइमा क्या बात है तुम लोग रुक क्यों गईं चलो आओ सामने से मिसेस फिश की आवाज आई।"
"नहीं मिस हम इस लंबे घास में नहीं आएँगी," एक लड़की ने काँपती आवाज में कहा।
"क्यों इस घास में ऐसी क्या खास बात है और बच्चे भी तो आए हैं।"
"मिस ऐसे लंबे घास में साँप होते हैं हम नहीं आएँगी।"
"साँप और यहाँ ब्रिटेन में..." मिसेस फिश कुछ सोचते हुए फिर से घास को पार करके उन लड़कियों के पास पहुँचीं। देखो यह ब्रिटेन है। एक ठंडा देश। साँप गर्म देशों में होते हैं। जहाँ गर्मी के पश्चात बारिश होती है तो साँपों को अपने बिल से बाहर भोजन ढूँढ़ने के लिए या अपनी सुरक्षा के लिए बिल से बाहर आना पड़ता है। बंगलादेश, भारत, अफरीका आदि ये सब गर्म देश हैं इसलिए वहाँ साँप पाए जाते हैं। यहाँ के ठंडे मौसम में बेचारे कीड़े मकोड़े भी डरते हुए सामने आते हैं तो फिर साँप बिच्छू की क्या मजाल जो हिम्मत दिखाएँ। यहाँ कोई साँप नहीं हैं चलो आओ मेरे साथ। सभी लड़कियों ने डरते हुए घास को पार किया।"
"क्या ऐसे गर्म देशों में साँप सड़कों पर घूमते हैं निशा। ऐसी जहरीली चीज से डर तो लगता ही है ना...," बात करते हुए भी सायमन एक झुरझरी महसूस कर रहा था।
"नहीं सायमन... जितना मनुष्य साँप से डरते हैं उससे कहीं अधिक साँप मनुष्य से डरता है इसीलिए अपनी सुरक्षा हेतु वह पहले आक्रमण करता है। साँप का काटा एक बार बच भी सकता है परंतु मनुष्य के वार से साँप नहीं बच सकता।"
"तुम कुछ अपनी बचपन के स्कूल की बात बता रही थी निशा... फिर क्या हुआ?"
अरे हाँ... फिर क्या, सब बच्चे पेड़, पौधे, फूलों का नाम लिखने में व्यस्त हो गए। थोड़ी देर में मिस्टर जेम्स की आवाज आई... बस फूल पत्तों के नाम लिखने का समय समाप्त हुआ। अब हम एक और खेल खेलते हैं। उन्होंने चार-चार बच्चों के चार ग्रुप बनाए। प्रत्येक ग्रुप का एक ग्रुप लीडर चुना गया। हर लीडर को एक कंपस दिया गया।
हाँ तो बच्चों आप लोग जानते हैं कि इस कंपस का प्रयोग कैसे किया जाता है। आप सब लोगों को कक्षा में मैं यह पढ़ा चुका हूँ। यह अब आप सब की असली परीक्षा का समय है। हम यह देखेंगे कि किसको कितना याद है। ग्रुप लीडर इसी लिए चुना गया है कि सब उसकी बात सुनें और ग्रुप लीडर का यह कर्तव्य है कि वह अपने पूरे ग्रुप की रक्षा करे। उन्हें सही सलामत वापिस ले कर आए।"
उनके कंपस को सेट करके चारों ग्रुप के बच्चों को चार अलग दिशाओं भेज दिया गया यह कह कर कि सब को आधे घंटे में यहीं वापिस आना है। जो समयानुसार वापिस आएगा उसे उसी हिसाब से अंक दिए जाएँगे। बस फिर क्या था हम सब लोग भाग पड़े अपनी दिशाओं की ओर।"
सायमन जो बड़े ध्यान से निशा की बातें सुन रहा था निशा के रुकते ही बोला...
"अभी तुम्हारी एक और दिशा है निशा जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।"
"हाँ जानती हूँ सायमन, बस आज शाम से ही उसकी तैयारी में लग जाऊँगी।"
"निशा कल तुम कुछ स्टीम इंजन की गाड़ियों के विषय में बता रही थी ये स्टीम इंजन गाड़ियाँ भी तो गर्मियों में ही चलती हैं न।"
"हाँ... यह छोटे डिब्बों वाली गाड़ियाँ होती हैं जो स्कूल के बच्चों की गर्मी की छुट्टियों में चलाई जाती हैं। यह गाड़ियाँ हर स्टेशन से नहीं चलतीं। इनके निर्धारित शहर होते हैं। लेस्टर से ऐसी कोई गाड़ी नहीं चलती लॉफ़्बरो से चलती है। यही तो आकर्षण है इन गाड़ियों का जिसका बच्चे भरपूर मजा उठाते हैं। यह गाड़ियाँ हर रोज नहीं चलतीं। इनका भी दिन और समय निर्धारित होता है। इनकी टिकट भी बहुत पहले से लेनी पड़ती है।"
"हम अभी से टिकट बुक करा लेते हैं फिर शेफील्ड से आकर चलेंगे," सायमन जल्दी से बोला।
"निशा सायमन की उत्सुकता देख कर हँसते हुए बोली..., "वैसे तो स्टीम रेल बच्चों के लिए होती है तुम्हारा मन है तो हम ले चलेंगे अपने बेबी को।"
"क्यों बच्चों के साथ बड़े नहीं होते," सायमन ने चिढ़ कर कहा।
"बाबा नाराज क्यों होते हो। मैं तो छेड़ रही थी। अधिकतर बच्चों के साथ उनके ग्रेंड पेरेंटस होते हैं। यह स्टीम गाड़ी हर छोटे स्टेशन पर रुकती हुई जाती है। यह वही लाइन है जहाँ कभी कोयले से भरी माल गाड़ियाँ चला करती थीं।"
कोयले की बंद खदानें, जिनके आगे अब बड़ी घास और झाड़ियाँ उग चुकी हैं उन्हें देख कर कई बुजुर्गों की पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं। यह सोच कर कि अभी कल की ही बात लगती है जब वह इन खदानों में काम किया करते थे उनकी पलकें भीग जाती हैं। छोटे बच्चों के लिए यह एक नया अनुभव होता है जिसे वह बड़े उत्सुक हो कर बड़ों से बाँटते हैं। गाड़ी प्रत्येक छोटे स्थान पर रुकती हुई आगे बढ़ती जाती है। कुछ बच्चे जिन्होंने पहले कभी गाड़ी नहीं देखी उनके लिए तो यह एक बहुत बड़ी बात है।"
"मैं जानती हूँ यह तुम्हारे लिए भी बड़ी बात है। तुम कभी स्टीम रेल पर नहीं बैठे। हम घर चल कर इंटरनेट पर टिकट बुक कर लेंगे।"
"अच्छा सायमन यह सामने बोर्ड पढ़ो क्या लिखा है...," लेस्टर ब्रिटेन का सर्व प्रथम वातावरण का दोस्त शहर माना जाता है। ये सुपरमार्किट्स में और दूसरे स्थानों पर जो तीन बड़े-बड़े ड्रम से देखते हो यह अपने शहर को साफ रखने का एक तरीका है जिसकी पहल लेस्टर से हुई।"
इससे पहले घर के और शहर के कूड़े करकट की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया था। कूड़ा फेंकने वाले स्थानों पर कूड़े के ढेर लगते जा रहे थे। लेस्टर के छात्रों ने सबसे पहले सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। घरों में भी एक ही डस्टबिन हुआ करता था जिसमें रसोई और घर का कूड़ा सब एक ही बिन में जाता था। कुछ ऐसा सामान जैसे समाचार पत्र, एलमोनियम के टिन, काँच की व प्लास्टिक की बोतलें आदि का प्रयोग री-साइकल करके दोबारा किया जा सकता है सब बेकार जा रहा था।"
"अब तो यह ड्रम प्रत्येक शहर में दिखाई देते हैं," सायमन भोलेपन ले बोला।
"हाँ... इसकी शुरुआत तो लेस्टर से ही हुई है ना। जब लेस्टर के छात्रों ने सरकार का ध्यान इस ओर आकर्शित किया तो वातावरण को शुद्ध रखने का कदम उठाया गया। सबसे पहले घरों में एक के स्थान पर दो डस्टबिन दिए जाने लगे। एक रसोईघर के कूड़े के लिए व दूसरा घर के और फालतू सामान के लिए। यही नहीं न पहनने वाले कपड़े, पुराने अच्छी हालत के जूते, बेल्ट, पर्स, यहाँ तक कि नजर के पुराने चश्मे तक फिर से प्रयोग में लाने के लिए घर घर में प्लास्टिक के बड़े थैले डाले जाते हैं जो लोग अपना पुराना व फिर से प्रयोग में आने वाला सामान उन थैलों में डाल दें जिनके लिए कितनी ही चेरिटी की दुकाने खुली हुई हैं जो यह सामान बेच कर इनके पैसे गरीब देशों में भेजते हैं।"
"हूँ..."
"यह जो तुम तीन अलग रंग के ड्रम सुपरमार्किट्स में देखते हो ये भी इसी काम के लिए हैं। काला.. काँच की बोतलें और दूसरा काँच का सामान फेंकने के लिए, हरे रंग के ड्रम में पुराने समाचार पत्र, गत्ते के डिब्बे व पुराने कागज, अलमोनियम के टिन इत्यादि और तीसरे भूरे रंग के ड्रम में पुराने न पहनने वाले कपड़े डाले जाते हैं। ऐसे ड्रम अब देश के हर शहर में मिलते हैं जिसकी शुरुआत लेस्टर से हुई... तो है न हमारा लेस्टर महान।"
"महान शहर की महान देवी जी अब घर चलें," सायमन उसका हाथ पकड़ कर बोला।
"घर जाने से याद आया सायमन कि करीब सारी युनिवर्सिटी खाली हो चुकी है। हमें भी अब कुछ समय अपने परिवारों के बीच गुजारना चाहिए।"
"हाँ निशा मैं भी यही सोच रहा था कि तुम्हारा शेफील्ड का इंटरव्यू हो जाए तो हम भी कुछ दिन घर वालों के साथ बिताएँगे। एक बार काम आरंभ हो गया और अपनी जिंदगियों में उलझ गए तो कहाँ समय मिलेगा।"
***
लोग सोचते ही रह जाते हैं और यह समय कहाँ का कहाँ निकल जाता है। देखते ही देखते निशा की युनिवर्सिटी की पढ़ाई भी समाप्त हो गई। यह तीन वर्ष कैसे गुजर गए कुछ पता ही न चला और अब नौकरी की चिंता।
"माँ... आप जानती हैं मेरा शेफील्ड का इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ है। एक बार काम में सैटल हो जाऊँ तो मैं जितेन का युनिवर्सिटी का सारा भार सँभाल लूँगी।"
"पर बेटा इतनी दूर शेफील्ड क्यों। लॉफ़्बरो या लेस्टर में ही कहीं कोई काम मिल जाता तो अच्छा था न। वैसे काम करने की आवश्यकता भी क्या है। तुम्हारी शादी की उम्र है। एक माँ को कितना चाव होता है अपनी बेटी के हाथ पीले करने का।"
"वो सब भी हो जाएगा माँ पहले इतने साल जो मैंने पढ़ाई में लगाए हैं उसका कुछ तो लाभ हम सब उठा लें। आप शेफील्ड को दूर कहती हैं मम्मा मेरी अभी पापा से बात हो रही थी कि मुझे लंदन की एक बहुत बड़ी सोफ्टवेयर कंपनी से जॉब की ऑफर आई है। पापा भी यही चाहते हैं कि मैं पहले किसी छोटी कंपनी में काम करके थोड़ा अनुभव प्राप्त कर लूँ तब किसी बड़ी कंपनी की ओर हाथ बढ़ाऊँ।"
"लंदन... न बाबा वहाँ तो मैं तुम्हें हरगिज नहीं भेजूँगी।"
"ठीक है मॉम समय आने पर इस विषय में भी बात कर लेंगे। वैसे हमारी पाँच जुलाई की टिकट भारत के लिए बुक हो गई हैं।"
"इतनी जल्दी। एक बात का ख्याल रखना बेटा जुलाई में बहुत गर्मी होती है। यदि कभी जल्दी बारिशें शुरू हो गईं तब तो जगह जगह कीचड़, उमस भरी हवाएँ, मच्छर यही सब देखने को मिलेगा।"
"नहीं मॉम हमारे लिए यही समय ठीक है। एक बार काम आरंभ कर दिया तो फिर छुट्टी लेनी मुश्किल हो जाएगी। मैं बचपन से नानी से वादा करती आ रही हूँ कि उन्हें उनके घर नवसारी ले कर जाऊँगी। यदि अपना वादा पूरा न कर पाई तो जीवन भर पश्चाताप के तले दबी रहूँगी।"
"नानी की ही तो चिंता है बेटा। एक तो ढलती आयु ऊपर से इस उम्र में उनका ऑपरेशन... वो पहले से भी अधिक दुबली हो गई हैं। कहीं कोई बात हो गई तो अकेले कैसे सँभालोगी।"
"आप नानी की चिंता मत करो माँ मैं उनका पूरा ख्याल रखूँगी। फिर सायमन भी तो है न साथ में।"
"यह हर बात में सायमन कहाँ से आ टपकता है हमारे बीच," सरोज चिढ़ कर बोलीं।"
"मॉम यदि आपने फिर से सायमन की बात उठाई है तो मैं आपको एक खुशी की बात बता दूँ कि मुझे और सायमन दोनों को शेफील्ड में काम मिला है। हम अगस्त महीने से काम करना शुरू करेंगे। फिर भारत से वापिस आ कर हमें मकान भी तो ढूँढ़ना है रहने के लिए।"
"हमें... क्या मतलब तुम दोनों एक ही घर में रहोगे," माँ हैरान हो कर बोली।
"इसमें इतनी हैरानी की क्या बात है, अभी तक हम इकट्ठे ही रहते आए हैं।"
"पहले तुम पाँच एक घर में रहते थे। अब केवल तुम दोनों एक ही घर में...। क्यों हमारी इज्जत उछालने में लगी हुई हो निशा। हमने तुम्हारे ऊपर कभी कोई बंदिश नहीं लगाई तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम हर बात पर मनमानी करती रहो। जसु बेन और धीरु भाई कितने अच्छे निकले कि समय से दोनों बेटियों की शादी करके निश्चिंत हो गए हैं।"
"जरा उनसे यह जाकर पूछिए कि वो कितने निश्चिंत हैं। किन हालात में उन्होंने अपनी दोनो बेटियों की शादी की है। मैं अगर आपको उनकी बेटियों के कारनामे बता दूँ तो आप के पैरों के नीचे से जमीन खिसक जाएगी।"
"क्यों, क्या बुराई थी उनमें। इतनी संस्कारी लड़कियाँ। सुबह शाम पूजा करने वाली। आज कल ऐसी लड़कियाँ कहाँ मिलती हैं।"
"ऐसी लड़कियाँ... भगवान ऐसी लड़कियाँ किसी माता-पिता को न दे। पूछिए धीरु भाई से कि चार दिन के अंदर बेटी वीणा की शादी करके उसे अमरीका क्यों भेज दिया उन्होंने। वो भी ऐसे लड़के से जो स्वयं वहाँ गैरकानूनी तरीके से रह रहा था। उसके पास ग्रीन कार्ड भी नहीं था मॉम। वीणा कभी ब्रिटेन नहीं आ सकती। उस समय धीरु भाई के पास और कोई चारा ही नहीं था बदनामी से बचने का। लॉफ़्बरो छोटा सा शहर है। वीणा के शर्मनाक कारनामें कब तक लोगों की आँखों से बचते रहते। छोटी बेटी जयश्री तो बड़ी बहन से भी चार कदम आगे लिकल गई थी। कम से कम मुझमें आपके दिए हुए संस्कार तो हैं मॉम जो सदा बुराई से बचाते हैं।"
"वो तो सब ठीक है बेटा लेकिन यह दुनिया वालों को तो ताने मारने के लिए कुछ चाहिए।"
"यह दूसरों के घरों में झाँकने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि उनके घरों की खिड़कियाँ भी शीशे की बनी हैं। वो क्या जाने कि उनके बच्चे बाहर क्या गुल खिला रहे हैं। इस लिए मेरी अच्छी माँ किसी प्रकार की भी चिंता छोड़ कर अपने बच्चों पर विश्वास करना सीखिए...," माँ के गले में बाँहें डाल कर निशा प्यार से बोली, "कभी मन में कोई खुराफात आए भी तो आपके संस्कार बीच में ढाल बन कर खड़े हो जाते हैं।"
"अब मैं तुम्हारी तरह पढ़ी लिखी तो हूँ नहीं जो बातों में तुमसे जीत पाऊँ।"
"आप स्वयं को कहती हैं कि पढ़ी लिखी नहीं हैं। याद है कैसे टाउल्स कारखाने में काम करते हुए आपने अपने फोरमैन की बोलती बंद कर दी थी।"
"अरे वो... सरोज हँसते हुए बोली... वो तो हमारा फोरमैन ही बेवकूफ था। जब मेरी पूरे सप्ताह के काम की टिकट्स सामने पड़ी थीं जिन्हें गिन कर ही हर हफ्ते हमें पैसे मिलते थे। उन्हें गिनने के पश्चात वह कहने लगा कि इन टिकट्स को देख कर पता चलता है कि तुम बहुत जयादा कमा रही हो।"
"नहीं मिस्टर वील्स मैं कठिन परिश्रम कर रही हूँ। यह उसी परिश्रम का फल है।"
"लेकिन मैं तुम्हें इतने अधिक पैसे नहीं दे सकता।"
"आप... आप कौन होते हैं मुझे पैसे देने वाले। मैं और आप दोनों इसी कारखाने में काम करते हैं और यहीं से वेतन लेते हैं। जो स्वयं भिखारी हो वह दूसरे को क्या भीख देगा।"
"क्या जवाब दिया था मॉम आपने कि वह अपने मुँह की खा कर रह गया।"
"अच्छा छोड़ अब पुरानी बातों को, तेरी एक सहेली लिंडा भी तो थी। उसका कोई अता-पता रखती है या नहीं। उसकी माँ शायद बीमार रहती थी अब कैसी है।"
"क्या बताऊँ लिंडा बेचारी के बारे में। इतनी छोटी सी उम्र और इतनी बड़ी जिम्मेदारी। पढ़ने में इतनी तेज। उसकी वो बात याद आती है कि... "डिग्री मेरी माँ से बढ़ कर नहीं है।" कितनी ऊँची बात कर दी उसने मॉम...। लोगों को बड़ी गलतफहमी है कि अंग्रेज बच्चे अपने माता-पिता का ख्याल नहीं रखते। कोई आकर लिंडा को देखे जिसने माँ की देख भाल के लिए अपनी हर इच्छा का दमन कर दिया है। वह भी तो युवा है। केवल 24 वर्ष की। उसके अपने भी तो कई अरमान होंगे।"
"आखिर उसकी माँ को बीमारी क्या है बेटा जो वह घर से बाहर भी नहीं निकलती।"
"लिंडा की माँ को कोई शारीरिक बीमारी नहीं है माँ। अकेले होते ही उनकी घबराहट बढ़ जाती है जिससे वह कुछ उल्टी सीधी हरकतें करने लगती हैं। यही कारण है कि उनको काम भी छोड़ना पड़ा। अभी उनकी आयु इतनी भी नहीं जो पेन्शन मिल सके और इतनी बीमार भी नहीं हैं कि सरकार की सहायता मिल सके। सोशल सर्विस वाले इतनी सहायता जरूर करते हैं कि जब लिंडा काम पर होती है तो कोई न कोई एक दो बार घर में चक्कर लगा कर देख जाता है कि जैकी ठीक है। घर चलाने के लिए किसी को तो काम करना है। लिंडा यहीं लॉफ़्बरो में काम करती है। भारत जाने से पहले उसे मिल कर जाऊँगी।"
"हाँ मिलने से याद आया कि तुम्हारी पुरानी अध्यापिका मिसेस हेजल फिश का फोन आया था वह भी तुमसे मिलना चाहती हैं।"
"मॉम अब इतना समय कहाँ है जो सबसे मिलती फिरूँ। मिसेस फिश को यहीं चाय पर बुला लेंगे। इसी बहाने आपसे भी उनकी मुलाकात हो जाएगी। मैं जरा नानी को देख कर आती हूँ। वह तो अभी से तैयारी हो कर के बैठी होंगी। इतने वर्षों के पश्चात उनकी इच्छा जो पूरी हो रही है।"
यह नहीं कि इच्छाओं का दमन केवल महिलाएँ ही करती हैं। पुरुष भी परिवार की खातिर अपने अरमानों का गला घोंटते रहते हैं वो भी खमोशी से। अपने दर्द की किसी को भनक भी नहीं पड़ने देते।
यही हाल सुरेश भाई का है... होठों पर मुस्कान बिखेरे, विनम्रता पूर्वक बोलने वाले सुरेश भाई जाने कितने तूफान अपने भीतर छुपाए हुए हैं। इस आयु में भी पत्नी से काम करवाना उनकी मजबूरी है। कभी वह स्वयं को धिक्कारते हैं कि जवान बेटी को अकेले अनजान देश में भेज रहे हैं। वह निशा को जाने से रोक भी तो नहीं सकते। वह अब छोटी बच्ची नहीं रही बालिग हो चुकी है। इस देश में बालिग होने का मतलब सुरेश भाई अच्छी तरह से जानते हैं। कहने को तो भारत उनका अपना देश है परंतु वह भारत को जानते ही कितना हैं।
काम छोड़ कर जाएँ तो जो यह थोड़ी सी आमदनी है वह भी बंद हो जाएगी। सरोज की कमाई से सारा घर चल रहा है उसे भी भेजें तो कैसे भेजें। वह सरोज का डर जानते हैं। सरोज तो अपने दिल की बात पति से बता सकती है परंतु सुरेश भाई अपने दिल का डर किसे बताएँ। चाहे सायमन साथ में है लेकिन उसके लिए वो देश ही नहीं वहाँ के वासी और भाषा भी अजनबी है। बस अपनी बच्ची को भगवान भरोसे भेज रहे हैं।
सुरेश भाई के समान सरोज की आँखों में भी नींद कहाँ... वह पति की ओर करवट बदल कर बोली...
"सुनिए जी सो गए क्या..."
"नहीं..." एक लंबी साँस छोड़ते हुए सुरेश भाई ने कहा।
"हम बेटी को अकेले भेज तो रहे हैं यदि वहाँ कोई ऊँच-नीच हो गई या बा बीमार पड़ गईं तो निशा कैसे सँभालेगी।"
"चिंता मत करो सरोज हमारी बेटी समझदार है और फिर सायमन भी तो है उसके साथ।"
"पता नहीं इस छोकरे सायमन ने क्या जादू कर दिया है दोनों बाप बेटी पर। जब देखो उसी के गुण गाते रहते हैं। मेरा तो जी चाहता है कि कोई अच्छा सा अपनी बिरादरी का लड़का देख कर निशा की शादी कर दूँ।"
"ये सोच अपने दिमाग से जितनी जल्दी निकाल दें उतना अच्छा है सरोज नहीं तो पीड़ा आप को ही होगी। हमने अपने बच्चों पर न कभी जोर पकड़ की है और ना ही आगे करेंगे। निशा तीन वर्ष घर से बाहर अपने दोस्तों के बीच रह कर आई है। अब घर से आजादी का अर्थ क्या होता है वह जान गई है।"
एक हल्की सी दबी हुई सिसकी सुनाई दी...
"अपने बच्चों को इस माहौल में भेजने वाले भी तो हम ही हैं सरोज। उस समय हम उन्हें प्रोत्साहित करते थे कि घर पर भी अंग्रेजी में ही बात करें जो अंग्रेजी तौर-तरीके सीख कर वह अंग्रेजों के साथ कदम से कदम मिला कर चल सकें। अब वह उनके साथ कदम मिला कर इतनी आगे बढ़ गए हैं कि हम उन्हें पीछे नहीं खींच सकते। वो भी इनसान हैं कोई आपके कारखाने की मशीन नहीं कि जब चाहें नया धागा लगा कर डिजाइन बदल दें।"
"तो फिर मैं क्या करूँ बताइए। मेरे भी तो बेटी को लेकर कई अरमान हैं," सरोज आँखों में आँसू भर कर बोली।
"इस माहौल में पले-बढ़े बच्चों के लिए यह आँसू बहाना सब पुरानी और इमोशनल ब्लैकमेल की बातें हैं। जमाना बड़ी तेजी से बदल रहा है सरोज। यदि हम भाग नहीं सकते तो जमाने के साथ चल तो सकते हैं।"
"वो हमारे बच्चे हैं जी। उनका भी तो अपने माता-पिता के प्रति कोई कर्तव्य है या नहीं..."
"जरूर है..." सुरेश भाई प्यार से पत्नी के गालों पर ढुलकते आँसू पोंछते हुए बोले... "हम यह क्यों भूल जाते हैं कि इन बच्चों ने हमें माता-पिता कहलाने का सौभाग्य दिया है, सुख दिया है। अपनी तोतली बातों से हमें आनंदित किया है। हम कितने गर्व से सिर उठा कर कह सकते हैं कि हम निशा और जितेन के माता-पिता हैं। जिन बच्चों ने हमें इतना प्यार दिया, मान दिया... अब हमारा भी तो कोई कर्तव्य बनता है अपने बच्चों के प्रति। उन्हें अपने पंख फैला कर खुली हवा में उड़ने दो सरोज। उनके पैर अपनी ममता की डोर से इतने भी मत बांधो कि वो कट जाएँ"
"वो तो सब ठीक है पर मैं क्या करूँ। जवान बेटी का सोच कर चिंता तो होती ही है ना।"
"निशा अब जल्दी ही घर से बाहर रह कर नौकरी शुरू करने वाली है। अब वह पैसों के लिए हमारे ऊपर निर्भर नहीं करेगी। यदि उसके कामों में ज्यादा मीन-मेख निकाली या सायमन को कोसा तो वह घर ना आने के बहाने ढूँढ़ने लगेगी। यदि हम चाहते हैं कि बच्चे हमारे रहें तो उनके साथ दोस्तों वाला व्यवहार रखना होगा। हँस कर या रो के हमें उनकी पसंद को अपनाना ही पड़ेगा।"
"अब अपने ही पेट के जायों को हम सही राह नहीं दिखा सकते..."
"ठीक कहा आपने सरोज। सोचिए... इस साल जितेन भी युनिवर्सिटी जा रहा है। बच्चे के पैर एक बार घर से बाहर निकले तो वह फिर पलट कर वापिस नहीं आएगा। इस उम्र में घर से बाहर आजादी में जीने का मजा ही कुछ ओर होता है। हमें तो स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिए कि हमारे दोनों बच्चे पढ़ाई में अच्छे हैं।"
"मेरा जितेन ऐसा कभी नहीं करेगा," सरोज आँसू पोंछते हुए बोली।
"इतनी उम्मीदें मत लगाओ सरोज। भगवान कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि अपना कर्तव्य करते जाओ फल की अपेक्षा मत करो। जितनी जल्दी हम बच्चों के बिना अकेले रहने की आदत डाल लें उतना अच्छा है। वो हमारे बच्चे जरूर हैं किंतु उन्हें तभी सलाह दो जब वह माँगे। हमारे पास यदि जीवन के अनुभव हैं तो वह हम से अधिक पढ़े लिखे हैं। हम पुराने जमाने के हैं और वो आज की पौध हैं। हमें उन्हें स्वतंत्र करना ही होगा नहीं तो वह हमसे दूर होते जाएँगे।"
"कभी कभी तो मुझे आपकी बातों से डर लगता है। समझ में ही नहीं आता कि आप क्या कह रहे हैं।"
"क्यों कि आप एक माँ हैं जो अपने बच्चों को हर समय आँचल में ही छुपा के रखना चाहती हैं।"
"चलो अब सो जाएँ सुबह जल्दी उठना है। सब को एयरपोर्ट पर भी तो छोड़ने जाना है।"
***
सरला बेन बहुत खुश हैं। आज इतने वर्षों के पश्चात उनके मन की मुराद जो पूरी हो रही है। जिस घर में वह लगभग पिछले 22 वर्षों से रह रही हैं दिल से उसे कभी अपना नहीं माना। उनका घर तो वो था जिसे पति के साथ मिल कर तिनका-तिनका जोड़ कर बनाया था।
बिस्तर पर लेटते ही सरलाबेन सोचों में डूब गईं...।
बस आज की रात और। कल शाम को मेरी इतनी लंबी वर्षों की प्रतीक्षा पूरी हो जाएगी। आखिर निशा ने अपना वादा पूरा कर ही दिया।
निशा ने तो वादा पूरा करके दिखा दिया किंतु क्या मैं इतने वर्षों के पश्चात नवसारी जा कर ठीक कर रही हूँ... माँ बाबू जी तो कब के चले गए। नवसारी में कौन होगा... ना जाने वहाँ जाकर क्या मिले। अपने भाई भाभियों के विषय में मैं कुछ जानती भी तो नहीं। क्या इतने सालों के बाद वह लोग वहीं होंगे...
यह सब अच्छा नहीं लग रहा... अपनी एक चाहत के लिए एक छोटी सी बच्ची को खतरे में डाल रही हूँ। निशा की अभी उम्र ही क्या है केवल 22 साल। फिर साथ में सायमन... एक पराया लड़का। भगवान ना करे कोई बात हो गई तो उसके माता-पिता को क्या जवाब देंगे। मैं इतनी स्वार्थी कब से बन गई। एक सपने, एक परछाईं के पीछे मैं सब को इतनी दूर ले कर जा रही हूँ...
मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि नवसारी में कोई होगा भी या नहीं। कैसा नवसारी... कौन सा नवसारी... पता नहीं आगे जा कर क्या मिले। किसी ने मुझे पहचानने से भी मना कर दिया तो... नहीं मैं बच्चों को इतने बड़े जोखिम में नहीं डाल सकती। यदि बच्चों के साथ कोई ऊँच-नीच हो गई तो सरोज तो मुझे माफ कर भी दे किंतु मैं स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाऊँगी।
मैं अभी नीचे जाकर सरोज और सुरेश भाई से बात करती हूँ। लेकिन कहूँगी क्या... वह लोग भी क्या सोचेंगे कि सारी उम्र नवसारी के गुण गाती रही और समय आने पर डर गई। सब लोग मेरी हँसी उड़ाएँगे... नहीं... मैं क्या करूँ... हे भगवान... आप ही कुछ ऐसा चमत्कार कर दो कि कल का जाना रुक जाए।
सरला बेन के दिमाग में एक उथल-पुथल मची हुई थी।
निशा भी क्या सोचेगी। वैसे ही सुरेश भाई का हाथ तंग रहता है ऊपर से इतनी महँगी हवाई जहाज की टिकटें। यह मैंने क्या किया। सरला बेन इधर से उधर करवटें बदल रही थीं। कभी उठ कर कमरे में टहलने लगतीं तो कभी खिड़की के सामने जाकर खड़ी हो जातीं। दरवाजा खोलतीं नीचे जाने के लिए फिर बंद कर देतीं। उन्हें किसी पहलू भी चैन नहीं था।
घबराहट बढ़ती जा रही थी। माथे पर ठंडा पसीना आ रहा था। सरला बेन जाकर बिस्तर पर लेट गईं। माथे पर पसीना और शरीर बुरी तरह से काँप रहा था। सरला बेन ने काँपते हाथों से तकिया उठा कर सीने के साथ भींच लिया। रजाई को अपने चारों ओर कस के लपेट कर आँखें बंद कर लीं। साँसें तेज चल रही थी। साँसें तेज चलने के पश्चात भी सरला बेन को साँस लेने में तकलीफ हो रही थी। सारा शरीर पसीने से यूँ भीग रहा था मानों किसी ने बाल्टी भर कर पानी उन पर फेंक दिया हो। वह कभी गर्मी और कभी सर्दी महसूस करने लगीं।
घबराहट थी कि बढ़ती ही जा रही थी। मुझे यह सब क्या हो रहा है। कल मैं कैसे नवसारी जा पाऊँगी। नहीं मैं अभी नीचे जाकर सरोज से बात करती हूँ। गला बुरी तरह से सूखने लगा।
सरला बेन ने मेज से पानी का गिलास लेने के लिए हाथ उठाना चाहा तो वो जैसे बिस्तर के साथ ही चिपक गया हो। वह जितना बिस्तर से उठने का प्रयत्न करतीं उतना ही उसमें धसती जाती। सरला बेन की घबराहट बढ़ने लगी। साँस लेने में तकलीफ होने लगी। जी चाहा बेटी को बुलाएँ किंतु आवाज हलक में ही अटक कर रह गई। बार-बार उठने के प्रयास से वह काफी थक गईं थी। थकावट और दबे साँस के कारण धीरे धीरे उनकी आँखें बंद होने लगीं।
सुबह निशा की आँख खुली तो सात बज चुके थे। रात काफी देर तक वह पैकिंग करती रही थी। उसने सोचा नानी तो कब से उठ कर तैयार ही बैठी होंगी। अभी तक वह मेरे कमरे में क्यों नहीं आईं मुझे जगाने के वास्ते। चलो तैयार हो कर मैं ही जाती हूँ उनके पास। यह भी अच्छा है कि फ्लाइट शाम की है... आराम से निकलेंगे घर से।
निशा ने नीचे आकर देखा तो नानी वहाँ भी नहीं थीं।
"मॉम नानी अभी नीचे नहीं आईं... कमाल हो गया। मैंने तो सोचा था कि वह शोर मचा रही होंगी।"
"नहीं बेटा नानी की उम्र भी तो देखो ना थक गई होंगी। कल कितनी खुश थीं। उत्सुकता के कारण रात नींद भी उन्हें बड़ी देर से आई होगी। अब तुम ज्यादा शोर नहीं मचाओ सोने दो नानी को थोड़ा.. आगे बड़ा लंबा सफर है।"
लंबे सफर के विषय में कोई सरला बेन से पूछे। खामोशी से इस सफर के कितने ही उतार चढ़ाव देखते हुए जिंदगी के 76 वर्ष पूरे किए हैं उन्होंने। आज लंबे इंतजार के पश्चात उनके मन की इच्छा पूरी होने जा रही है।
"निशा बेटा एक बार फिर सोच लो। पता नहीं एक अजीब सी घबराहट हो रही है... भेजने का बिल्कुल मन नहीं कर रहा।"
"मॉम... अब फिर से शुरू मत हो जाइए प्लीज... नहीं तो मेरा भी वहाँ मन नहीं लगेगा। नानी का सोचिए जो कितनी खुश लग रही हैं। बस बहुत हो गया... मेरा मन नहीं लग रहा मैं जा रही हूँ नानी को जगाने।"
"थोड़ा रुक जाओ बेटा सोने दो नानी को... अभी कुछ ही देर में आ जाएँगी नीचे।"
"नहीं माँ मेरा उनके बिना मन नहीं लग रहा। घर कितना सूना सूना सा लग रहा है। अरे भई हम भारत जाने वाले हैं तो घर में कुछ शोर शराबा तो होना चाहिए ना। मैं जा रही हूँ नानी को जगाने...।"
"तुम भी ना..." सरोज हँसते हुए बोली और निशा धड़-धड़ करके सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।"
"निशा सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बोले जा रही थी, "नानी... नानी उठिए... और कितना सोएँगी। नीचे सब आपका इंतजार कर रहे हैं।"
दरवाजा खोल कर निशा नानी के कमरे में गई। नानी रजाई लपेट कर आराम से सो रहीं थी। उसने आगे बढ़ कर नानी के ऊपर से रजाई हटाई...
"नानी देखिए ना आप सोती रह गईं और जहाज चला भी गया...।"
जहाज तो कब का अपने यात्री को लेकर जा चुका था...।